डॉ. सुशील जोशी

एक मित्र ने बहुत आसान-सा सवाल पूछा था। भोपाल में उस दिन पारा 45 डिग्री सेल्सियस को छू रहा था। उन्होंने इस तापमान को फैरनहाइट में बदला तो यह हमारे शरीर के सामान्य तापमान (98.4 डिग्री फैरनहाइट) से काफी अधिक (113 डिग्री फैरनहाइट) निकला। चिंता की बात यह थी कि हमारा शरीर इतने अधिक तापमान को संभालता कैसे है। आइए देखते हैं कि तापमान में उतार-चढ़ाव के साथ हमारे शरीर में क्या परिवर्तन होते हैं।
इस मामले में चिंता का प्रमुख कारण यह है कि हमारे व अधिकांश अन्य जंतुओं के शरीर के अंदर जो रासायनिक क्रियाएं चल रही हैं, जो हमें जीवित रखती हैं, चलता-फिरता रखती हैं, वे कुछ इस तरह एडजस्ट हुई हैं कि 37-38 डिग्री सेल्सियस के आसपास ही बढ़िया से चलती हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि जीवों की सारी रासायनिक क्रियाएं किसी न किसी उत्प्रेरक की मदद से चलती हैं। ये उत्प्रेरक 37 डिग्री सेल्सियस पर ही भलीभांति काम करते हैं। इनके कामकाज (और हमारे स्वस्थ बने रहने) के लिए ज़रूरी है कि शरीर का अंदरुनी तापमान 37-38 डिग्री सेल्सियस के इर्द-गिर्द बना रहे।

जीव वैज्ञानिकों ने तापमान के रख-रखाव के हिसाब से सारे जंतुओं को दो समूहों में बांटा है। एक वे जंतु हैं जो बाहरी वातावरण के तापमान में कमी-बेशी होने पर भी अपने शरीर का तापमान स्थिर बनाए रखने की क्षमता से लैस होते हैं। बाहरी वातावरण का तापमान घटने-बढ़ने पर इनके शरीर में कुछ ऐसी क्रियाएं शु डिग्री होती हैं जो शरीर के तापमान को यथेष्ट स्तर पर बनाए रखती हैं। किसी समय इन्हें गर्म खून वाले जंतु कहा जाता था, आजकल इन्हें स्थिर तापमान वाले जंतु कहते हैं।
दूसरे किस्म के जंतु वे हैं जिनके शरीर में तापमान को स्थिर बनाए रखने की कोई व्यवस्था नहीं होती। लिहाज़ा, इनके शरीर का तापमान बाहरी वातावरण के साथ घटता-बढ़ता है। ये अपना काम चलाने के लिए व्यवहार में परिवर्तन (जैसे छाया में चले जाना, पानी में उतर जाना, ज़मीन के नीचे घुस जाना वगैरह) पर निर्भर रहते हैं। पहले इन्हें ठंडे खून वाले जंतु कहते थे।
मनुष्य पहले किस्म के जंतु हैं, जो अपने शरीर का तापमान स्थिर बनाए रखने के लिए आंतरिक क्रियाओं पर निर्भर हैं। मौसम को देखते हुए बात को सिर्फ बढ़ते तापमान के संदर्भ में देखेंगे।

बाहरी वातावरण के बढ़ते तापमान से बचाव के लिए मनुष्य के शरीर में जो प्रमुख क्रियाविधि है वह पसीना आने की है। पसीना आना एक अनैच्छिक क्रिया है जो बाहरी तापमान को भांपकर स्वत: शु डिग्री हो जाती है। हमारी चमड़ी में खून की नलिकाओं का जो जाल फैला है, वही इस क्रिया के संचालन में प्रमुख भूमिका निभाता है। अब इसमें न जाएं कि मस्तिष्क से किस ग्रन्थि को क्या संदेश मिलता है और वह पसीना छोड़ना शु डिग्री कर देती है। लब्बो लुआब यह है कि जब पसीना शरीर से बाहर निकलता है और हवा के संपर्क में आता है तो उसका वाष्पीकरण शु डिग्री हो जाता है। जैसा कि सब जानते हैं वाष्पीकरण से ठंडक पैदा होती है। यदि नहीं जानते तो बता दें कि वाष्पीकरण से ठंडक होने का सबसे बढ़िया उपयोग हम मटके के रूप में करते हैं। मटका रंध्रमय होता है, रंध्रों में से पानी बाहर निकलता है और मटके की सतह पर आकर वाष्पीकृत हो जाता है। परिणामस्वरूप मटके के अंदर का पानी ठंडा हो जाता है। देखा जाए तो गर्मियों में मनुष्य का शरीर एक मटके की तरह काम करता है। पसीना निकलता है, त्वचा की सतह पर आकर वाष्पीकृत होता है और शरीर के अंदरुनी हिस्से को ठंडा बनाए रखता है। चूंकि चलती हुई हवा वाष्पीकरण को बढ़ावा देती है, इसलिए पंखे के नीचे बैठना सुकून देता है। दूसरी ओर, यदि वातावरण में पहले से बहुत नमी (उमस) हो तो पसीने का वाष्पीकरण भलीभांति नहीं हो पाता। इसीलिए नमीयुक्त स्थानों पर या बारिश में तापमान बहुत अधिक न हो तब भी परेशानी होने लगती है।
ज़ाहिर सी बात है कि यदि बाहर का तापमान बढ़ रहा है और आपका शरीर पसीना उड़ा रहा है, तो पानी की ज़्यादा ज़रूरत होगी। इसलिए गर्मियों में ज़्यादा प्यास लगती है। यदि पानी न मिले तो पसीना बनने और उड़ने की क्रिया बाधित होती है और शरीर का तापमान बढ़ने लगता है यानी बुखार आ जाता है। यदि तापमान बढ़ने की यह क्रिया बहुत तेज़ी से हो तो इसे लू लगना कहते हैं और यह स्थिति जानलेवा हो सकती है।

एक-दो छोटी-छोटी बातें कहकर बात समाप्त करते हैं। पहली बात यह है कि पसीने के अलावा शरीर कई अन्य तरीके भी आज़माता है। इनमें से एक महत्वपूर्ण तरीके का सम्बंध इस बात से है कि शरीर में गर्मी पैदा होने की दर कम कर दी जाए। सामान्यत: हमारे शरीर में सबसे अधिक गर्मी मांसपेशियों के काम से पैदा होती है। तापमान बढ़ने पर मस्तिष्क मांसपेशियों को कम काम करने का संदेश देता है। गर्मियों में थकान की यही वजह है। दूसरी बात है कि पसीना सिर्फ पानी नहीं होता। यदि आपने कभी चखा हो तो पसीना खारा होता है। यह खारापन पसीने में लवणों की उपस्थिति की वजह होता है। इसका मतलब है कि पसीने के साथ शरीर से लवण भी निकल जाते हैं। लवण शरीर की कई क्रियाओं के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जब लवण निकलते हैं तो शरीर के सुचारु कामकाज में दिक्कत आने लगती है। इसलिए पानी के साथ आपको लवणों की क्षतिपूर्ति करनी होती है।
अब एक ही सवाल रह जाता है कि इस तरह बाह्य तापमान के किस हद तक बढ़ने पर हमारा शरीर मामले को संभाल पाएगा। इसमें पहली ध्यान देने की बात यह है कि ताप नियंत्रण के लिए हम सिर्फ पसीने पर निर्भर नहीं हैं। इसके लिए हम कई व्यवहारगत उपाय भी अपनाते हैं। जैसे छाया में रहना, धूप में निकलते वक्त सिर को ढंककर रखना, एक-दो बार नहा लेना या सिर पर पानी डाल लेना वगैरह। ये सब गर्मी के स्रोत को न्यूनतम करने के प्रयास हैं। कई इलाकों में दिन का तापमान छाया में 50 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है। पर्याप्त पानी (लवण-शकर युक्त) पीकर, सीधी धूप से बचकर वहां भी लोग इससे निपट ही लेते हैं। (स्रोत फीचर्स)