अंजलि कुलकर्णी

विभिन्न रोगों के इलाज में शिरा के रास्ते (इंट्रावीनस) किया जाने वाला इलाज बहुत महत्वपूर्ण होता है। इस विधि के विकास के पीछे एक लंबा इतिहास है। शिरा के रास्ते किए जाने वाले इलाज का इतिहास चिकित्सा शास्त्र के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है। प्रस्तुत है इस इतिहास का संक्षिप्त विवरण।

आप चिकित्सा के क्षेत्र से सम्बंधित हों या न हों, अस्पताल में भर्ती किसी मरीज़ के बारे में कल्पना करते समय आंखों के सामने कौन-सा चित्र आता है? बिस्तर पर पड़ा मरीज़, उसके हाथ में लगी सलाइन। चाहे वह बुखार से पीड़ित हो या उसकी सर्जरी की गई हो, ये नलियां और सलाइन की बोतल, इन नलियों में से मरीज़ को दी जाने वाले दवाइयां, यह सब तो लगभग निश्चित होता है।
शल्य क्रिया या दुर्घटना के बाद, या शरीर में पानी या लवणों की कमी हो जाने पर, तथा अन्य कई कारणों से शिरा के रास्ते दवाइयां देनी पड़ती हैं। इसके लिए कैथेटर नाम की लचीली नली और एक सुई होती है। सुई को प्राय: हाथ की शिरा में डाला जाता है। दवाई या तरल को रखने के लिए प्लास्टिक की एक थैली होती है। इस उपकरण से एक ही समय में एक से अधिक दवाइयां भी दी जा सकती हैं। सुई से जुड़ी नली को टेप की सहायता से त्वचा पर चिपका दिया जाता है। इस उपकरण से एक समय में 50 से 500 मिलीलीटर तक तरल दिया जा सकता है। मरीज़ की बीमारी के अनुसार यह तय किया जाता है कि एक मिनट में दवाई की कितनी बूंदें दी जाएं।

मुंह से दवाइयां दे कर बीमारियों का इलाज तो सदियों से होता आया है, किंतु क्या आपने कभी सोचा है कि यह विचार किसी वैज्ञानिक के दिमाग में कैसे आया होगा कि रक्त नलिका में सीधे दवाई डाल कर इलाज किया जा सकता है। शिरा के रास्ते दवाई देने की कल्पना अजीबोगरीब तो थी ही, किंतु इस विधि के विकास की कहानी भी बहुत रोचक है। शिरा के रास्ते तरल को शरीर में डाल कर इलाज करने की शुरुआत रक्ताधान (ब्लड ट्रान्सफ्यूज़न) से हुई।
शिरा के माध्यम से सबसे पहले इलाज करने का किस्सा पांच शताब्दि पुराना - सन 1492 - का है। रोम के पोप इनोसंट (अष्टम) को लकवा मार गया और वे बेहोश हो गए। काफी इलाज करने और सफलता न मिलने पर उनका इलाज करने वाले वैद्य ने तय किया कि पोप को किसी स्वस्थ व्यक्ति का खून दिया जाए। तीन हट्टे-कट्टे नौजवानों को बुलवाया गया और उनकी रक्त वाहिनियों को बिना किसी उपकरण के सीधे पोप की रक्त वाहिनियों से जोड़ दिया गया। नतीजा यह हुआ कि कुछ ही समय में पोप और तीनों नौजवानों की मृत्यु हो गई।
समाज और चिकित्सा जगत में इस घटना पर तीव्र प्रतिक्रिया हुई और उसके बाद डेढ़ सौ वर्षों तक किसी ने इस विधि के बारे में सोचने तक की ज़ुर्रत नहीं की। इसके बाद सत्रहवीं सदी के अंत में फ्रांस के चिकित्सक और प्राध्यापक डॉ. ज़्यां बेप्टिस्टे डेनिस ने मस्तिष्क की बीमारी से पीड़ित एक व्यक्ति के इलाज के लिए उसकी रक्त वाहिनी में एक मेमने का खून डाला। बेचारा मेमना तो मर ही गया, मरीज़ का शरीर भी काला-नीला हो गया और वह भी मौत के मंुह में चला गया। (बॉक्स भी देखें)

पोप इनोसेंट अष्टम के बारे में यह कथा प्रचलित है किंतु कई लोगों का मत है कि 15वीं सदी में धमनियों-शिराओं का ज्ञान तो था नहीं, इसलिए यदि खून दिया गया होगा तो नली के माध्यम से सीधे पेट में दिया गया होगा। वैसे कई लोगों का मत है कि यह कथा निराधार है, इसके पक्ष में में कोई प्रमाण नहीं हैं। - संपादक

इसके उपरांत कई प्रयासों के बाद अठारवीं सदी के मध्य में इंग्लैंड के ऑक्सफर्ड में क्रिस्टोफर रेन नामक वैज्ञानिक ने शिरा के रास्ते इलाज करने का दुनिया का पहला उपकरण बनाया। इस उपकरण में पक्षी के खोखले पिच्छ और सूअर के मूत्राशय का उपयोग किया गया था। इसे जांचने के लिए कुत्तों की शिराओं में शराब डाली गई। इस उपकरण में कई कमियां अवश्य थीं, और अपने सहयोगियों के साथ कई प्रयोग करके उन्होंने इस उपकरण में कई सुधार किए। इसी कारण से क्रिस्टोफर रेन को शिरा के रास्ते (इंट्रावीनस) किए जाने वाले इलाज का जनक माना जाता है।
शिरा के रास्ते किए जाने वाले इलाज की वैज्ञानिक विधि की असली शुरुआत उन्नीसवीं सदी में हुई। डॉ. जेम्स ब्लुंडेल नामक स्त्रीरोग विशेषज्ञ ने उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में प्रसूति के बाद होने वाले रक्त स्राव से पीड़ित स्त्रियों को रक्त देना शुरु किया। डॉ. ब्लुंडेल इन स्त्रियों को उन्हीं के पतियों का रक्त देते थे। नतीजे मिले-जुले ही होते थे। उन दिनों ऐसे मरीज़ों के बचने की संभावना काफी कम होती थी। इस विषय पर डॉ. ब्लुंडेल के शोध का विवरण चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र की प्रतिष्ठित पत्रिका लैन्सेट में प्रकाशित हुआ। विवरण में डॉ. ब्लुंडेल ने यह भी बताया था कि मरीज़ के शरीर में रक्त पहुंचाने की गति एक महत्वपूर्ण कारक होता है।
इंट्रावीनस इलाज के पहले प्रयास मुख्य रूप से रक्ताधान से सम्बंधित थे। उस समय कई मरीज़ों की मृत्यु इसलिए हो जाती थी कि वे दूसरे व्यक्ति का रक्त स्वीकार नहीं कर पाते थे। अन्य तकनीकी समस्याओं का समाधान खोज भी लिया जाए तो भी रक्त समूह के मैच होने पर ही रक्ताधान सफल हो सकता है। और रक्त समूहों की पहचान होने के लिए अभी एक सदी से अधिक का समय शेष था। रक्त समूहों की पहचान बीसवीं सदी में हुई। इसी बीच, शिरा के रास्ते इलाज में एक नया मोड़ आया। वह यह मोड़ थी कि 1830 के दशक में युरोप में फैली हैज़े की महामारी के परिणामस्वरूप आया था।

उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में आई यह महामारी बहुत भयानक थी। इसकी शुरुआत भारत में गंगा के कछार से हुई थी और कुछ ही समय में यह चीन, इरान, रूस आदि देशों से होती हुई युरोप पहुंच गई। इस महामारी से अनगिनत लोग मारे गए। आयरलैंड के चिकित्सा वैज्ञानिक डॉ. विलियम ओशॉनेसी ने हैज़े की बीमारी का विस्तार से अध्ययन करके यह पहचान लिया कि हैज़े में उल्टी-दस्त के कारण शरीर में जल व लवणों की बहुत अधिक कमी हो जाती है और मरीज़ की मृत्यु इसी वजह से होती है। मुंह से पानी और लवण देने से फायदा नहीं हो रहा था क्योंकि ये पेट में टिक ही नहीं रहे थे। उन्हें पता था कि रूसी सैनिकों को टिटेनस हो जाने पर शिरा से अफीम दी जाती थी। इस जानकारी के आधार पर उन्होंने अनुमान लगाया कि शिरा में सीधे जल और लवण पहुंचाकर मरीज़ को बचाया जा सकता है।
विलियम ओशॉनेसी की परिकल्पना के आधार पर स्कॉटलैंड के चिकित्सक थॉमस लाटा ने हैज़े से पीड़ित एक वृद्ध महिला का इलाज किया। इसके लिए चांदी से बनाई गई एक पतली नली का उपयोग किया गया था। उन्होंने ढाई लीटर गुनगुने पानी में सोडियम क्लोराइड, सोडियम कार्बोनेट आदि लवणों का घोल बनाया। इस घोल की थोड़ी-थोड़ी मात्रा मरीज़ की बांह की बड़ी रक्त वाहिनी में सावधानीपूर्वक डाली गई। कुछ ही समय में वह मृतप्राय महिला होश में आ गई। उसके ठंडे पड़ चुके शरीर में कुछ गर्मी आ गई और उसने स्वयं डॉक्टर से कहा कि उसे अब ठीक लग रहा है। शिरा के द्वारा किए गए इलाज से वह महिला मौत के मुंह से लौट आई थी किंतु कुछ ही समय के लिए। क्योंकि कुछ समय बाद दोबारा हैज़े के हमले से उसकी मृत्यु हो गई। उस समय उपलब्ध अपर्याप्त सुविधाओं और मरीज़ की निश्चित मृत्यु को देखते हुए महामारी के समय डॉक्टर लाटा ने शिरा के रास्ते लवण और पानी दे कर कई मरीज़ों को जीवनदान दिया।                                                                

उन्नीसवीं सदी में किए गए डॉक्टर लाटा के सफल प्रयोग के बाद शोधकर्ताओं ने सदी के उत्तरार्ध में शिरा के माध्यम से लवणों का घोल ही नहीं, बल्कि दूध, शकर का घोल, अंडे की सफेदी जैसे कई पदार्थ देने के प्रयोग किए। विविध प्रकार के पदार्थों के साथ प्रयोग करने के साथ-साथ इस काम के लिए उपकरणों को ले कर भी नए-नए प्रयोग हो रहे थे। इन प्रयासों को टेक्नॉलॉजी का साथ भी मिल रहा था। इसी अवधि में फ्रांस के चार्ल्स प्रावाज़ नामक वैज्ञानिक ने कांच और धातु से इंजेक्शन की पहली सीरिंज बनाई। इससे रक्त और दवाइयां शरीर में पहुंचाना आसान हो गया।
टेक्नॉलॉजी में हुए परिवर्तनों का सबसे अधिक उपयोग 1914 से 1918 के बीच हुए पहले विश्व युद्ध के बाद बड़े पैमाने पर होने लगा। किंतु इस अवधि में दवाइयों के लिए काम में लाई जाने वाली बोतलें वायुरोधी नहीं होती थीं। बीसवीं सदी के मध्य में बोतलों की जगह प्लास्टिक की थैलियों ने ले ली। इस प्रकार शिरा के माध्यम से दवाइयां देने की आधुनिक विधि की शुरुआत हुई।
आजकल हर व्यक्ति सलाइन लगाना या बोतल चढाना जैसे जुम्लों से परिचित होता है। इस जुम्ले के सलाइन वाले भाग की कहानी कुछ अलग है। यह सलाइन (यानी नॉर्मल सलाइन) साधारण नमक (सोडियम क्लोराइड) का 0.9 प्रतिशत घोल होता है। 0.9 प्रतिशत का मतलब होता है 100 मिलीलीटर पानी में 0.9 ग्राम नमक का घोल। लवण के जिस घोल का उपयोग 1831 में युरोप में फैली महामारी में किया गया था, उसमें लवण की मात्रा आजकल के सलाइन से कुछ अलग थी। डॉ. लाटा ने प्रयोग कर-करके लवण की जो मात्रा निर्धारित की थी वह रक्त में उनकी सांद्रता के आसपास थी। किंतु डॉ. लाटा की मृत्यु के बाद ये आंकड़े कुछ समय के लिए अनजान रहे।

यद्यपि डॉ. लाटा द्वारा निर्धारित लवण की मात्रा कुछ समय के लिए नज़रअंदाज हुई, फिर भी कई चिकित्सकों ने यह पहचान लिया था कि ज़ख्मी और खून बह जाने से बेहोश मरीज़ को होश में लाने के लिए लवणयुक्त घोल उपयोगी था। इस कारण डॉक्टर सिडनी रिंगर और अन्य चिकित्सा शास्त्रियों ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में घोल के घटकों पर शोध कार्य शुरु किया। इस शोध में घोल के विविध घटकों और उनकी मात्राओं के मेंढक के हृदय की पेशियों पर प्रभाव का विस्तार से अध्ययन किया गया। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ कि लवणयुक्त घोल और कोशिकाओं में उपस्थित द्रव का परासरण दाब समान होना चाहिए। यदि यह दाब समान न हो तो कोशिकाओं के भीतर-बाहर द्रवों का अवांछित स्थानांतरण हो सकता है। सिडनी रिंगर ने अपने शोेधकार्य में सोडियम क्लोराइड, पौटेशियम क्लोराइड, कैल्शियम क्लोराइड आदि लवणों की जांच की थी।

मेंढकों पर किए गए इस शोध से निष्कर्ष निकला कि लवणों की 0.6 प्रतिशत सांद्रता का घोल परासरण दाब की दृष्टि से सही होता है। किंतु 0.6 प्रतिशत की यह मात्रा केवल मेंढकों के लिए उचित है। अनुमान यह था कि स्तनधारियों के लिए यह मात्रा अधिक होनी चाहिए। यह मात्रा कितनी होनी चाहिए, यह निर्धारित करने के लिए डच जीव वैज्ञानिक हार्टोग जैकब हैम्बर्गर ने एक अलग प्रकार का तर्क लगाया। मनुष्य के रक्त का हिमांक (द्रव से ठोस बनने का तापमान) 5.2 डिग्री सेल्सियस होता है। हैम्बर्गर ने मनुष्य और अन्य कई जंतुओं के रक्त के हिमांक की तुलना करके सुझाव दिया कि मनुष्य और अधिकांश स्तनधारी जंतुओं को दिए जाने वाले इंट्रावीनस घोल में उचित परासरण दाब की दृष्टि से लवणों की मात्रा 0.9 प्रतिशत होनी चाहिए। इसके बाद शरीर में जल और लवणों के नुकसान की भरपाई के लिए 0.9 प्रतिशत सोडियम क्लोराइड के घोल को सलाइन के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

आज भी 0.9 प्रतिशत सोडियम क्लोराइड वाला यह घोल ‘नॉर्मल सलाइन’ के नाम से उपयोग में लाया जाता है। इसमें नॉर्मल शब्द सोडियम क्लोराइड की मात्रा दर्शाने वाली इकाई है। मगर रोचक बात यह है कि यह घोल न तो रासायनिक दृष्टि से ‘नॉर्मल’ है, न शरीरक्रिया विज्ञान की दृष्टि से।
आजकल नॉर्मल सलाइन के साथ अन्य प्रकार के सलाइन भी उपलब्ध हैं जिनमें सोडियम क्लोराइड के साथ अन्य लवण, ग्लूकोज़, प्रोटीन्स जैसे पदार्थ अलग-अलग मात्रा में होते हैं। विविध आवश्यकताओं के अनुसार सोडियम क्लोराइड की कम या अधिक मात्रा वाले सलाइन मरीज़ों को दिए जाते हैं। कई बार मुंह से देने पर कुछ दवाइयां पाचन तंत्र द्वारा पूरी तरह अवषोशित नहीं हो पातीं, या इनका असर होने में देर लगती है या मरीज़ मुंह से कुछ लेने स्थिति में नहीं होता। ऐसी स्थितियों में सलाइन के साथ अन्य दवाइयां भी दी जाती हैं। इन सब कारणों से शिरा से दवाइयां देना चिकित्सा का एक अनिवार्य भाग बन गया है।
शिरा के रास्ते इलाज के विकास का सदियों का इतिहास रहा है। इस विधि में उपयोग में लाई जाने वाली दवाइयां अब अधिक सुरक्षित और उन्नत होने लगी हैं। अब शिरा से केवल दवाइयां ही नहीं, सूक्ष्म दूरबीन और कैमरे जैसे उपकरण भी शरीर में डाले जा सकते हैं और आंतरिक अंगों की जांच की जा सकती है। इतना ही नहीं, इस विधि से शल्य क्रियाएं भी की जाने लगी हैं। इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि शिरा के रास्ते इलाज का दायरा बहुत बढ़ गया है। (स्रोत फीचर्स)