हाल ही में दुनिया के देशों ने पेरिस में जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में कई वचन दिए हैं। इनमें से प्रमुख है ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाना। कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसों को ग्रीनहाउस गैसें कहा जाता है क्योंकि ये धरती का तापमान बढ़ाने में योगदान देती हैं। पेरिस संधि के बाद यह जानना ज़रूरी है कि विभिन्न देश अपने-अपने वचनों का पालन कर रहे हैं या नहीं। इसके लिए सबकी निगाहें अंतरिक्ष में टिक गई हैं। कोशिश की जा रही है कि पृथ्वी का चक्कर काट रहे उपग्रहों की मदद से ग्रीनहाउस गैसों की निगरानी की जाए।
फिलहाल दो उपग्रह यह काम कर रहे हैं। पहला है नासा द्वारा निर्मित ऑर्बाइटिंग कार्बन ऑब्सरवेटरी-2 (OCO-2) और दूसरा है जापान द्वारा प्रक्षेपित ग्रीनहाउस गैस ऑब्सर्विंग सैटेलाइट (GOSAT)। इन दोनों उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों का मिलान धरती पर प्राप्त आंकड़ों से करके सटीक बनाने की कोशिश चल रही है। अलबत्ता, दुनिया भर की अंतरिक्ष संस्थाएं इस जुगाड़ में हैं कि वर्ष 2030 तक ऐसे उपग्रहों का एक पूरा बेड़ा अंतरिक्ष में स्थापित कर दिया जाए ताकि पूरी धरती पर ग्रीनहाउस गैसों का सतत आकलन किया जा सके।

यह काम न सिर्फ बहुत महंगा है बल्कि इसमें कई तकनीकी अड़चनें भी हैं। जैसे अभी ये दो उपग्रह धरती के ऊपर हवा के एक स्तंभ में कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन की मात्रा की गणना कर लेते हैं। इसके लिए वे वर्णक्रममापियों का उपयोग करते हैं। मगर इससे यह पता नहीं चलता कि इन गैसों का स्रोत क्या है जबकि वास्तविक ज़रूरत तो यही जानने की है।
एक और समस्या इनके आंकड़ों की विश्वसनीयता की है। नासा के OCO-2 के आंकड़ों में इस वक्त 0.5 प्रतिशत की घट-बढ़ की संभावना है। अब नासा एक नई प्रणाली OCO-3 विकसित कर रहा है जिसकी विश्वसनीयता कहीं अधिक होगी। चीन भी इस वर्ष दो कार्बन निगरानी उपग्रह छोड़ने की फिराक में है। मगर पैसा एक बड़ी अड़चन है। इस समय ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को लेकर जो धरती-आधारित विधियां हैं वे काफी किफायती हैं और कई देश इन्हीं को तरजीह देना चाहते हैं।
वैसे मई में विभिन्न अंतरिक्ष एजेंसियों के बीच इस संदर्भ में बातचीत हुई है और इन उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों के वितरण व उपयोग को लेकर कुछ सहमति बनने के आसार हैं। (स्रोत फीचर्स)