चक्रेश जैन

वर्ष 2016 का चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार जापान के कोशिका विज्ञानी योशिनोरी ओहसुमी को कोशिका की स्व-भक्षण (ऑटोफेजी प्रक्रिया) पर अनुसंधान और सर्वथा नई सोच प्रस्तुत करने के लिए दिया गया है।
जीवन के उत्तरार्द्ध में मिले इस सम्मान से ओहसुमी बेहद प्रसन्न हैं। नोबेल पुरस्कार समिति ने जब प्रोफेसर ओहसुमी को इस सम्मान के लिए चुने जाने की सूचना दी, उस समय वे हमेशा की तरह अपनी प्रयोगशाला में थे। उन्होंने इस सुखद खबर पर अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि उन्हें सपने में भी यह विचार नहीं आया था कि एक दिन इतना बड़ा पुरस्कार मिलेगा।
पिछले कुछ दशकों में कोशिका विज्ञान में काफी अनुसंधान हुआ है। पिछले कुछ दशकों से कोशिका विज्ञान अग्रणी विषयों में सम्मिलित है। कोशिका के केन्द्रक में डीएनए अणु अथवा जीनोम हो या फिर ऊर्जा प्रदान करने वाले माइटोकॉन्ड्रिया, सभी कोशिका के अनिवार्य घटक हैं। हाल के दशकों में विज्ञान के क्षेत्र में बहु-विषयी शोध पर विशेष ज़ोर रहा है। इससे न केवल कोशिका की संरचना और कार्यों को गहराई से समझने बल्कि कई रोगों पर विजय प्राप्त करने में भी मदद मिली है।
कोशिकीय क्रियाकलाप में स्व-भक्षण बुनियादी प्रक्रिया है, जिसमें कोशिकाएं स्वयं का भक्षण करती हैं। वैज्ञानिकों ने 1950 के दशक के मध्य में कोशिका के भीतर एक नए उपांग का पता लगाया था जिसे लायसोसोम कहते हैं। लायसोसोम में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और लिपिड को पचाने वाले एंज़ाइम पाए जाते हैं। दरअसल लायसोसोम कोशिकीय घटकों के विघटन का स्थल होता है। बेल्जियम के वैज्ञानिक क्रिश्चियन डुवे को इसी खोज के लिए वर्ष 1974 का चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार दिया गया था।
 शोधकर्ताओं ने साठ के दशक में किए गए अध्ययनों में बताया कि कोशिकीय सामग्री की बहुत बड़ी मात्रा लायसोसोम में होती है। आगे चलकर जैव रासायनिक और सूक्ष्मदर्शीय विश्लेषणों से कोशिकीय सामग्री का परिवहन करने वाली एक नए प्रकार की ‘थैलियों’ का पता चला जिन्हें ऑटोफैगोसोम कहते हैं। कोशिकीय घटकों के विघटन में ऑटोफैगोसोम की अहम भूमिका होती है।
दरअसल हमारी कोशिकाओं के भीतर भी विशेषज्ञता की झलक दिखाई देती है। अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग विशेषज्ञ हैं। लायसोसोम की भी अपनी विशेषज्ञता है - इसमें कोशिकीय घटकों को पचाने वाले एंज़ाइम होते हैं। कोशिका में ऑटोफैगोसोम थैली बनने के साथ ही क्षतिग्रस्त प्रोटीनों को निगलने की शुरुआत हो जाती है। अंतत: यह थैली लायसोसोम से जुड़ जाती है जहां कोशिकीय घटकों को छोटे-छोटे घटकों में विघटित किया जाता है। यह प्रक्रिया कोशिका के पुनर्निर्माण के लिए पोषण प्रदान करती है।

बीते दशकों में योशिनोरी ओहसुमी ने विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय रूप से अनुसंधान किया। उन्होंने 1988 में अपनी प्रयोगशाला स्थापित की, जिसमें उन्होंने रिक्तिकाओं में प्रोटीन के विघटन पर शोधकार्य किया। रिक्तिकाएं मनुष्य की कोशिकाओं में विद्यमान लायसोसोम से मिलता-जुलता है। उन्होंने प्रयोगों के लिए खमीर कोशिकाओं को चुना। एक तो इन पर अनुसंधान कार्य आसान है। दूसरा, प्राय: मानव कोशिकाओं के संदर्भ में खमीर कोशिकाओं का उपयोग मॉडल की तरह किया जाता है। जीन्स की भूमिका को समझने के लिए खमीर कोशिकाएं बेहद उपयोगी हैं।
इस शोधकार्य में ओहसुमी को एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। खमीर कोशिकाएं अत्यंत सूक्ष्म होती हैं और सूक्ष्मदर्शी द्वारा उनकी आंतरिक संरचनाओं में भेद नहीं किया जा सकता। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल भरा काम था कि खमीर कोशिकाओं में भी स्व-भक्षण प्रक्रिया होती है। उन्होंने अपने प्रयोग को इस तरह डिज़ाइन किया कि यदि वे रिक्तिका में हो रही विघटन प्रक्रिया में व्यवधान पैदा करें तो ऑटोफैगोसोम को रिक्तिका के भीतर जमा होकर सूक्ष्मदर्शी में नज़र आना चाहिए। ओहसुमी ने परिवर्तित खमीर कोशिकाओं का संवर्धन किया। इन कोशिकाओं में रिक्तिका में पाए जाने वाले विघटनकारी एंज़ाइम नहीं थे। यही प्रयोग पोषण से वंचित कोशिकाओं में भी किया गया। इस प्रयोग के आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए।

कुछ ही घंटों के भीतर रिक्तिकाएं सूक्ष्म थैलियों से भर गईं क्योंकि इनका विघटन नहीं हुआ था। वास्तव में ये थैलियां स्व-भक्षी थीं। इस प्रकार ओहसुमी ने प्रयोग द्वारा यह सिद्ध किया कि खमीर कोशिकाओं में स्व-भक्षण प्रक्रिया होती है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने उस विधि को खोज निकाला जिसके द्वारा इस प्रक्रिया में शामिल मुख्य जीन्स पता चल गए।
खमीर कोशिकाओं में स्व-भक्षी प्रक्रिया में मिली सफलता के बाद ओहसुमी के मन में यह विचार उपजा कि क्या इस तरह की क्रियावधि अन्य जीव-जंतुओं में भी होती है? आगे चलकर यह स्पष्ट हो गया कि बिलकुल ऐसी ही क्रियाविधि हमारी कोशिकाओं में भी होती है।
ओहसुमी और बाद में अन्य अध्येताओं द्वारा इस संदर्भ में किए गए व्यापक अध्ययनों के आधार पर कहा जा सकता है कि स्व-भक्षण कोशिका-क्रिया के नियंत्रण में अहम भूमिका निभाता है। स्व-भक्षण कोशिकाओं को ऊर्जा भी प्रदान करता है जिससे नई कोशिकाओं का निर्माण होता है। यह प्रक्रिया संक्रमण के दौरान बैक्टीरिया और वायरस को नष्ट करने में भी भूमिका निभाती हैं। स्व-भक्षण भ्रूण विकास और कोशिकाओं के विभेदन में भूमिका निभाती है। कोशिकाएं स्व-भक्षण के ज़रिए क्षतिग्रस्त प्रोटीनों को भी बाहर करती हैं।

इस प्रक्रिया में गड़बड़ी से मनुष्य में पार्किन्सन, टाइप-2 मधुमेह और कैंसर जैसी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। बुढ़ापे में होने वाली बीमारियां घेरने लगती हैं। स्व-भक्षण से सम्बंधित विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए दवाइयां तैयार करने की दिशा में गहन अनुसंधान जारी है।
1945 में जापान के फुकुओका में जन्मे प्रोफेसर योशिनोरी ओहसुमी अपने जीवन के आठवें दशक में भी बेहद सक्रिय हैं। उन्होंने 1974 में टोकियो विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। ओहसुमी न्यूयार्क के रॉकफेलर विश्वविद्यालय में लगभग तीन वर्ष गुज़ारने के बाद पुन: टोकियो विश्वविद्यालय में आ गए। यहां उन्होंने 1988 में अपना रिसर्च समूह गठित किया। 71 वर्षीय ओहसुमी को सबसे अधिक लगाव सूक्ष्मदर्शी से है। उनका प्रिय विषय कोशिका है। प्रोफेसर ओहसुमी वर्ष 2009 से टोकियो इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में प्राध्यापक हैं। (स्रोत फीचर्स)