अश्विन साई नारायण शेषशायी


जैव विकास का अध्ययन करने के लिए जीव वैज्ञानिक जिस औज़ार का उपयोग करते हैं उसे फायलोजेनेटिक्स कहते हैं। इसके अंतर्गत जीव वैज्ञानिक कुछ मापन योग्य गुणों के आधार पर वर्तमान प्रजातियों के बीच अंतरसम्बंध खोजने का प्रयास करते हैं।

सृष्टिवादियों और वैकासिक जीव वैज्ञानिकों के बीच जीवन की उत्पत्ति को लेकर चली बहस को अक्सर इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है जैसे यह जीव विज्ञान और जीव विज्ञान में आम लोगों के विश्वास के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है। मगर वास्तव में यह मुद्दा यूएसए जैसे कुछेक देशों में ही कोई मुद्दा है। इंग्लैण्ड के तो अधिकांश लोग जैव विकास में विश्वास करते हैं। लगभग 1000 लोगों के एक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत के 80 प्रतिशत लोग जैव विकास में यकीन करते हैं। इनमें 85 प्रतिशत ऐसे लोग भी हैं जो ईश्वर को मानते हैं।
यह तो स्पष्ट है कि भारतीय दर्शन व धर्मों में जीवन की उत्पत्ति को लेकर विचार ईसाई धर्म के जेनेसिस से कहीं अधिक जटिल हैं। जैसा कि राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन सम्बंधी अपने ग्रंथ में बताया था, ऋगवेदिक संहिता बहु-ईश्वरवाद से एकेश्वरवाद में और अंतत: अद्वैत में बदल गई। इस परिवर्तन के दौरान इन रचनाओं के लेखक ब्रह्मांड की उत्पत्ति को लेकर अपना आश्चर्य ऐसे सुंदर श्लोकों में व्यक्त करते हैं:
“तो किसे पता है कि यह सब कहां से पैदा हुआ?

ईश्वर तो इस सृष्टि के बाद आए थे, तो फिर किसे पता कि यह कहां से आई?
वह जिससे यह सृष्टि पैदा हुई, उसने इसे बनाया या नहीं, सर्वोच्च आकाश में सर्वोच्च प्रेक्षक, शायद उसे पता है, या शायद उसे भी नहीं पता?”
इसके बाद भारतीय षट्दर्शन में स्पष्टत: धार्मिक से लेकर तर्कवादी सांख्य और खुलेआम नास्तिक और भोगवादी चार्वाक, जिसमें सृष्टा के लिए कोई स्थान नहीं है, तक शामिल हैं। विचार और घरानों की इस विविधता को देखते हुए यह कोई आश्चर्य का विषय नहीं है कि वर्तमान में भारतीय हिंदुओं के लिए जैव विकास की धारणा किसी विवाद को जन्म नहीं देती।
आधुनिक विज्ञान में जैव विकास
आधुनिक जीव विज्ञान पर आते हैं। जीव वैज्ञानिक जैव विकास का अध्ययन कैसे करते हैं? जीव वैज्ञानिकों द्वारा जैव विकास के अध्ययन के लिए एक औज़ार का उपयोग किया जाता है जिसे फायलोजेनेटिक्स कहते हैं। इसके अंतर्गत वैज्ञानिक कोशिश करते हैं कि कुछ मापन योग्य गुणों के आधार पर वर्तमान प्रजातियों के बीच कड़ियां जोड़ें। एक बार ये अंतरसम्बंध स्थापित हो जाएं, तो तार्किक दलीलों का उपयोग करके यह पता करने की कोशिश की जाती है कि इन मौजूदा जीवों के पूर्वजों की प्रकृति क्या रही होगी। ये मापन योग्य गुण किसी जीव की शरीर रचना से सम्बंधित भी हो सकते हैं और आणविक संघटन से सम्बंधित भी हो सकते हैं।

आनुवंशिक पदार्थ होने के नाते डीएनए फायलोजेनेटिक्स या आणविक जैव विकास के अध्ययन के लिए पसंदीदा अणु है। 1970 के दशक में कार्ल वीस ने डीएनए अनुक्रमण (डीएनए के अणु में क्षारों का क्रम पता करने) की नवीनतम तकनीकों का उपयोग करके दर्शाया था कि जीवन के तीन प्रमुख समूह (जगत) हैं: बैक्टीरिया, आर्किया (जो कई इंतहाई परिवेशों में मिलते हैं, जैसे गहराई में उपस्थित गर्म पानी के झरने) और यूकेरिया (सत्य-केंद्रकी)। यूकेरिया के अंतर्गत फफूंद, कृमि और मक्खियों, मनुष्य और पौधों समेत वे सारे जीव आते हैं, जो बैक्टीरिया या आर्किया नहीं हैं।
जैव विकास के अध्ययन का बुनियादी संदर्भ बिंदु वह है जिसे आधुनिक वैकासिक संश्लेषण कहते हैं। इसके तहत चार्ल्स डारविन के विचारों और ग्रेगर मेंडल के विचारों के बीच तालमेल बनाया गया है। चार्ल्स डारविन जहां जैव विकास के प्रवर्तक हैं वहीं मेंडल आधुनिक जेनेटिक्स के। आधुनिक संश्लेषण कहता है कि जैव विकास आम तौर पर उत्परिवर्तनों (म्यूटेशन्स) के ज़रिए होता है। ऐसे प्रत्येक उत्परिवर्तन का हल्का-सा असर होता है। और जिस जेनेटिक रूप से परिवर्तित जीव में थोड़ी ज़्यादा जीवनक्षमता (फिटनेस), जिसे संतान पैदा करने की क्षमता के आधार पर परिभाषित किया जाता है, होती है वह अन्य से आगे निकल जाता है और उसकी संख्या बढ़ जाती है। इसमें से दूसरे बिंदु को प्राय: प्राकृतिक चयन या ‘सर्वोत्तम की उत्तरजीविता’ कहते हैं। डारविन के शब्दों में, “एक सामान्य नियम है जो सारे सजीवों की प्रगति का मार्ग है - संख्यावृद्धि करो, विविधता बनाए रखो और सबसे शक्तिशाली को जीने दो, सबसे दुर्बल को मर जाने दो।”

जैव विकास के बारे में आम तौर पर यह माना जाता है कि वह करोड़ों-अरबों सालों में होता है। उदाहरण के लिए, यूकेरिया के साझा पूर्वज लगभग 2 अरब वर्ष पहले अस्तित्व में रहे होंगे और इन कई युगों ने जीवन के कई रूपों को जन्म दिया है, जो आज हमें दिखाई देते हैं। ज़्यादा हाल के वर्षों में देखें, तो करीब 1.5 करोड़ वर्ष पहले वनमानुष अस्तित्व में आए, और इसके बाद अपने वनमानुष पूर्वजों से आदिम मनुष्यों के विकास में करीब 1.2 से 1.3 करोड़ साल और लगे।
मगर फिलहाल तो हम इस पचड़े में नहीं पड़ेंगे कि वैज्ञानिकों ने आदिकालीन अजैविक रसायनों की खिचड़ी में से जीवन की उत्पत्ति को समझने की किस तरह की कोशिशें की हैं। यहां हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशालाओं में जैव विकास की प्रक्रिया को प्रत्यक्ष रूप में देखने के लिए क्या तरीके अपनाते हैं।
जीते-जागते विकास का अवलोकन
वास्तविक समय में प्रयोगशाला में बड़े पशुओं के विकास का अध्ययन करना अव्यावहारिक है क्योंकि ये जीव कुछेक दशकों में एक बार प्रजनन करते हैं और माता-पिता से थोड़े अलग जेनेटिक संघटन वाली विविधतापूर्ण संतानें पैदा होना जैव विकास के लिए अनिवार्य है। तो प्रयोगशालाओं में जैव विकास के अध्ययन का काम कोशिकाओं के साथ किया जाता है। इसके अलावा, इस अध्ययन के लिए कोशिकाओं की ऐसी बड़ी आबादियों का अध्ययन किया जाता है जो जल्दी-जल्दी प्रजनन करती हैं, जैसे ई. कोली सरीखे बैक्टीरिया और खमीर।

चूंकि बैक्टीरिया और खमीर एक-कोशिकीय जीव हैं, इसलिए ऐसे अध्ययनों के बारे में कहा जा सकता है कि इनमें किसी जीव के विकास का अध्ययन किया जा रहा है। वायरस भी जैव विकास के अध्ययन के लिए अच्छे मॉडल हैं। यहां हम प्रयोगशालाओं में बैक्टीरिया का उदाहरण लेकर बताएंगे कि जैव विकास का अवलोकन कैसे किया जाता है और यह भी स्पष्ट करेंगे कि इस ऐतिहासिक विवरण में वायरसों का क्या योगदान रहा है।
प्रयोगशाला में विकास के प्रयोग में किसी पसंदीदा बैक्टीरिया को निर्धारित परिवेश में कई बार पनपाया जाता है। परिवेश को हम पोषक तत्वों, या तापमान व अम्लीयता में परिवर्तन जैसे तनावों या एंटीबायोटिक अथवा अन्य विषैले पदार्थों की सांद्रता के आधार पर परिभाषित करते हैं।
मान लीजिए कि जिस बैक्टीरिया आबादी के साथ हमने शुरुआत की थी वह किसी एंटीबायोटिक के प्रति संवेदी थी (यानी उससे प्रभावित होती थी)। मगर उसके जीनोम में एक अकेला उत्परिवर्तन प्रतिरोध पैदा कर सकता है। यह भी मान लेते हैं कि प्रयोग के बर्तन में 10 लाख बैक्टीरिया हैं और प्रत्येक बैक्टीरिया के जीनोम में 10 लाख इकाइयां (यानी क्षार) हैं जिनमें से हरेक में सिद्धांतत: उत्परिवर्तन हो सकता है और बेतरतीब ढंग से उत्परिवर्तन की संभाविता प्रति दस पीढ़ी में एक है। लिहाज़ा, किसी उत्परिवर्तन के द्वारा किसी एक बैक्टीरिया में प्रतिरोध पैदा होने की संभावना प्रति पीढ़ी दस लाख में एक (0.0000001) है जो काफी कम है।
अलबत्ता, हमने शुरुआत 10 लाख बैक्टीरिया से की है। इसका मतलब है कि उस बर्तन में किसी एक बैक्टीरिया में उत्परिवर्तन की संभावना 10 में 1 है। यह कोई छोटी संभाविता नहीं है। यदि बैक्टीरिया में औसतन हरेक घंटे में प्रजनन करके आबादी दुगनी हो जाती है, तो एक दिन के अंदर प्रतिरोधी बैक्टीरिया के नज़र आने की संभावना काफी अधिक हो जाती है। (इसकी तुलना किसी स्तनधारी से कीजिए जो कुछेक दशकों में एक बार प्रजनन करते हैं।) यदि एक अकेला प्रतिरोधी बैक्टीरिया भी तैयार हो जाता है तो वह जल्दी ही पूरी आबादी पर हावी हो जाएगा। हाल में जीनोम अनुक्रमण की तकनीक में काफी प्रगति हुई है और ऐसे प्रयोगों की लागत भी कम हुई है। इसके परिणामस्वरूप उत्परिवर्तनों की खोज की प्रक्रिया काफी आम हो गई है।

कुछ उदाहरण
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कई प्रयोगशालाओं में (मेरी अपनी प्रयोगशाला में भी) एंटीबायोटिक की कम सांद्रता में बैक्टीरिया को पनपाकर उन उत्परिवर्तनों के मार्ग खोजने के प्रयास हुए हैं जो अलग-अलग एंटीबायोटिक के खिलाफ या एंटीबायोटिक के किसी उपचार-क्रम के खिलाफ प्रतिरोध प्रदान करते हैं। यह सचमुच चंद दिनों की अवधि में बैक्टीरिया के विकास का प्रत्यक्ष अवलोकन है और यह मानव स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रासंगिक भी है।
प्रयोगशाला में किए गए इन अध्ययनों से हमें बैक्टीरिया की बुनियादी शरीर क्रिया (कार्यिकी) के बारे में काफी कुछ समझ में आया है। इनमें कनाडा के विलियम नवारे की प्रयोगशाला का यह ताज़ा अवलोकन शामिल है कि एक अकेला प्रोटीन टायफॉइड-जनक साल्मोनेला में कई अन्य प्रोटीन के उत्पादन का नियमन करता है और यह प्रोटीन बैक्टीरिया द्वारा रोग पैदा करने के लिए अनिवार्य है। इस प्रोटीन के अभाव में साल्मोनेला के लिए उन अस्त्रों का रख-रखाव बहुत महंगा हो जाता है जिनके दम पर यह टाइफॉइड उत्पन्न करता है। इतनी अधिक लागत को सहन न कर पाने की वजह से साल्मोनेला हाथ खड़े कर देता है और शांति के प्रयास करता है।
कई अन्य अध्ययनों में ऐसे प्रयोगों का उपयोग उत्परिवर्तन की दर नापने के लिए किया गया है। विकास के अध्ययन की दृष्टि से उत्परिवर्तन की दर का बहुत महत्व है। इसका महत्व संक्रामक रोगों के प्रसार के अध्ययन में भी है।

हमने अपने काम के दौरान ई. कोली के विकास का अध्ययन करके यह दर्शाया कि इस बैक्टीरिया के गुणसूत्र के दो अर्धांश एक-दूसरे से कैसे ‘वार्तालाप’ करते हैं। इसके आधार पर इस वार्तालाप के आणविक कारणों को लेकर सवाल उठे हैं। मेरी सहकर्मी दीपा आगाशे की प्रयोगशाला में विकास के अध्ययन का उपयोग यह दर्शाने के लिए किया गया है कि उत्परिवर्तनों का एक समूह है जो कोशिका में बनने वाले प्रोटीन्स की प्रकृति को प्रभावित नहीं करते, मगर इनका कोशिका की कार्यिकी पर ज़बर्दस्त असर हो सकता है।
जैव विकास सम्बंधी सबसे मशहूर प्रयोगशाला अध्ययन यूएस के रिचर्ड लेंस्की की प्रयोगशाला में चल रहा है। वे पिछले तीस वर्षों से ई. कोली में विकास करवा रहे हैं और करीब 50,000 पीढ़ियां पैदा करवा चुके हैं। तुलना के लिए, मनुष्यों में 50,000 पीढ़ी की अवधि शायद 10 लाख सालों की होगी।
लेंस्की के अध्ययनों में एक महत्वपूर्ण खोज यह है कि उत्परिवर्तनों की एक अजीबोगरीब श्रृंखला होती है जो ई. कोली को साइट्रिक अम्ल का उपयोग करने में समर्थ बना देती है। (ई. कोली सामान्यत: साइट्रिक अम्ल का उपयोग नहीं कर पाता। साइट्रिक अम्ल नींबू, संतरे, मौसम्बी का एक प्रमुख घटक होता है और ऊर्जा उत्पादन की कोशिकीय क्रिया का एक महत्वपूर्ण मध्यवर्ती पदार्थ है।) यह मामला सर्वोत्तम की उत्तरजीविता का लगता है - तर्क यह है कि इस उत्परिवर्तन ने ई. कोली को उस ढेर सारे साइट्रिक अम्ल के उपयोग में समर्थ बनाया है जो शायद पर्यावरण में पोषण के उद्देश्य से नहीं पहुंचा है।

एक बात यह है कि लेंस्की के अध्ययनों के मशहूर होने का एक परिणाम यह हुआ है कि इसने सृष्टिवादियों (खासकर इंटेलिजेंट डिज़ाइन के समर्थकों) का ध्यान आकर्षित किया है जिसमें से कुछ रोचक चर्चाएं उभरी हैं।
आणविक जीव विज्ञान के शुरुआती वर्षों में जैव विकास
बैक्टीरिया-भक्षी वायरसों की खोज को करीब 100 वर्ष हो गए हैं। बैक्टीरिया-भक्षी वायरसों की खोज आणविक जीव विज्ञान में एक युगांतरकारी घटना थी। इसने जैव विकास पर निर्णायक शोध को संभव बनाया क्योंकि ये वायरस काफी तेज़ी से बहुगुणित होते हैं और जेनेटिक विविधता का पहाड़ खड़ा कर देते हैं जिसके आधार पर प्राकृतिक चयन अपना काम कर सकता है।
फेलिक्स डी’हेरेल ने दर्शाया है कि बैक्टीरिया-भक्षी वायरस अपने शिकार को लेकर काफी नखरैल होते हैं। अर्थात प्रत्येक बैक्टीरिया-भक्षी किसी विशिष्ट किस्म के बैक्टीरिया को ही संक्रमित करके मारता है। डी’हेरेल बैक्टीरिया-भक्षी के खोजकर्ताओं में से एक हैं और ऐसे बैक्टीरिया-भक्षी वायरसों की मदद से उपचार के अग्रणी शोधकर्ता हैं। सूक्ष्मजीवों में प्रतिरोध की समस्या के चलते शायद इस तरह के उपचार को एक बार फिर मौका मिलेगा। अलबत्ता, डी’हेरेल ने यह भी दर्शाया है कि यदि बैक्टीरिया-भक्षी वायरसों की एक जमात को ऐसे बैक्टीरिया के संपर्क में रखा जाए जो उसके पसंदीदा बैक्टीरिया से मिलते-जुलते हों, तो ये वायरस जल्दी ही नए शिकार को अपना भोजन बनाने की सामर्थ्य हासिल कर लेते हैं।

आगे चलकर 1940 के दशक में साल्वेडोर लूरिया और मैक्स डेलब्रुक ने बैक्टीरिया-भक्षियों और बैक्टीरिया को लेकर कुछ सुंदर प्रयोग करके जैव विकास के एक महत्वपूर्ण सवाल को संबोधित करने की कोशिश की थी। मान लीजिए कि बैक्टीरिया की एक जमात है जो मूल रूप से एक बैक्टीरिया-भक्षी द्वारा खाए जाने के योग्य है मगर आगे चलकर यह आबादी इस हमले के खिलाफ प्रतिरोधी हो जाती है। सवाल यह है कि क्या इन बैक्टीरिया ने वायरस से संपर्क के बाद ये लाभदायक उत्परिवर्तन उत्पन्न किए हैं या क्या प्राकृतिक चयन ने पहले से मौजूद (संयोगवश पैदा हुई) विविधता में से चुनाव किया है? इसे आम तौर पर अनुकूलन-आधारित विकास की बहस कहा जाता है।
लूरिया और डेलब्रुक ने बहुत ही आसान से सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक प्रयोग किए थे जिनमें बैक्टीरिया की कई स्वतंत्र आबादियों को बैक्टीरिया-भक्षियों के संपर्क में रखा गया। शोधकर्ताओं ने यह मापन किया कि बैक्टीरिया के प्रतिरोधी रूप किस गति से पैदा होते हैं। अपने प्रयोगों से प्राप्त परिणामों की तुलना उन्होंने इस प्रक्रिया के दो वैकल्पिक संभाविता आधारित मॉडल्स से की। इसके आधार पर वे दर्शा पाए कि बाद वाली प्रक्रिया (यानी पहले से मौजूद विविधता में से चयन) ज़्यादा संभव है। इस प्रयोग को ‘उतार-चढ़ाव परीक्षण’ या ‘फ्लक्चुएशन टेस्ट’ कहते हैं।
यह वैज्ञानिक विमर्श की ताकत का प्रतीक है कि इन आसान से प्रयोगों के परिणामों पर आज भी गणितज्ञ और सैद्धांतिक जीव वैज्ञानिक नए-नए दृष्टिकोणों से चर्चा कर रहे हैं। और आणविक व वैकासिक जीव वैज्ञानिकों की नज़र में अनुकूलन-आधारित विकास का सवाल आज भी बहस का विषय बना हुआ है। (स्रोत फीचर्स)