मेवा सिंह और अमिताभ जोशी

यह आलेख करंट साइन्स में अतिथि संपादकीय में प्रकाशित हुआ था। मेवा सिंह मैसूर विश्व विद्यालय में प्रतिष्ठित प्राध्यापक हैं और डायलॉग: साइन्स, साइन्टिस्ट्स, एंड सोसायटी के प्रमुख संपादक हैं। अमिताभ जोशी बैंगलुरु स्थित जवाहर लाल नेहरु सेंटर फॉर एडवांस्ड साइन्टिफिक रिसर्च की वैकासिक व जीव-स्तरीय जीव विज्ञान इकाई में प्राध्यापक हैं। 

पिछली शताब्दी में संगठित विज्ञान, सरकारी नीतियों व सरकारी संरक्षण और सामाजिक लाभों व सरोकार के कई मुद्दे चर्चा में रहे हैं। भारत में इन कड़ियो को महत्व मुख्यत: आज़ादी के बाद ही मिला। पश्चिम की तरह भारत में भी विज्ञान, राजनीति और समाज का शुरुआती परस्पर जुड़ाव एक उम्मीद, उत्साह और वि·ाास से भरपूर था। ऐसा माना गया था कि विज्ञान सरकार को देश की विभिन्न राष्ट्रीय समस्याओं को संबोधित करने में सक्षम और मज़बूत बनाएगा जिससे देश के नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा।

पर पिछले कुछ दशकों में यह उत्साह ठंडा पड़ा है। ऐसा कुछ हद तक तो इसलिए हुआ है क्योंकि विज्ञान और समाज दोनों में तेज़ और दूरगामी परिवर्तन हुए हैं। यहां तक कि कुछ अच्छी कही जाने वाली वैज्ञानिक तकनीकों का नकारात्मक पक्ष ज़्यादा स्पष्ट हुआ है। जैसे खाद्य सुरक्षा से लेकर ऊर्जा और रोगों जैसे विभिन्न क्षेत्रों में वैज्ञानिक समाधानों के दूरगामी हानिकारक प्रभावों की समझ बढ़ी है। एक बदलाव और आया है कि कुल मिलाकर वैज्ञानिक शोध काफी महंगे हो गए हैं, जिसकी वजह से समाज में उनसे अपेक्षाएं और जवाबदेही की मांग बढ़ी है। इसके अलावा, विज्ञान में तकनीकी विशेषज्ञता के बढ़ने की वजह से यह लगने लगा है कि विज्ञान और वैज्ञानिक आत्म-केंद्रित होते जा रहे हैं और सामाजिक ज़रूरतों और आकांक्षाओं से दूर हो रहे हैं। इस तरह के बदलावों का दुष्परिणाम है कि समाज के एक हिस्से में विज्ञान विरोधी भावनाएं पनप रही हैं। यह बात यूएसए में सबसे नाटकीय रूप में और भारत में थोड़े कम स्तर पर नज़र आ रही है।

इसलिए ऐसे मुद्दों पर ज़्यादा स्पष्टता ज़रूरी है कि समाज और सरकार की विज्ञान और वैज्ञानिकों से क्या अपेक्षाएं है तथा, दूसरी ओर, विज्ञान और वैज्ञानिकों की समाज और सरकार से क्या अपेक्षाएं हैं? सार रूप में ‘विज्ञान के सामाजिक अनुबंध’ का मतलब यही है। इस स्पष्टता को हासिल करने के लिए कम से कम 3 प्रमुख मुद्दों को स्वीकार करना और उन पर प्रतिक्रिया देना ज़रूरी है। 

पहला, विज्ञान की प्रकृति और भूमिका को जिस ढंग से वैज्ञानिक व अन्य शिक्षाविद देखते हैं तथा जिस ढंग से समाज देखता है, उसमें क्या अंतर है? दूसरा, विज्ञान जिस ढंग से किया जाता है, जिस ढंग से उसका मूल्यांकन किया जाता है और उसे प्रोत्साहन दिया जाता है उसमें बदलाव तथा समाज के अंदर बदलाव ने ‘विज्ञान के सामाजिक अनुबंध’ की समझ को किस तरह प्रभावित किया है। तीसरा, आपसी समझ बेहतर करने के लिए वैज्ञानिकों और समाज के बीच संवाद कैसे बेहतर किया जाए जो विज्ञान के सामाजिक अनुबंध पर पुनर्विचार करने के लिए महत्वपूर्ण है। हम इन तीन मुद्दों पर संक्षेप में अपने कुछ विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।

विज्ञान के प्रति वैज्ञानिकों और समाज के नज़रिए में एक बड़ा अंतर इस बात से जुड़ा है कि उसमें उपयोगिता को तुलनात्मक रूप से कितना महत्व दिया जाता है। कई बुनियादी वैज्ञानिकों के लिए विज्ञान मुख्यत: समझ की तलाश है। अधिकांश समाज मानता है कि विज्ञान उनके दैनिक जीवन की व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए है। बुनियादी वैज्ञानिक मानते हैं कि विज्ञान का सम्बंध ब्राहृांण्ड के रहस्यों की व्याख्या हेतु निर्मित उत्कृष्ट संकल्पनाओं से है। दूसरी ओर, समाज की दृष्टि में विज्ञान टीके, रोगों से सुरक्षा, बेहतर फसलें, अच्छे ऊर्जा स्रोत, उपग्रह, विभिन्न नागरिक और सैन्य तकनीकें उपलब्ध कराता है। ज़्यादातर लोगों और सरकार को लगता है कि विज्ञान और टेक्नॉलॉजी अभिन्न रूप से जुड़े हुए जुड़वां हैं। कई वैज्ञानिक मानते हैं कि टेक्नॉलॉजी बहुत उपयोगी साधन है पर इसे विज्ञान मानने की भूल नहीं करना चाहिए। नतीजतन, कई वैज्ञानिक रोज़मर्रा की समस्याओं को हल करने को विज्ञान की प्रमुख भूमिका नहीं मानते। वे इसे एक सह-उत्पाद की तरह देखते हैं; एक ऐसा सह-उत्पाद जो बुनियादी शोध द्वारा बनी समझ के उपयोग का नतीजा है। इन दो मतों के बीच सेतु का काम करते हैं इंजीनीयर और प्रयुक्त विज्ञान शोधकर्ता, जो सामाजिक व सरकारी सरोकारों से सम्बंधित समस्याओं को सुलझाने के साथ ज़्यादा तालमेल रखते हैं। हमें लगता है कि भारतीय विज्ञान की एक कमी रही है कि वैज्ञानिकों के एक ही समूह से बुनियादी और व्यावहारिक दोनों तरह का शोध करने की उम्मीद की जाती है। इससे बुनियादी या व्यावहारिक किसी भी विज्ञान में उत्कृष्टता हासिल नहीं हो पाती क्योंकि इन दोनों के लिए एकदम भिन्न प्रशिक्षण, सोच और तरीकों की ज़रूरत होती है। दिक्कत यह है कि बुनियादी विज्ञान की अच्छी नींव के बिना राष्ट्र के लिए अच्छा नवाचारी व्यावहारिक विज्ञान करना मुश्किल है।

विज्ञान को लेकर समाज और वैज्ञानिकों के नज़रिए में एक बड़े अंतर का सम्बंध वैज्ञानिक विचारों की अस्थायी प्रकृति से है। समाज निश्चितता चाहता है। वैज्ञानिकों को इस रूप में देखा जाता है कि वे दुनिया के बारे में तथ्यात्मक सत्य पर काम करते हैं ना कि ऐसी अवधारणाओं पर जो कुछ संदर्भों में कारगर रहती हैं, कुछ में नहीं या नई खोज के साथ समाप्त हो जाती हैं। लिहाज़ा, विज्ञान के भीतर वैध असहमतियों और बहसों से समाज में मोहभंग की स्थिति पैदा हो जाती है कि वैज्ञानिक तो आपस में ही सहमत नहीं हो पा रहे हैं। यहां मुख्य अंतर यह है कि राजनीति और दैनिक सामाजिक जीवन में आत्म विश्वास से भरपूर निश्चितता को एक गुण के रूप में देखा जाता है। विज्ञान में इस स्तर की निश्चितता को बौद्धिक अहंकार माना जाता है। एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी - अगर कोई डॉक्टर कहे कि “मैं सचमुच नहीं समझ पा रहा हूं कि आपके लक्षणों का कारण क्या है”, तो जीव वैज्ञानिक सहानुभूतिपूर्वक कहेंगें कि “सही है, फ्रूटप्लाई के बुनियादी जीव विज्ञान को समझना ही काफी मुश्किल है, मनुष्यों की तो बात ही जाने दें।” पर कई गैर-वैज्ञानिक इसका मतलब यह निकालेंगे कि डॉक्टर अक्षम था।

शिक्षा क्षेत्र में भी इस बात को लेकर अंतर हैं कि वैज्ञानिक और अन्य लोग विज्ञान को किस नज़रिए से देखते हैं। कई वैज्ञानिक और समाज में उन्हें मानने वाले ‘विज्ञानवाद’ में फंस जाते हैं। अर्थात वे मानते हैं कि समझने और विश्लेषण करने के लिए वैज्ञानिक तरीके ही श्रेष्ठ हैं। यही बात सामाजिक विज्ञान और मानविकी के शिक्षाविदों और उनके सहायकों में भी नज़र आती है, जो विज्ञान को यह कहकर खारिज कर देते हैं कि यह तो “कई वृत्तांतों में से एक है”। ज़ाहिर है, इस तरह के अस्वीकृति भरे हेयता से परिपूर्ण रवैये से बातचीत को बढ़ावा नहीं मिलता जिससे संभवत: परस्पर बौद्धिक समृद्धि की ओर बढ़ने में मदद मिल सकती है।

हम विशेष रूप से इसलिए परेशान हैं क्योंकि विकास, पारिस्थितिकी और जंतु-व्यवहार जैसे हमारे अनुसंधान क्षेत्रों में, हम नियमित रूप से उन सवालों का सामना करते हैं जो तथाकथित ‘सख्त विज्ञान’ और ‘सामाजिक विज्ञान’ से सम्बंधित हैं। वैकासिक जीव विज्ञानी और इतिहासकार दोनों ही को अनिश्चितताओं और पुनरावृत्ति के अभाव की समस्याओं का सामना करना होता है, लेकिन इन समस्याओं से निपटने के लिए इन दोनों विषयों में जो तरीके विकसित हुए हैं वे बहुत अलग-अलग हैं। इसी तरह पारिस्थितिकीविद व जंतु व्यवहार का अध्ययन करने वाले जीव वैज्ञानिक और समाजशास्त्री व मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व्यवहार और संगठन को समझने के प्रयास करते हैं लेकिन दोनों के समझने के  तरीके बहुत अलग-अलग हैं। इनके बीच समृद्ध संवाद के अवसर बहुत हैं किंतु उनका उपयोग नहीं किया गया है।
दूसरे मुद्दे की बात करें तो, पिछले कुछ दशकों में बदलाव का मुख्य पहलू ‘कॉर्पोरेट संस्कृति’ का उभार रहा है जिसे बिज़नेस मेनेजमेंट के दर्शन ने बढ़ावा दिया है। यह विज्ञान और समाज के लिए एक समस्या है। कॉर्पोरेट संस्कृति के प्रासंगिक पहलुओं को इस तरह समझा जा सकता है: (1) प्रत्येक उत्पाद/सेवा को व्यापार की वस्तु के तौर पर देखा जा सकता है; (2) उत्पाद/सेवा को सफलतापूर्वक बेचने के लिए उसके बारे में विशिष्ट ज्ञान ज़रूरी नहीं है; (3) गुणवत्ता का मूल्यांकन मात्रात्मक पैमाने के माध्यम से किया जा सकता है; और (4) तात्कालिक सफलता ही मूल्यांकन का एकमात्र महत्वपूर्ण पैमाना है।

इस संस्कृति के कारण तीन महत्वपूर्ण क्षेत्रों - शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और पत्रकारिता - के व्यापारीकरण से समाज पर हानिकारक प्रभाव पड़े हैं जबकि इन क्षेत्रों में काम करने वाले पारंपरिक रूप से अपनी भूमिका ‘समाज सेवा’ के रूप में देखते आए हैं। इन क्षेत्रों में उपरोक्त चार मान्यताओं को लागू करने के नतीजे हमें हर दिन दिखाई देते हैं, और हम यहां इस पर ज़्यादा बात नहीं करेंगे। यही ‘कार्पोरेट संस्कृति’ विज्ञान को भी नुकसान पहुंचा रही है क्योंकि वह इस बात को प्रभावित करती है कि वैज्ञानिक शोध को प्रस्तुत कैसे किया जाएगा और उसका मूल्यांकन कैसे किया जाएगा। इसके चलते वैज्ञानिक ठोस विज्ञान करने की बजाय पारितोषिक और प्रसिद्धी दिलाने वाली समस्याओं पर काम करना चुन रहे हैं। इस कारण विज्ञान और समाज के बीच दूरी बरकरार है, और दोनों के बीच परस्पर विश्वास कम हुआ है।

तीसरा मुद्दा विज्ञान और समाज के बीच संवाद का है। इस संदर्भ में वास्तव में तीन पहलुओं पर ध्यान देने की ज़रूरत है। पहला, वैज्ञानिक प्रगति को समाज में प्रसारित करना। विज्ञान के इस पहलू पर राष्ट्रीय और वि·ा स्तर पर पिछले दस-पन्द्रह सालों में काफी सुधार हुआ है, हालांकि अभी काफी काम किया जाना बाकी है। दूसरा पहलू, जिसमें हमें लगता है कि वैज्ञानिकों ने अब तक अच्छा काम नहीं किया है, वह है समाज को वैज्ञानिक आचरण के बारे में अपनी राय बताना। यदि हम एक स्पष्ट तस्वीर दें कि हम विज्ञान (विज्ञान के उपयोगितावादी पहलू समेत) को कैसे देखते हैं और क्यों, तो हम विज्ञान के प्रति सामाजिक अपेक्षाओं की ज़्यादा परिष्कृत समझ पैदा कर सकेंगे। साथ ही, हम संशय और तार्किकता की मिली-जुली बुनियाद पर वैज्ञानिक स्वभाव को भी बढ़ावा दे पाएंगे।

तीसरा मुद्दा जिस पर भारत में फौरन ध्यान देने की ज़रूरत है: वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को सरकार और समाज के बीच ऐसे नीतिगत मुद्दों पर मध्यस्थ और वार्ताकार की भूमिका निभानी चाहिए जिनमें वैज्ञानिक आयाम भी होते हैं और सामाजिक सरोकार भी। ये मुद्दे जीएम फसलों से लेकर परमाणु ऊर्जा संयंत्रों तक हो सकते हैं। इस तरह के मुद्दों पर सरकार और समाज के बीच वार्तालाप प्राय: बेहद राजनीतिक और भावनात्मक हो जाता है। इन सबके बीच एक संतुलित और अराजनैतिक वैज्ञानिक योगदान का अभाव होता है, जो चर्चा को ज़्यादा सार्थक बना सकता है। वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को और अधिक सक्रियता दर्शाने की ज़रूरत है ताकि वे एक ऐसे समुदाय के प्रतिनिधि के रूप में सम्मानित और निष्पक्ष वार्ताकार की भूमिका निभा सकें जिस पर समाज व सरकार दोनों विश्वास करते हों। इस तरह से वे सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक दोनों दृष्टियों से नीतियों के वैज्ञानिक पहलुओं का विश्लेषण लाभ-लागत के लिहाज़ से करने में मददगार होंगे। कई पश्चिमी देशों में विज्ञान अकादमियों और वैज्ञानिक निकायों द्वारा यह भूमिका निभाई जा रही है, पर भारत में इन संस्थानों ने इसे अंगीकार नहीं किया है। एक सफल वार्ताकार की भूमिका के लिए एक स्तर तक विश्वास ज़रूरी है और विश्वास की पहली शर्त संवाद और आपसी समझ है।

इस संदर्भ में, हमें बहुत खुशी है कि भारतीय विज्ञान अकादमी ने हाल ही में वैज्ञानिकों और समाज के बीच सार्थक बातचीत को बढ़ावा देने की दिशा में एक नई पहल की है। विचार यह है कि विज्ञानकर्मियों, विज्ञान नीति निर्माताओं, विज्ञान प्रशासकों व शिक्षकों, और आम समाज के बीच खुली और निरंतर चर्चा हो, ताकि सभी हितधारी विज्ञान के कामकाज, शिक्षण और प्रबंधन और साथ-साथ, विज्ञान व समाज के संपर्क बिंदु के सभी पहलुओं पर संवाद में जुड़ सकें। आशा यह है कि इससे समाज, लोकनीति, और संस्कृति में विज्ञान के स्थान के अधिक समावेशी और स्वीकार्य नज़रिए को बढ़ावा मिलेगा। यह पहल एक नए अकादमिक जर्नल, डायलॉग: साइन्स, साइन्टिस्ट्स, एंड सोसायटी (संवाद: विज्ञान, वैज्ञानिक और समाज) के इर्द-गिर्द बुनी गई है। इसके साथ एक और अधिक अनौपचारिक (किंतु मॉडरेटेड) वेब-चर्चा मंच कॉन्फ्लुएंस निर्मित किया गया है।

यह जर्नल चर्चाओं और बहस को बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक बैठकों के आयोजन हेतु एक मंच के रूप में काम करेगा ताकि वैज्ञानिकों और समाज के बीच बेहतर आपसी समझ बन सके। हाल ही में ऐसे दो आयोजन बैंगलुरु और दिल्ली में हुए हैं। इस प्रयास से जुड़ना हमारे लिए गर्व की बात है और हम आशा करते हैं कि यह वास्तव में विज्ञान के सामाजिक अनुबंध की एक सार्थक पुनर्रचना का आगाज़ करेगा। (स्रोत फीचर्स)