वैसे तो पेड़-पौधों की सुरक्षा रणनीति यही रहती है कि जहां कहीं किसी भी कारण से चोट लगे उसे तुरन्त भरने का जतन किया जाए। ऐसा इसलिए किया जाता कि और अधिक पोषक पदार्थों तथा खनिजों की हानि को रोका जा सके। इस तरह से आंतरिक अंगों को बैक्टीरिया और फफूंद के संक्रमणों से भी बचाया जा सकता है। घावों को भरने में गोंद, लेटेक्स आदि मदद करते हैं।
कोई भी घाव जितनी जल्दी हो सके भर जाए तो अच्छा है, किंतु बर्लिन मुक्त विश्वविद्यालय के एन्के स्टेपन और साथियों के हाल ही में नेचर में प्रकाशित एक शोध पत्र का शीर्षक (‘प्लांट ब्लीड्स नेक्टर फ्राम वुन्डस’ अर्थात पौधों के घाव से मकरंद रिसता है) ही बताता है कि पौधे अन्य रणनीतियां भी अपनाते हैं। इसके अनुसार कुछ घाव जानबूझ कर भरे नहीं जाते ताकि घाव रिसता रहे। परन्तु कोई पौधा ऐसा क्यों करता है? उसे इससे क्या फायदा?
मामला बड़ा रोचक है। सोलेनम डल्कामारा (बिटरस्वीट नाइटशेड) में पत्ते शाकाहारी कीटों से कुतरे जाने पर बने ज़ख्मों को पूरी तरह से बंद नहीं करते और उनसे स्राव मीठी-मीठी बूंदों के रूप में निकलता रहता है। चीटियां इन कुतरे हुए हिस्सों से मकरंद प्राप्त करती हैं।
इस शोध दल की परिकल्पना है कि घावों से रिसता यह स्राव गैर पुष्पीय मकरंद (एक्स्ट्राफ्लोरल मकरन्द) का एक प्रकार है। यहां यह उल्लेखनीय है कि कई पौधों के फूलों में मकरंद ग्रंथियां पाई जाती है। इन ग्रंथियों में बनने वाला मकरंद परागणकर्ताओं (विशेषकर मधुमक्खी और चिड़ियों) को आकर्षित करता है। ये परागणकर्ता मकरंद के बदले इन फूलों की परागण क्रिया में मदद करते हैं।

फूलों पर पाई जाने वाली इन मकरन्द ग्रंथियों को पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां (फ्लोरल नेक्टरी) कहा जाता है। पौधों में फूलों के अलावा भी मकरन्द ग्रंथियां मिलती हैं जिन्हें गैर पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां कहते हैं। पर इनकी बात विस्तार से आगे करेंगे। फिलहाल मुद्दे पर लौट आते हैं।
स्टेपन और सहयोगियों का कहना है कि गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों के विपरीत घाव के ये स्राव न तो किसी विशेष रचना से जुड़े हैं और न ही किसी विशेष जगह पर पाए जाते हैं। यद्यपि गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों की तरह ही ये भी जैस्मोनेट्स (एक प्रकार का वनस्पति हारमोन) के नियंत्रण में होते हैं। पौधा इनके रासायनिक संघटन को नियंत्रित करता है और घाव से निकला यह रस चीटियों को अपनी ओर आकर्षित करता है। घावों से रिसते इस रस को जब अन्य पौधों पर लगाया गया तो देखा गया कि वह चीटियों को लुभाता है। इस रस के प्रभाव से सोलेनम डल्कामारा में पत्तियां कम कुतरी जाती हैं। ग्रीन हाउस प्रयोगों में देखा गया कि ये चीटियां सोलेनम डल्कामारा को उसके कुदरती शाकाहारियों (स्लग और फ्ली बीटल लार्वा) से सुरक्षा प्रदान करती हैं।
गौरतलब है कि मकरंद एक शर्करा युक्त स्राव है जो जंतुओं और पौधों के बीच परस्पर सम्बंधों में सक्रिय पारिस्थितिक भूमिका निभाता है। हो सकता है कि इस तरह का पौधों से चूने वाला मकरंद स्राव एक पुरातन तरीका है और संभवत: गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों का विकास एवं उत्पत्ति इसी से हुई हो।

सौ से अधिक वनस्पति कुलों में गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां पाई गई हैं। ये आक्रामक चीटियों को आकर्षित करती हैं जो नई विकसित हो रही पत्तियों, तनों और फूलों को शाकाहारियों से कुतरे जाने से बचाती हैं। ये शीतोष्ण जंगलों से लेकर रेगिस्तानों तक लगभग सभी वनस्पति समुदायों में मिलती है।
गैर पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों में बहुत विविधताएं होने के बावजूद यह बात उल्लेखनीय है कि इनसे निकलने वाला मकरंद लगभग एक समान होता है। जबकि पुष्पीय मकरंद फूलों पर आने वाले आगन्तुकों के अनुसार तय होता है। 90 फूलधारी वनस्पतियों और लगभग 12 से ज़्यादा फर्न वंशों में कम से कम एक-एक प्रजाति में गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां देखी गई हैं। एंजियोस्पर्म फायलोजेनी समूह ने 745 वंश एवं 108 कुलों में 3941 प्रजातियों में गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां देखी हैं। मज़ेदार बात यह भी है कि आधे के करीब गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियोंे वाली प्रजातियां फूलधारी पौधों के तीन कुलों में मिलती है - फलीदार वनस्पति कुल, पेसीफ्लोरेसी (राखी फूल कुल) और मालवेसी (भिण्डी कुल)।
फर्न में पाई जाने वाली गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां डार्विन और डार्विन के लड़के को भी परेशान करती रहीं। चूंकि फर्न में फूल होते ही नहीं, अत: इनमें पाई जाने वाली मकरंद ग्रंथियों को गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां नहीं कहा जा सकता। उन्हें तो गैर-सोरस कहना ज़्यादा उचित होगा (क्योंकि फर्न में प्रजनन अंग सोरस यानी बीजाणु धानियां होते हैं)। कोप्टर और उनके साथियों ने अपने एक अध्ययन में पाया कि फर्न में पाई जाने वाली मकरंद ग्रंथियों की भूमिका रक्षात्मक एवं परस्पर उपकारी प्रकार के सम्बंध दर्शाती है।

गैर पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों को अपने आसपास देखना हो तो कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। अपने आसपास के बगीचों में जाकर लाल पत्ता नाम का पौधा ढूंढिए। इसे यूर्फोबिया पल्चेरिमा कहते हैं। इसके लाल-लाल पत्तों के बीच झांकते विशेष कटोरेनुमा पुष्पक्रम के बाहर गहरे पीले रंग की चमकती हुई ग्रंथियां आपको दूर से नज़र आ जाएंगी। यही हैं गैर पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां। इनमें इतना मकरंद भरा होता है कि आप इसे उंगलियों से चाट सकते हैं। इस ‘नकली फूल’ पर शकरखोरों, भौंरों, मधुमक्खियों और तितलियों को मंडराते देखा जा सकता है।
एक और पौधा है हमारे आसपास। यह है गिलकी, तुरई या कद्दू की बेल। इनमें फ्लोरल और एक्ट्राफ्लोरल दोनों प्रकार की मकरंद ग्रंथियां पाई जाती हैं। फूलों पर अण्डाशय के नीचे फ्लोरल और बेलों के अग्र सिरों पर पत्तियों की कक्ष में ये तिकोनी चिपकी होती हैं, इन पर चमचमाता मकरंद दिखता है। परन्तु इन पर मधुमक्खियों का नहीं, चींटियों का आना-जाना है। ये बेल को कुतरने वाले शाकाहारी कीटों से बचाता है।


गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों के वितरण और संरचना में बहुत विविधता नज़र आती है। ये पौधे के ज़मीन से ऊपर वाले हिस्सों पर पाई जा सकती हैं। जैसे पत्तियां, निपत्र, फूलों के डंठल और फूलों के बाहरी हिस्से जो सीधे-सीधे परागण में शामिल नहीं होते। गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां सरल ग्रंथियुक्त रोम, छिपी हुई संरचनात्मक तथा गैर संरचनात्मक स्रावी ऊतक से लेकर स्पष्ट रूप से नज़र आने वाली ग्रंथियों के रूप में होती हैं।  
गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों और चींटियों के रिश्तों ने जैव-विकास पर कार्य करने वाले वैज्ञानिकों का खूब ध्यान आकृष्ट किया है। यह तो मालूम था कि इन ग्रंथियों के मकरंद का परागण वाले पुष्पीय मकरंद से कोई लेना-देना नहीं है। परन्तु यह हमेशा विवाद का विषय बना रहा है कि क्या इस मकरंद का कोई वैकासिक महत्व है।
सुरक्षावादी कहते हैं कि गैर-पुष्पीय मकरंद का काम शाकाहारियों को भगाने वाली चींटियों को अपनी ओर आकर्षित करना है। दूसरी ओर, शोषणवादियों का कहना है कि गैर-पुष्पीय मकरंद एक व्यर्थ पदार्थ है और इसे खाने के लिए पौधे पर मंडराने वालों की कोई विशेष भूमिका नहीं है। कोप्टर ने बताया कि नई फर्न, जिनमें सक्रिय मकरंद ग्रंथियां पाई जाती है, सुरक्षा प्रदान करने वाली आक्रामक चींटियों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं और ये चीटियां गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथि युक्त पौधों को पत्ती-भक्षकों से सुरक्षा प्रदान करती है।
पौधों को चींटियों की उपस्थिति से फायदा होता हो या नहीं परन्तु यह तो तय है कि चींटियों के लिए गैर पुष्पीय मकरंद एक महत्वपूर्ण पोषक पदार्थ है। गैर पुष्पीय मकरंद कुछ चीटियों द्वारा जुटाए गए कुल भोजन का 90 प्रतिशत हिस्सा तक होता है।
कुछ वैज्ञानिकों का तो विचार यह भी है कि पूरी दुनिया में चींटियों के प्रभुत्व का एक कारण गैर-पुष्पीय मकरंद भी है। यह मकरंद चींटियों के लिए दो कारणों से महत्वपूर्ण है - पहला गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां आसानी से नज़र आने वाली रचनाएं हैं और लगातार समयबद्ध भोजन का स्रोत हैं। इसके विपरीत शिकार को खोजना और पकड़ना आसान नहीं होता। दूसरा, मोनोसेकेराइड, डाईसेकेराइड और अमीनो अम्ल चीटियोंें की अति सक्रिय जीवन शैली के लिए ईंधन का काम करते हैं।

जंगलों के अलावा खेती में भी गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथि-चींटी सम्बंध लाभकारी पाया गया है। इन चींटियों को भविष्य में प्रभावी जैविक कीट नियंत्रक के रूप में देखा जा रहा है। काजू और पीच में तो यह सिद्ध भी हो चुका है कि गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियों पर आने वाली चीटियां उनकी सुरक्षा करती हैं। उदाहरण के तौर पर आडू की जिन किस्मों में किसी कारण से गैर-पुष्पीय मकरंद नहीं बनता उनमें शाकाहारी कीट ज़्यादा नुकसान पहुंचाते हैं और नतीजतन फलों का उत्पादन कम होता है। गैर-पुष्पीय मकरंद अन्य उपयोगी कीड़ों के लिए भी महत्वपूर्ण भोज्य पदार्थ उपलब्ध कराने का काम करता है। मसलन लैडी बीटल्स के लिए। गैर-पुष्पीय मकरंद न केवल फसलों के लिए बल्कि लैंडस्केप गार्डनिंग में भी जैविक कीट नियंत्रण में उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
गैर-पुष्पीय मकरंद ग्रंथियां पौधों के विकास एवं वितरण को प्रभावित करती हैं। इसका एक प्रमाण सेना नामक वनस्पति में मिला है। इसके एक बड़े समूह में स्पष्ट ग्रंथिनुमा गैर पुष्पीय मकरंद स्थल पाए जाते हैं। यह समूह लगभग 4 करोड़ वर्ष पूर्व विकसित हुआ था और अपने जैसे अन्य समूहों (जिनमें गैर पुष्पीय मकरंद नहीं होता) से ज़्यादा तेज़ी से फैला। पेड़ों और चंचल चीटियों का यह अद्भुत मिलाप एवं परोपकारी सम्बंध बड़ा रोचक है जिसके पारिस्थिकीय एवं जैव-विकासीय पहलू पर से पर्दा उठना अभी बाकी है। (स्रोत फीचर्स)