डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

संगीत अगर प्यार का पोषक है, तो बजाते जाओ! शेक्सपीयर लिखित ट्वेल्थ नाइट में ड्यूक ओर्सिनो के ये शब्द संगीत को लेकर वर्तमान वैज्ञानिक सोच को प्रतिबिंबित करते हैं।
संगीत मूड बनाता है। मगर संगीत श्रोता के मिज़ाज को कैसे प्रभावित करता है? यह सवाल लंबे समय से मनोविज्ञानियों और तंत्रिका वैज्ञानिकों के शोध का विषय रहा है। संंगीत, वास्तव में ध्वनि, हमारे मस्तिष्क की दशा को प्रभावित करता है। कुछ वालंटियर्स को संगीत सुनाकर ‘खुशी’ की स्थिति में पहुंचा दिया गया और फिर उनसे कहा गया कि वे किसी व्यक्ति या चेहरे के भाव को पहचानें। इन वालंटियर्स को आम तौर पर उस व्यक्ति या चेहरे पर झलकते भाव ‘खुशी’ के या सकारात्मक लगे। और जब मायूस संगीत (या केवल शोर) बजाया गया, तब उन्होंने चेहरे के भाव को ‘मायूस’ या नकारात्मक माना। (कहीं इसी कारण से तो इमारतों की लिफ्ट में खुशनुमा संगीत नहीं बजाया जाता कि यात्रियों का मिज़ाज दोस्ताना बना रहे?) ध्वनि संकेत व्यक्ति की मनोदशा को प्रभावित करते हैं जिसके परिणामस्वरूप दृश्य भावनाओं की अलग-अलग व्याख्या की जाती है।
इसका उलट भी सही लगता है। गायक जो अंग चेष्टा - शरीर/चेहरे को तोड़ना-मरोड़ना - करता है उसका प्रभाव उसके संगीत की सुंदरता के रसास्वादन पर पड़ता है (कम से कम मेरे लिए तो पड़ता ही है)। उसे रेडियो या सीडी पर सुनना बेहतर होगा। श्रव्य सूचना दृश्य को प्रभावित करती है और दृश्य सूचना श्रव्य को। मरहूम संगीतकार एम.एस. सुब्बलक्ष्मी इस परस्पर निर्भरता की श्रेष्ठ मिसाल थीं। (वैसे कुछ ऐसे विघ्नसंतोषी लोग ज़रूर हैं जो कहते हैं कि जो महिला संगीतज्ञ ‘भड़कीली’ रेशमी साड़ियां पहनकर महफिल में आती हैं वे ‘धर्मपरायण’ नहीं हैं।)

अब यह समझ में आ रहा है कि वास्तव में इस तरह के अनुभवों के दौरान मानव मस्तिष्क में क्या होता है। हाल ही में न्यूरोसाइंस पत्रिका में प्रकाशित टी. क्वार्टोआ व साथियों के एक शोेध पत्र में एक क्रियाविधि बताई गई है जिसमें डोपामाइन अणु तंत्रिका कोशिकाओं को उकसाता है। पर्चे में यह भी स्पष्ट किया है कि यह अलग-अलग व्यक्ति में अलग-अलग होता है और आनुवंशिकता पर निर्भर करता है। हममें से कुछ लोग काम या किसी चीज़ पर ध्यान केंद्रित करते वक्त चाहते हैं कि पृष्ठभूमि में संगीत बजता रहे, जबकि कई लोग खामोशी पसंद करते हैं क्योंकि किसी भी तरह की आवाज़ से उनकी एकाग्रता में बाधा पहुंचती है। उपरोक्त पर्चे में संगीत के संदर्भ में फिनोटाइप्स और जीन्स के बीच के सम्बंध पहचानने की कोशिश का ब्यौरा है। फिनोटाइप किसी जीव के गोचर रूप को कहते हैं।

संगीत चिकित्सा
यह बात तो काफी समय से पता रही है कि संगीत हमारे मिज़ाज और ‘जाग्रतावस्था’ का नियमन कर सकता है और शारीरिक व मानसिक स्वास्थ को बढ़ावा भी दे सकता है। ट्रेंड्स इन कॉग्निटिव साइंसेस पत्रिका के अप्रैल 2013 के अंक में मैकगिल विश्वविद्यालय (कनाडा) की मोना लिसा चंदा और डेनियल जे. लेविटिन द्वारा लिखित दी न्यूरो केमेस्ट्री ऑफ म्यूज़िक शीर्षक से एक अत्यंत पठनीय समीक्षा पर्चा छपा था। यह समीक्षा वेब पर उपलब्ध नहीं है, इसलिए मैं यहां उसके कुछ वाक्यों को उद्धरित कर रहा हूं। वे बताते हैं कि संगीत मनुष्य के मस्तिष्क में कई किस्म की भावनाएं जगाता है। जैसे - आनंद से लेकर सुकून तक, उदासी से लेकर खुशीतक, डर से सहजता तक और यहां तक कि इन भावनाओं के विभिन्न सम्मिश्रण भी। ज़्यादातर लोग संगीत का इस्तेमाल मिज़ाज और जाग्रतावस्था के नियमन के लिए करते हैं, उसी तरह जैसे कैफीन या एल्कोहल का इस्तेमाल किया जाता है। न्यूरोसर्जन इसका इस्तेमाल एकाग्रता बनाने में, फौज अपने मूवमेंट के समन्वय के लिए, मज़दूर एकाग्रता और सतर्कता बढ़ाने में और एथलीट अपनी सहनशक्ति और गति को बढ़ाने में करते हैं।
इस समीक्षा में आगे उन्होंने यह भी बताया है कि संगीत ऐसे अणुओं और कोशिका के बीच ऐसे सम्बंधों के माध्यम से हमारे स्वास्थ को प्रभावित करता है जो मस्तिष्क के तंत्रिका परिपथों के चार प्रमुख दायरों को प्रभावित करते हैं: 1. पारितोषिक, प्रेरणा और खुशी 2. तनाव और उत्तेजना 3. प्रतिरक्षा, और 4. सामाजिक सम्बंध।

दवा के रूप में
जब हम संगीत का अनुभव रोमांचक, आनंददायी, शांतिदायक या उत्तेजक के रूप में करते हैं, तो पता चला है कि इस दौरान अफीम-समान अणु पैदा होते हैं जो मस्तिष्क के परिपथ को कुछ इस तरह चालू करते हैं जिससे खुशी और उत्तेजना का एहसास होता है। कनाडा के समूह का कहना है कि आनंदायक संगीत भी उसी तंत्रिका-रासायनिक तंत्र को उकसाता है जिसे कोकैन भी उकसाती है।
कतिपय संगीत तनाव और जाग्रतावस्था को कम भी कर सकते हैं। सामान्य तौर पर यह शांतिदायक संगीत होता है - नीचा सुर, धीमी लय और कोई बोल नहीं। ताल बिलकुल धीमी होगी या नहीं होगी (जैसे भक्ति संगीत में)। लगता है कि इस तरह के संगीत को सुनने से कॉर्टिसोन (तनाव कम करने वाला हार्मोन) और नॉरएपिनेफ्रीन (न्यूरोट्रांसमीटर) का स्तर कम होता है। वीर रस का संगीत (आर्मी बैंड) हृदय गति व रक्त प्रवाह को बढ़ाता है, जबकि इसके विपरीत सुकूनदायक संगीत (मंत्रोच्चार) हृदय की धड़कन, नब्ज़ की गति, और रक्त प्रवाह को कम करता है।

प्रतिरक्षा तंत्र
संगीत का तीसरा प्रभाव आश्चर्यजनक रूप से प्रतिरक्षा को बेहतर बनाने में होता है। वृंद गान या ढोल-ढमाके जैसे फुरसतिया संगीत पर अध्ययन करके शोधकर्ताओं ने पाया है कि इनसे इम्यूग्लोबुलिन-ए का स्तर बढ़ता है। इम्यूग्लोबुलिन-ए एक प्रोटीन है जो शोथ और संक्रमण के विरुद्ध सक्रिय होता है। पश्चिमी शोधकर्ताओं ने दावा किया है ऑपेरा संगीत सुनने से शोथ में कमी होती है। सोच रहा हूं कि इसका भारतीय समकक्ष क्या होगा।
संगीत का चौथा दायरा सामाजिक सम्बंध का है। समूह गायन, किसी गीत के साथ मार्च पास्ट, सामूहिक नृत्य आदि इसके उदाहरण हैं। देखा गया है कि इस तरह की सामूहिक गतिविधि में मगन कुछ वालंटियर्स में दो पेप्टाइड हार्मोन (ऑक्सीटोसीन और वैसोप्रेसीन) में वृद्धि होती है। यही वे हार्मोन हैं जो मां-बच्चे के बीच बंधन, उच्चतर प्रेरणा वगैरह में शामिल होते हैं। युगल गीत इसके उदाहरण हैं।
इन अध्ययनों से शोध के लिए कई सवाल उठते हैं। क्या संगीत गाना-बजाना उसी तरह का प्रभाव डालता है जैसे उसे सुनना? और क्या कोकैन या एल्कोहल की तरह संगीत की भी लत लगती है? संगीत या नृत्य चिकित्सा की व्याख्या कैसे की जाए? ये सभी चिकित्सा और मनोविज्ञान शोध के लिए रोमांचक चुनौतियां हैं। (स्रोत फीचर्स)