लंदन के ग्रेट ओरमोंड स्ट्रीट हॉस्पिटल फॉर चिल्ड्रन के तलघर में एक संग्रहालय है, जहां बच्चों की कैंसर की गठानों को संरक्षित करके रखा गया है। आम तौर पर ऐसे संग्रह अजायबघर जैसे होते हैं किंतु वेलकम ट्रस्ट सैंगर इंस्टीट्यूट के कैंसर शोधकर्ता सैम बेहजाति ने इसे एक संसाधन में तबदील कर दिया है।
दरअसल, बेहजाति बच्चों के कैंसर का उपचार भी करते हैं और अनुसंधान भी। खास तौर से बच्चों में कुछ कैंसर बहुत कम होते हैं और इनके इलाज के लिए जो भी तरीके अपनाए जाते हैं वे आज़माइशी ही रहते हैं क्योंकि मरीज़ इतने कम होते हैं कि क्लीनिकल ट्रायल का मौका ही नहीं मिलता। समस्या से निपटने के लिए बेहजाति व उनके साथी पुराने संरक्षित कैंसरों का आधुनिक विधियों से अध्ययन करके अपने अनुसंधान को ज़्यादा व्यापक बनाना चाहते हैं।

उपरोक्त अस्पताल में कैंसर की गठानों को बहुत व्यवस्थित रूप से संरक्षित करके रखा गया है। प्रत्येक नमूने पर मरीज़ का नाम व अन्य जानकारी तथा कैंसर के प्रकार का भी उल्लेख है। नमूनों को पहले फॉर्मेल्डीहाइड से उपचारित किया गया है और फिर मोम में जमा दिया गया है। बेहजाति और उनके साथियों ने मोम में संरक्षित गठानों के नमूनों का पहले एक छोटा-सा टुकड़ा लिया, उसे अभिरंजित किया (यानी उन्हें कुछ रंगीन पदार्थों से उपचारित किया ताकि अलग-अलग हिस्से स्पष्ट नज़र आएं), और सूक्ष्मदर्शी में देखकर पक्का कर लिया कि कैंसर उसी प्रकार का है जैसा कि लेबल पर लिखा गया था।

इसके बाद उन्होंने प्रत्येक नमूने के डीएनए का क्षार अनुक्रम पता किया। वे यह देखना चाहते थे कि क्या इन नमूनों में कुछ म्यूटेशन (रासायनिक संरचना में टूट-फूट या फेरबदल) ऐसे हैं जो सबमें पाए जाते हैं। इसके आधार पर कैंसर पैदा करने वाले म्यूटेशन्स को पहचाना जा सकेगा।
यही क्रिया जब वयस्कों के कैंसर की गठानों पर करते हैं तो दिक्कत यह आती है कि उनके डीएनए में उम्र के साथ कई म्यूटेशन्स हो चुके होते हैं। इसलिए कैंसर के लिए जवाबदेह म्यूटेशन्स को पहचान पाना मुश्किल होता है। इसलिए कैंसर के जेनेटिक कारणों को समझने के लिए बच्चों के कैंसर का अध्ययन महत्वपूर्ण है।
ग्रेट ओरमोंड स्ट्रीट हॉस्पिटल की स्थापना 1852 में मशहूर लेखक चार्ल्स डिकेंस द्वारा उगाहे गए चंदे से हुई थी। किंतु बेहजाति के दल ने 1920 के बाद संरक्षित नमूनों पर ध्यान केंद्रित किया क्योंकि उस समय से कैंसरों का वर्गीकरण मानक हो चला था और आज भी यह प्रणाली बदली नहीं है। यानी 1920 के बाद के नमूनों पर लिखित जानकारी आजकल के तौर-तरीकों से मेल खाती है।
बेहजाति चाहते हैं कि उन्हें कई ऐसे संग्रहालयों से नमूने मिल सकें ताकि कैंसर, खास तौर से बचपन के दुर्लभ कैंसर, के बारे में हमारी समझ बढ़ सके। (स्रोत फीचर्स)