संध्या रायचौधरी

पिछले कुछ समय से दुनिया भर में कोमा में जाने वाले रोगियों की संख्या बढ़ी है। चिकित्सा विज्ञान के लिए चुनौती बनी हुई है कि यह कब संभव होगा जब कोमा में पहुंच चुके व्यक्ति जल्दी ही सामान्य जीवन जीने लायक हो सकेंगे। दरअसल, कोमा में पहुंच चुका व्यक्ति ज़िन्दा लाश बनकर रह जाता है और यह स्थिति आखिरी क्षण तक परिजनों के धैर्य की परीक्षा लेती है। लेकिन वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक ढूंढ निकाली है जिससे कोमा के मरीज़ के दिमाग की हरकतों को समझकर उनकी हालत में सुधार का अंदाज़ा लग सकेगा।

‘कोमा’ ग्रीक शब्द है जिसका अर्थ है गहरी नींद। हालांकि गहरी नींद और कोमा में ज़मीन-आसमान का अंतर है। जहां नींद स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है वहीं चिकित्सा शास्त्र के अनुसार कोमा स्वास्थ्य की एक गंभीर स्थिति है।
कोमा में मरीज़ न बोल सकता है, न सुन सकता है। उसकी कोई भी इंद्रिय सक्रिय नहीं रहती। कोमा जीवन पर लगे एक अल्पविराम की तरह है, जिसके आगे पूर्णविराम लगने का खतरा लगातार बरकरार रहे! कोमा की स्थिति मरीज़ों के परिजनों के धैर्य का कठिन इम्तहान लेती है। मरीज़ को तो इस इम्तहान का पता भी नहीं चलता। वे तो बस अपनी रहस्यमय दुनिया में ज़िन्दगी और मौत के बीच झूलते रहते हैं। हर साल हज़ारों मरीज़ कोमा का सामना करते हैं। ऐसे में यह चिकित्सा विज्ञान के लिए एक चुनौती की तरह रही है।

चेतना का निम्न स्तर
कोमा ऐसी अवस्था है जिसमें मरीज़ की चेतना खत्म हो जाती है लेकिन उसके दिल की धड़कन चलती रहती है। इसलिए वह जीवित रहता है, हालांकि उसका दिमाग चेतना के सबसे निचले पायदान पर काम करता है। कोमा को मेडिकल साइंस में मानसिक चेतना से जुड़ी बीमारी माना गया है। डॉक्टर इसे अचेतन मस्तिष्क कहते हैं। अगर चेतनाशून्य होने की स्थिति छह घंटे से ज़्यादा बनी रहती है तो डॉक्टर उसे कोमा घोषित कर देते हैं। कोमा के 50 फीसदी से ज़्यादा मामले सिर पर चोट लगने या दिमाग के रक्त संचार में गतिरोध के कारण होते हैं। 25 फीसदी से ज़्यादा मामलों में मस्तिष्क तक पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं पहुंच पाने के कारण कोमा की स्थिति बनती है। इस स्थिति में मरीज़ को हार्ट अटैक की आशंका लगातार बनी रहती है।

कोमा में इलाज
कोमा की स्थिति कई तरह से बनती है, इसलिए इसके इलाज के भी कई तरीके हैं। डॉक्टर को सही समय पर सही कारण समझ में आ गया तो काफी हद तक इलाज किया जा सकता है। जैसे, यदि इसका कारण दिमाग का इंफेक्शन है तो मरीज़ को एंटीबायोटिक देकर ठीक किया जा सकता है। इसी तरह, यदि शुगर की मात्रा के कारण कोमा की स्थिति बनी है तो सबसे पहले उसकी मात्रा को ठीक किया जाता है। दिमाग के हिस्सों में सूजन का पता चलने पर कई बार सर्जरी की ज़रूरत भी हो सकती है। कोमा के ज़्यादातर मामलों में इसकी वजह का ठीक-ठीक पता चल जाता है। हालांकि मस्तिष्क की कार्यप्रणाली इतनी जटिल है कि कोमा से बाहर आने के बावजूद अक्सर मरीज़ को ठीक होने में काफी समय लगता है।

कोमा और दिमागी मृत्यु
किसी व्यक्ति के ब्रेन डेड (दिमागी तौर पर मृत) होने और उसकी मौत होने में कोई फर्क नहीं है जबकि कोमा का मतलब है लगातार जारी एक मूर्च्छा। ब्रेन डेड अवस्था में सांस चलती रहती है इसलिए यह आभास होता है कि व्यक्ति जीवित है, लेकिन वस्तुत: ऐसा होता नहीं है। इस अवस्था में दिमाग काम नहीं करता और शरीर की सारी स्नायविक गतिविधियां बंद हो जाती हैं। कोमा इससे काफी अलग है। यह बीमारी या चोट से पैदा हुई लंबी अवधि की अचेतन अवस्था है। कई बार डॉक्टर मरीज़ को खुद कोमा में ले जाते हैं। ऐसा इसलिए कि दिमाग को शांति मिले और चोट से उबरने का मौका मिल जाए। अमूमन इस गहन निद्रा जैसी अवस्था की अवधि चंद सप्ताह से ज़्यादा नहीं होती।

टॉक एंड डाइ सिंड्रोम
दिमाग में लगी किसी भी चोट के लक्षण दिखने में 48 घंटे का समय लग सकता है। यही वजह है कि सिर में लगी मामूली-सी दिखने वाली किसी चोट को भी नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए। क्लीनिकल न्यूरोसाइंस पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, एक प्रमुख ट्रॉमा केंद्र के 10 साल के रिकॉर्ड देखने से पता चलता है कि वहां दर्ज हुए दिमागी चोट के 40 में से एक मामले में टॉक एंड डाइ की स्थिति थी। इसका मतलब है कि दुर्घटना के ठीक बाद तो मरीज़ को ठीक महसूस हुआ लेकिन धीरे-धीरे हालत बिगड़ती चली गई और आगे जाकर मस्तिष्क में ऐसा बदलाव हुआ कि मौत हो गई। अभिनेत्री नताशा रिचर्डसन इसी का शिकार हुई थीं। 2009 में स्की करने के दौरान वे गिर पड़ी थीं। उन्हें साधारण-सी चोट लगी थी लेकिन आखिर इसी से उनकी जान चली गई।

चोटों का संचय
यह आर्श्चयजनक किंतु सत्य है कि छोटी-छोटी चोटें जमा होती रहती हैं और कई बार वे एक बड़ी चोट के रूप में सामने आती हैं। दरअसल, ज़रूरी नहीं कि बड़ी दुर्घटना के चलते ही मस्तिष्क आघात हो। यह छोटी-छोटी चोटों का संचयी परिणाम भी हो सकता है। यही कारण है कि अब फुटबॉल, रग्बी, आइस हॉकी के खिलाड़ियों पर बहुत बारीकी से नज़र रखी जाती है, जिन्हें सिर पर अक्सर छोटी-मोटी चोटें लगती रहती हैं।
रिसर्च से यह बात पता चली है कि अमेरिकन फुटबॉल के पूर्व खिलाड़ियों में 30 से 49 साल की उम्र में अल्ज़ाइमर, डिमेंशिया या याददाश्त से जुड़ी बीमारियों की आशंका सामान्य लोगों की तुलना में 20 गुना ज़्यादा होती है। लंदन के इंपीरियल कॉलेज के तंत्रिका विज्ञानी एडम हैंपशर का कहना है कि छोटी चोटों से भी बचना चाहिए। ये जमा होकर आगे किसी बड़ी क्षति का कारण बन सकती हैं।

सबसे लंबा कोमा
भारत की अरुणा शानबाग आज तक सबसे लंबे समय - 42 साल - तक कोमा में रहीं। 1973 में जब वे मुंबई के किंग एडवर्ड अस्पताल में थीं तब उनके साथ बलात्कार हुआ था जिससे वो कोमा में चली गई थीं। जीवन की लंबी लड़ाई कोमा में ही लड़ते हुए उन्होंने 2015 में अंतिम सांस ली थी। दूसरा सबसे ज़्यादा समय तक कोमा में रहने का प्रकरण अमेरिका के फ्लोरिडा की इलेन एस्पोसिटो का है। 1978 में मृत्यु होने तक वे 37 साल कोमा में रह चुकी थीं।

कुछ रोचक मामले
ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न में 22 साल के अंग्रेज़ी भाषी बैन मैक कार दुर्घटना के बाद कोमा में चले गए। एक सप्ताह बाद जब उन्हें होश आया तो वे केवल चीनी भाषा मंदारिन बोल रहे थे। उन्हें अंग्रेज़ी बोलने में तीन दिन लग गए। अब वे दोनों भाषाएं धाराप्रवाह बोल रहे हैं। चीनी भाषा के अच्छे ज्ञान के कारण वे न केवल चीनी पर्यटकों के लिए गाइड का काम करते हैं बल्कि मंदारिन में एक टीवी कार्यक्रम भी होस्ट करते हैं। गौरतलब है कि मंदारिन सीखना बहुत कठिन माना जाता है।
इंग्लैंड का मैथ्यू टेलर 18 महीने कोमा में रहने के बाद फोन पर अपनी मंगेतर एंडा नुरुल की आवाज़ सुनकर कोमा से बाहर आ गया था। मैथ्यू की दुर्घटना बाली में हुई थी। वह इंडोनेशिया में अंग्रेज़ी शिक्षक था। दुर्घटना के बाद मैथ्यू को इंग्लैंड रेफर कर दिया गया। एंडा वहां तीन महीने उसके साथ रही। इसके बाद वीज़ा अवधि समाप्त होने के कारण वह अपने घर चली गई। बाद में मैथ्यू की मां को एंडा ने फोन किया तो उन्होंने रिसीवर मैथ्यू के कान पर लगा दिया। एंडा की आवाज़ सुनने के बाद मैथ्यू के आंसू बहने लगे और वह कोमा से बाहर आ गया।

हंगरी के डेबरेकन मेडिकल युनिवर्सिटी एंड हॉस्पिटल में जुलाई 2013 से कोमा में चल रही एक गर्भवती महिला की सफल डिलीवरी तीन महीने बाद की गई। दिलचस्प बात है कि महिला को ब्रेन डेड घोषित किया जा चुका था। महिला ब्रेन स्ट्रोक के बाद अस्पताल पहुंची थी। उस समय उसे 15 सप्ताह का गर्भ था। हालांकि बच्चा प्रीमेच्योर था, लेकिन स्वस्थ था। बच्चे का वज़न 1.4 किलोग्राम था। बच्चे के जन्म के बाद महिला से लाइफ सपोर्ट सिस्टम हटा लिया गया। महिला के कई अंग ज़रूरतमंदों को दान किए गए। जब महिला लाइफ सपोर्ट सिस्टम पर थी तो डॉक्टरों के अलावा उसकी निगरानी पर एक संगीतज्ञ भी था। वह महिला के पास बैठकर गिटार बजाता था ताकि बच्चे को जन्म के बाद बोलने और सुनने में परेशानी न हो। पोलैंड में रेल्वे कर्मचारी रहे ग्रेजबस्की जब 19 साल कोमा में रहकर होश में आए तो दुनिया देख चकरा गए। जब ग्रेजबस्की कोमा में गए थे, उस समय पूरे पोलैंड में लाल झंडे का राज था। सरकार कम्युनिस्टों की थी जबकि होश में आने पर उन्हें वैसा कुछ नहीं दिखा। देश में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी थी। वे खुद कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े थे इसलिए उन्हें अच्छा नहीं लग रहा था। (स्रोत फीचर्स)