अश्विन साई नारायण शेषशायी

वैज्ञानिक शब्दावली के बहुत ही कम शब्द होंगे जो आम लोगों के शब्दकोश के हिस्से बन गए हैं। इस बार के आलेख में जीव विज्ञान की दुनिया के ऐसे दो जुम्लों की बात करेंगे जिन्होंने लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। हालांकि यह हो सकता है कि ये जुम्ले बहुत परिचित न हों किंतु इनकी परिभाषाओं ने जेनेटिक्स और जीव विज्ञान के लोकप्रिय विवरण पर खासी छाप छोड़ी है। ये दो जुम्ले हैं ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ और ‘क्षैतिज जीन हस्तांतरण’। ये दो जुम्ले चिकित्सा व पर्यावरण से जुड़े लोकप्रिय साहित्य में खूब इस्तेमाल हो रहे हैं।
अक्सर, इन जुम्लों का उपयोग भय के सौदागरों द्वारा खुश होकर किया गया है हालांकि ये लोग इनको समझने व इनके इस्तेमाल के लिए ज़रूरी बारीकियों को नहीं पकड़ पाते हैं। दरअसल, इनके अर्थ को लेकर कुछ चर्चा की ज़रूरत है। यहां मैं ऐसे उदाहरणों का सहारा लूंगा जहां ये शब्द ऐसी प्रक्रियाओं और परिघटनाओं से जुड़ते हैं जो सार्वजनिक हित के हैं। इस समय इस मुद्दे को उठाना गलत न होगा: करीब 100 साल पहले फ्रेडरिक ट्वॉर्ट ने एक ऐसे वायरस की खोज की रिपोर्ट दी थी जो बैक्टीरिया को संक्रमित करता है और कभी-कभार संक्रमित बैक्टीरिया की जेनेटिक सामग्री को ‘इंजीनियर’ कर देता है (यह कहना बेहतर होगा कि उसके साथ छेड़छाड़ करता है)।

जेनेटिक इंजीनियरिंग
सबसे पहले, ‘जेनेटिक इंजीनियरिंग’ शब्द से आशय होता है किसी जीवधारी के जेनेटिक पदार्थ में सटीक व कृत्रिम रूप से नियंत्रित परिवर्तन करना। आम तौर पर जेनेटिक इंजीनियरिंग का परिणाम पूर्वानुमान योग्य होता है - इस मायने में कि यह बताया जा सकता है कि जेनेटिक पदार्थ का कौन-सा हिस्सा जोड़ा जाएगा और कहां जोड़ा जाएगा। पूर्वानुमान की यह क्षमता जेनेटिक संशोधन में शामिल कोशिकीय प्रक्रियाओं को लेकर दशकों के बुनियादी अनुसंधान के परिणामस्वरूप हासिल हुई है। कम से कम यह प्रक्रिया उस स्थिति से तो ज़्यादा पूर्वानुमान-योग्य है जिसमें जटिल संकरण के ज़रिए बेतरतीबी से उत्परिवर्तन पैदा होते हैं, जिसके बाद वांछित गुणों वाली संतानों को चुनना पड़ता है। जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा जोड़े गए परिवर्तन उस स्थिति से तो कहीं ज़्यादा पूर्वानुमान-योग्य जिसमें लैंगिक रूप से प्रजनन करने वाले जीवों (जैसे इंसानों) में पालकों और संतानों के बीच जेनेटिक अंतर पैदा होते हैं।
जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोगों में कृत्रिम रूप से निर्मित डीएनए के टुकड़े को ग्राही कोशिका में प्रविष्ट कराया जाता है। डीएनए वह रासायनिक इकाई है जो अधिकांश सजीवों में आनुवंशिक पदार्थ का निर्माण करती है। डीएनए के उक्त टुकड़े की संरचना ज्ञात होती है। कई मामलों में डीएनए का यह खंड पूरी तरह कृत्रिम नहीं होता, बल्कि किसी सजीव से प्राप्त कुदरती जेनेटिक सामग्री का खंड होता है किंतु अपने कुदरती स्थान पर इंजीनियर का मकसद पूरा नहीं करता।
कुछ अनुप्रयोगों में डीएनए का यह अतिरिक्त खंड एक स्वायत्त इकाई के रूप में होता है, जो मेज़बान के शेष जेनेटिक पदार्थ से अलग-थलग रहती है। मेज़बान का जेनेटिक पदार्थ तो गुणसूत्रों के रूप में संगठित होता है। इस स्थिति में बाहर से प्रविष्ट डीएनए को प्लाज़्मिड कहते हैं। कुछ परिस्थितियों में मेज़बान कोशिका प्लाज़्मिड को गंवा देती हैं। ऐसा आम तौर पर तब होता है जब प्लाज़्मिड का प्रतिलिपिकरण (जो मेज़बान के गुणसूत्रों से स्वतंत्र होता है) सटीकता से नहीं हो पाता: हो सकता है कि कुछ संतान कोशिकाओं में प्लाज़्मिड पहुंचे ही नहीं। अब ऐसा हो सकता है कि प्लाज़्मिड-विहीन कोशिकाएं प्लाज़्मिड-युक्त कोशिकाओं के मुकाबले अधिक तेज़ी से वृद्धि और विभाजन करें। ऐसा हुआ, तो जल्दी ही हमारे पास कोशिकाओं की ऐसी आबादी होगी जिनमें वह प्लाज़्मिड नहीं है। यानी हम वहीं पहुंच जाएंगे जहां से शुरु किया था।

किंतु बाहर से प्रविष्ट डीएनए के इस तरह स्वत: गुम हो जाने की संभावना तब बहुत कम होती है जब वह प्लाज़्मिड के रूप में न हो बल्कि मेज़बान के गुणसूत्र में जुड़ जाए। डीएनए के इंजीनियर्ड खंड के हस्तांतरण सम्बंधी चिंताएं तब बहुत कम होंगी जब उसे गुणसूत्र में प्रविष्ट करा दिया जाएगा। आजकल यह काम हम काफी सहजता से करते हैं। वैसे जेनेटिक इंजीनियरिंग का एकमात्र मकसद डीएनए खंड को जोड़ने का नहीं है बल्कि कई बार इसके अंतर्गत मेज़बान कोशिका के अपने डीएनए में से खंडों को हटाया भी जाता है या उनमें परिवर्तन भी किया जाता है। अलबत्ता, यह इस आलेख के दायरे से बाहर की बात है।
हमने गुणसूत्रों, प्लाज़्मिड्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग के बारे में काफी कुछ कहा है। किंतु यहां एक महत्वपूर्ण सवाल का जवाब देना ज़रूरी है। जेनेटिक इंजीनियरिंग के सामान्य प्रयास के दौरान कितना नया डीएनए मेज़बान में प्रविष्ट कराया जाता है? एशरीशिया कोली और मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस जैसे किसी मशहूर बैक्टीरिया का डीएनए लगभग 40-50 लाख रासायनिक अक्षरों से बना होता है; इसी प्रकार से बेकरी में प्रयुक्त खमीर के डीएनए को 4-5 हज़ार कामकाजी जीन्स में विभाजित किया जा सकता है। प्रति 1000 अक्षर का एक जीन जैसा सम्बंध हम जैसे अपेक्षाकृत जटिल जीवों में लागू नहीं होता। खैर, उसकी बात फिर कभी करेंगे।

ई. कोली कोशिका जेनेटिक इंजीनियरिंग का एक मशहूर औज़ार है। इसमें जो प्लाज़्मिड प्रविष्ट कराया जाता है उसका आकार बैक्टीरिया के गुणसूत्र का 0.1 प्रतिशत या हज़ारवां भाग होता है। लिहाज़ा, जेनेटिक इंजीनियरिंग के अधिकांश प्रयासों में मेज़बान के जीन-पुंज में बहुत छोटे परिवर्तन किए जाते हैं।
क्षैतिज जीन हस्तांतरण
क्षैतिज जीन हस्तांतरण जेनेटिक इंजीनियरिंग का वह स्वरूप है जिसका सम्बंध कुदरत में निरंतर चल रही एक परिघटना से होता है। कई जीवधारी, मुख्यत: बैक्टीरिया, अपने पर्यावरण से जीन का ‘भक्षण’ कर सकते हैं। अधिकांश मामलों में उन्हें खाया हुआ डीएनए पसंद नहीं आता, और वे उससे छुटकारा पा लेते हैं।
दरअसल, कई जीवधारियों में ऐसी शक्तिशाली सुरक्षा व्यवस्था होती है कि वे स्वयं को पराए जीन्स की घुसपैठ से बचाकर रखते हैं जबकि कुछ जीवधारी ऐसे सैलानी डीएनए का स्वागत करते हैं। कुछ परिस्थितियों में इस तरह के डीएनए से युक्त बैक्टीरिया अपने हमजोलियों से बेहतर प्रदर्शन करते हैं और ऐसा होने पर प्राकृतिक चयन उनको तरजीह देता है। जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोगों के समान ही, ऐसे बाहरी डीएनए खंड प्लाज़्मिड के रूप में बने रह सकते हैं या गुणसूत्र में जुड़ भी सकते हैं। क्षैतिज जीन हस्तातंरण के ज़रिए होने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मात्रा चंद जीन से लेकर दसियों जीन तक हो सकती है। कई वायरसों की तो पूरी जेनेटिक सामग्री इतनी होती है और यह पूरी की पूरी हस्तांतरित हो जाती है।

क्षैतिज हस्तांतरण में किस चीज़ का हस्तांतरण हो सकता है और कौन किसे हस्तांतरण कर सकता है, ये दोनों ही महत्वपूर्ण सवाल हैं। कोई कुदरती रूप से पाया जाने वाला प्लाज़्मिड, जो पर्यावरण में भटक रहा है, वह किसी ऐसे एक-कोशिकीय जीव को हस्तांतरित हो सकता है जो उसे अपनी कोशिका में आयात करने में सक्षम हो। गुणसूत्रीय डीएनए के खंडों का हस्तांतरण इस विधि से बहुत मुश्किल है, सिवाय उन परिस्थितियों के जहां दाता और ग्राही सीधे संपर्क में हों या वायरस जैसा कोई मध्यस्थ मौजूद हो। जीन हस्तांतरण के मार्ग में कई शक्तिशाली बाधाएं होती हैं। कोई एक-कोशिकीय जीव सीधे संपर्क के माध्यम से जेनेटिक सामग्री किसी दूसरे जीव को हस्तांतरित कर सकता है, बशर्ते कि उसके पास ऐसा करने के लिए सही आणविक मशीनरी हो।
किसी अलग आलेख में हम देखेंगे कि वायरस किस तरह से क्षैतिज जीन हस्तांतरण को संभव बनाते हैं और कैसे इस क्षमता ने आणविक जीव विज्ञान और जैव-टेक्नॉलॉजी के विकास में योगदान दिया है।

जीएम खाद्य
जेनेटिक इंजीनियरिंग और क्षैतिज जीन हस्तांतरण, दोनों ही सार्वजनिक बहस के विषय हैं। कई सूक्ष्मजीवों को जेनेटिक रूप से इंजीनियर किया जा सकता है ताकि वे हमारी रुचि के रसायन (जिनमें औषधियां भी शामिल हैं) बनाने लगें। इसके लिए उनमें ज़रूरी जीन्स को प्रविष्ट कराना होता है। यह काम उद्योगों में सावधानीपूर्वक नियंत्रित व बंद परिस्थितियों में किया जाता है।
क्षैतिज जीन हस्तांतरण बैक्टीरिया की आबादियों में एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध क्षमता के फैलने की प्रमुख विधि है। यही वह प्रक्रिया भी है जिसके ज़रिए बैक्टीरिया कुछ ऐसे गुण अख्तियार कर लेते हैं जो उन्हें घातक बना देते हैं। दरअसल, क्षैतिज जीन हस्तांतरण शायद बैक्टीरिया के विकास की मुख्य क्रियाविधि है। यह विवाद का विषय है कि यह प्रक्रिया हमारे जैसे बहु-कोशिकीय जीवों को कैसे प्रभावित करती है। अलबत्ता, इतना तो तय है कि यह प्रभाव एक-कोशिकीय बैक्टीरिया की तुलना में बहुत कम होता है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग और क्षैतिज जीन हस्तांतरण दोनों से सम्बंधित एक मुद्दा है जीएम फसलों का और सामाजिक रूप से ताज़ा विवाद का मुद्दा रहा है। हालांकि यह शायद सही है - खास तौर से अधूरे ज्ञान को देखते हुए - कि जेनेटिक रूप से इंजीनियर्ड पौधों व अन्य जीवों को पर्यावरण में मुक्त करने का काम निहायत नियंत्रित रूप से किया जाना चाहिए और साथ में विस्तृत परीक्षण भी अनिवार्य रूप से किए जाने चाहिए। किंतु ऐसे पौधों के उपयोग के खिलाफ दी गईं कुछ दलीलों का मूल्यांकन करने की ज़रूरत है।

पहली दलील है कि जेनेटिक परिवर्तन का पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता। दूसरी दलील का सम्बंध इस बात से है कि प्रविष्ट कराए गए जीन क्षैतिज हस्तांतरण के ज़रिए मनुष्य में पहुंच सकते हैं।
जैसा कि हम देख चुके हैं, सटीक जेनेटिक परिवर्तन की पूर्वानुमान-योग्यता संकरण व संवर्धन के मुकाबले कहीं अधिक है। संकरण व संवर्धन सैकड़ों वर्षों से हमारी कृषि की बुनियाद रहे हैं। दूसरा, इस बात की कितनी संभावना है कि पके हुए भोजन के नवीन जीन्स हमारी जेनेटिक सामग्री में प्रवेश कर जाएंगे और बीमारियां पैदा करेंगे और हमारे बच्चों में पहुंच जाएंगे? ऐसा होने की संभावना किसी भी वयस्क मनुष्य के शरीर में पल रहे 10,000 खरब सूक्ष्मजीवों से हो सकने वाले जीन हस्तांतरण की संभावना से बहुत अधिक नहीं है।
बात को एक परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए, यह देखिए कि प्रायमेट जीव सूक्ष्मजीवों के एक जंगल में रहते हैं। इनमें से कई सूक्ष्मजीव हमारी कोशिकाओं के साथ लगातार नज़दीकी संपर्क में रहते हैं और इस बात की काफी संभावना होती है कि वे अपना डीएनए इधर-उधर बिखेरते रहते होंगे। ऐसे पर्यावरण में संभवत: प्रायमेट्स ने विकास के लाखों वर्षों में दसियों पराए जीन्स अंगीकार कर लिए होंगे। और हाल की सहस्राब्दि में शायद ही कोई ऐसा जीन जुड़ा हो।
यह समझना भी ज़रूरी है कि महज़ पराए डीएनए का खंड अर्जित कर लेने - जिसे पता नहीं क्यों ‘अप्राकृतिक’ कहा जा रहा है - का मतलब यह नहीं होता कि ग्राही पर इसका असर प्रतिकूल ही होगा। और यह भी एक तथ्य है कि सारी नहीं तो अधिकांश ‘गैर-जीएम’ फसलों के गुणसूत्र जेनेटिक दृष्टि से परिवर्तित हुए हैं। और यह करामात मनुष्य के हस्तक्षेप से नहीं बल्कि संक्रामक वायरसों से क्षैतिज जीन हस्तांतरण के ज़रिए हुई है। हम इन्हें खाना बंद तो नहीं करते।

संक्षिप्त इतिहास
क्षैतिज जीन हस्तांतरण की खोज के इतिहास पर एक संक्षिप्त नज़र डालना उपयोगी होगा। इस खोज का श्रेय बीसवीं सदी के एक रोग-प्रसार वैज्ञानिक (एपिडेमियोलॉजिस्ट) फ्रेडरिक ग्रिफिथ को दिया जा सकता है। उनका मानना था कि संक्रामक रोगों के खिलाफ नियंत्रण के उपाय तभी किए जा सकते हैं जब हमारे पास महामारियों से प्राप्त रोगजनक बैक्टीरिया की किस्मों की जानकारी हो। इस लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ने के लिए वे रोगजनक बैक्टीरिया स्ट्रेप्टोकॉकस की किस्मों पर काम कर रहे थे जो निमोनिया (न्यूमोकॉकस) पैदा करता है। इस बैक्टीरिया की कुछ किस्में रोग पैदा करती हैं, जबकि कुछ नहीं करतीं।
ग्रिफिथ ने 1928 में रिपोर्ट किया था कि जब इस बैक्टीरिया की रोग पैदा करने वाली किस्म को गर्मी से मार दिया गया और इसे उसी बैक्टीरिया की ऐसी किस्म के जीवित रूप के साथ मिलाया गया जो रोग पैदा नहीं करता तो भले बैक्टीरिया ने रोगजनक गुण हासिल कर लिए। इस प्रयोग का निष्कर्ष यह निकला कि मृत बैक्टीरिया से कोई पदार्थ जीवित किस्म को हस्तांतरित होता है, जिससे एक नया गुण पैदा हो जाता है। पीछे मुड़कर देखें तो लगता है कि कई प्रमुख वैज्ञानिक खोजों में किस्मत का योगदान रहा है। तथ्य यह है कि बैक्टीरिया की सारी किस्में अपने पर्यावरण में बिखरे डीएनए को ग्रहण करके इस्तेमाल नहीं कर पाते। आज हम जानते हैं कि स्ट्रेप्टोकॉकस किस्म के बैक्टीरिया यह काम भलीभांति कर पाते हैं। यदि ग्रिफिथ किसी अन्य किस्म के बैक्टीरिया पर काम कर रहे होते, तो संभवत: वे यह खोज कभी न कर पाते। इसके बाद एवरी, मैक्लियॉड और मैक्कार्टी द्वारा किए गए प्रयोगों से 1943 में पता चला था कि यह हस्तांतरित होने वाला पदार्थ संभवत: डीएनए है।
लिहाज़ा, ग्रिफिथ की खोज युगांतरकारी थी - सिर्फ इसलिए नहीं कि इसने महामारियों के दौरान नियंत्रण के उपायों का सुराग प्रदान किया बल्कि इसलिए भी कि इसने हमें यह समझने में मदद दी कि डीएनए ही हमारा आनुवंशिक पदार्थ है। इसी समझ के आधार पर वंशानुक्रम और जीवन की निरंतरता का आणविक आधार भी स्थापित हो पाया। (स्रोत फीचर्स)