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Cover Illustration by Dilip Chinchalkar
कवर - इस बार का कवर-चित्र बच्चे-बड़ों सभी को अपना-सा लगेगा। दीवार पर हमारी ही पतंग है जो अब टँग गई है। चारपाई पर बस्ता रखा है। अगर शीशा भी हमारी तरह कुछ ऊँचा गया होता तो उसमें झाँकने के लिए यूँ झुकना न पड़ता। और न ही जूतों में पाँव समाने की मशक्कत होती। चारपाई के नीचे हैरानी से झाँक रहा कुत्ता शायद सोच रहा है कि आज अचानक क्या हो गया? कितने रोज़ से तो सब अभी तो सोए रहते थे या खेलते दिखते थे - आज कहाँ के लिए तैयार हो रहे हैं। खिड़की पे बैठी चिड़िया क्या सोच रही होगी? सोचो...

और यह खूबसूरत चित्र दिलीप चिंचालकर की कूची से निकला है। इसके रंगों को देखो। क्या रंगों को आकार व आकृति से अलग करके देखा जा सकता है? पाठक कहते हैं कि इसके रंग बहुत खुशबाश हैं। क्या कोई रंग है जो उदास है? क्या यह सम्भव है कि अलग-अलग समय और परिस्थिति में देखने पर एक ही रंग हमें अलग-अलग एहसास देता है। और रंग से आकृति को खाली करके देखो। वह अपने कैनवास में डूब जाएगी। चित्रकार के लिए चित्र भले ही समय में खुलता है। यानी वह पहले चित्र का एक हिस्सा बनाता है, फिर दूसरा, फिर तीसरा...और इस तरह एक पूरा चित्र बनता है। पर पाठक के लिए वह एक ही समय में खुलता है। चित्रकार का काफी वक्त इसे सम्भव करने में लगा होगा। जब हम किसी चित्र को देखते हैं तो हम उस व्यक्ति के उस समय को भी देख पाते हैं जो उसने एक कैनवास पर हमारे लिए रोक लिया है।

Index - A poem “Titali gayi school” by Dhruv Shukl
इस कविता की कल्पना कीजिए। फिर इसे इस अर्थ में पढ़िए कि फूल कैसे थे?
पीले फूल पर पीली तितली बैठी.... जैसे फूल। क्या तुम इसे चित्रित करना चाहोगे?
क्या सचमुच इस घटना में कोई तितली थी। या किसी फूल को देखकर कवि को लगा कि फूल फूल के ऊपर बैठी तितली जैसा था और फिर जल्द ही कवि को पता चल गया कि वह फूल ही था। जो कल्पना की तितली थी वह उड़ गई। फिर बच्चा अपनी उसी कल्पना के साथ स्कूल चला गया।

Boli Rangoli - A column on children’s Illustration on Gulzar’s couplet
इस बार बोली रंगोली की पंक्ति थी -
पग पग पग पग करते-करते
पूरे पहाड़ पर चढ़ती है
एक तरफ से बढ़ती है और
एक तरफ से घटती है
ये पंक्तियाँ पगडण्डी के बारे में हैं। कई बच्चों ने इसे इसी अर्थ में बूझा है। कुछ ने इसे अलग तरह से भी समझा है। जैसे दो बच्चों ने इसे आसमान पर न दिखने वाली पगडण्डी के रूप में बूझा है। पर हाँ, उन पगडण्डियों पर चल रहे चाँद और सूरज उसका पता बता ही गए। इस बार बच्चों ने हमें जाने कहाँ-कहाँ की पगडण्डियों की सैर करा दी। शिलॉग की पगडण्डियों के दोनों और कहीं धान लहलहा रही थी, कहीं पेड़ रस्ते को छाँव की आड़ दे रहे थे। कहीं-कहीं तो बिजूके अपना काम छोड़ रस्तों से बतियाने आ गए थे। जंगलों की पगडण्डियाँ बड़ी बातूनी थीं। कभी न खत्म होने वाली कहानियों सरीखी खुद को और बढ़ाने में व्यस्त थीं। हमने खूब सारे पहाड़ों की भी सैर की। कहीं चींटी बन, कहीं हवा-बादल बन। पहाड़ भी कितने अलग-अलग थे - कहीं पथरीले, कहीं खेतों, पेड़ों की हरियाली से सराबोर। कहीं इतने रंगीन मानो इन्द्रघनुष से रंग उधार लाए हों। और उधर आसमान पर भूरा-हरा इन्द्रघनुष मुस्करा रहा हो...
शुक्रिया सबका जिन्होंने हमें इतना सब घूमने का मौका दिया।

Shankar’s weekly - A story “Dosti” by 14 years old Annie Moore, Newfoundland, Illustration by Taposhi Ghoshal
शंकर के बनाए कार्टून जाने कितने सालों तक जाने कितने लोगों के लिए अखबार में पढ़ी जानेवाली पहली चीज़ रहे होंगे। एक पीढ़ी उसे पढ़ते-देखते-उसपर सोचते-विचारते बड़ी हुई है। पर हममें से कम ही लोग जानते होंगे कि उन्होंने 1955 में एक बड़ा महान काम किया था। उन्होंने 56 देशों के बच्चों की 2000 से ज़्यादा कृतियों को इकट्ठा किया। और 1956 में प्रकाशन विभाग ने पहले तो बेहतरीन चित्रों की किताब प्रकाशित की और फिर चयनित रचनाओं को प्रकाशित किया। चिल्ड्रन राइटिंग नामक इस किताब से हम चकमक के अगले कुछ अंकों में चुनिन्दा रचनाएँ छापेंगे। इस अंक में इसी किताब से दोस्ती नामक एक कहानी शाया की है…
हिन्दी के एक जाने-माने आलोचक कहते हैं कि एक बड़ी रचना में या तो त्रासदी होती है या संघर्ष होता है। कुछ लेखक कहते हैं कि इसमें उदात्ता भी जोड़ दें तो बात पूरी हो जाती है। यह कहानी त्रासदी भी है और उदात्ता भी कहती है। और उस पर तापोषी घोषाल का सुन्दर, भावपूर्ण चित्रण एक और कथा कहता चला जाता है...

Haji-Naji - Fun Stories by Swayam Prakash, Illustrations by Atanu Roy
कहानीकार स्वयंप्रकाश द्वारा किए जा रहे इस हास्य कॉलम में इस बार दो बेहद मज़ेदार चुटकियाँ पेश हैं। हास्य में भी भाषा अपने तमाम छरहरेपन के साथ आती है। छोटे बच्चों के लिए इसे खासतौर पर दिलचस्प पाया गया है।
अतनु राय के बनाए चित्र इस मज़े को थोड़ा और बढ़ा देते हैं। यहाँ चित्र ऐसे आते हैं जैसे कहानी के ही बारे में थोड़ा और बताने कोई और व्यक्ति आ गया हो।

Bijali Jhapakne ke beech - An article by Kumar Ambuj
1945 में नाजी सेना की पराजय के बाद एक सामूहिक कब्र खोदी गई। वहाँ अनगिनत लाशों के ढेर थे। इन अनगिनत लाशों में एक लाश ऐसी भी थी जिसकी जैकेट की अन्दर की जेब में एक डायरी थी। कविताओं से भरी डायरी। यातनाशिविर की कठोर यातनाओं के समय में उपजी ये कविताएँ उम्मीद, करूणा और जिजीविषा से ओतप्रोत थीं। यह शायद 35 साल के मिक्लोश राद्नोती के प्रतिरोध का, अपने समय की गवाही लिखने का अपना तरीका था। एक अत्यंत मार्मिक लेख।

Ishara - An article on Sign language by Indrani Roy
भाषा विज्ञानी इंद्राणी रॉय ने इस बार भाषा के इस कालम में इस बात पर विचार किया है कि इशारों की भाषा यानी साइन लैंग्वेज आखिर क्या होती है। और यह उतनी ही मुकम्मिल होती है जितनी बोली जाने वाली भाषाएँ।

Aasmaan Ki Safaai - A poem by Mohit Kataria, Illustrations by Shobha Ghare
चाँद हमसे बहुत-बहुत दूर है - पर वो हमें दिखता है। यह अजब दूरी है जो न दिखने के आड़े आती है, न उसे घर बुलाने के न्योते को बेबुनियाद बनाती है। मोहित कटारिया की यह कविता कल्पनाओं की पींग पर रची है... एक बार तो इसकी उछाल से हमारे पाँव आसमान छूने लगते हैं पर दूसरी ही पींग में वो ज़मीन छूते हैं ताकत पाते हैं और फिर आसमान की ओर बढ़ जाते हैं।
साथ में हैं शोभा घारे के खूबसूरत चित्र.. जो उनके अन्दाज़ से एकदम हटके हैं।

Mera Panna - Children’s Creativity column
हर बार की तरह बच्चों की लिखी कुछ कथाएँ-कविताएँ तथा उनके बनाए चित्र।

Panchi Ka kaam Pehalwaan se bhi na hoye - A memoir by Dilip Chinchalkar
एक छोटी-सी आम-सी घटना। बगीचे में एक फाख्ता के बच्चे का मिलना। माँ का कहीं नज़र न आना और किसी भी संवेदनशील मन की तरह लेखक का उसे ज़िन्दा रखने की कवायद में जुट जाना। इसमें कुछ भी अचम्भित करनेवाला या अनहोना-सा नहीं है। तमाम कोशिश के बाद जब लेखक उसे खिलाने पिलाने में सफल नहीं हो पाता तो उसे नज़र आती है एक छोटी-ती चीज़। वो नन्ही सी बीट ही थी जिसने जीवन के मर्म पर कितना कुछ कह डाला - कि दुनिया शायद जीने की एक बहुत बेहतर जगह बन जाए अगर बस इंसान का गुमान ज़रा कम हो जाए। दिलीप चिंचालकर के फोटो से सजा उन्हीं का एक बेहद रोचक संस्मरण।

Mary Kom ki Kahani - A Excerpt from “Meri kahani”
दुनिया ने उन्हें तभी जाना जब ऑलम्पिक की मुक्केबाज़ी की प्रतियोगिता में उन्होंने कांस्य पदक हासिल किया। पर मैरीकॉम का बनना तो तभी से शुरू हो गया था जब मणिपुर के एक छोटे से गाँव में वो बेहद गरीबी में अपना बचपना जी रही थीं। जब स्कूल के उनके एकमात्र जूतों के बार-बार फटने पर वो गरम चिमटे से उसे बार-बार जोड़ देती थीं। इतनी छोटी उम्र में ही वो शायद जान गई थीं कि मुश्किल वक्तों को उन्हें इसी तरह अपने हौंसलों को बार-बार उधड़ने से बचाते रहना है।
एक बेहद रोचक, मर्मस्पर्शी, बेबाक किताब जिसे हर किसी को ज़रूर पढ़ना चाहिए।

Taad ka ped - A poem by Anamitra Roy, Illustrations by Shobha Ghare
ये ताड़ का पेड़ है कि सूरज-चाँद-तारों-रात के खेल का मैदान! ये सूरज-चाँद-तारे-रात हैं कि ताड़ के पेड़ के साथी जो ज़रा में पास आ उसका मन बहला जाते हैं और अपनी शरारतों से उसे चौंका भी जाते हैं। एक बेहद सुन्दर कविता और उसका उतना ही सुन्दर अनुवाद।

Meetha Santara - A memoir by Ramesh Billore, Illustrations by Nargis Sheikh
स्मृतियाँ कहाँ बसती हैं - हमारी आँखों में, दिमाग में, मन में या पूरे शरीर में? किसी मोड़ से गुज़रते हुए आया खुशबू का एक झौंका हमें बरसों पहले के किसी एक पल में ले जाता है। हम तो समझे थे कि वो पल कब का बीत चुका था। उसमें कुछ भी तो ऐसा खास नहीं था कि याद रह जाता वो फिर कैसे हल्की-सी इक खुशबू उसे ढूँढ लाई। नहीं उसे ढूँढना भी नहीं पड़ा। वो तो बस तैयार खड़ा था वापस आने के लिए। स्मृतियाँ सच में कहाँ बसती हैं??? शिलांग में बरसों पहली घटी एक घटना को लेखक एक बार फिर घटते देखता है। वो खुद उसका एक पात्र है। पर दूसरे पात्र को यह दुनिया छोड़े सालों बीत गए। पर वो घटना फिर से हू ब हू उसी तरह बीतती है जैसे 20 साल पहले बीती थी। यकीनन यह संस्मरण सभी पाठकों की न जाने कितनी स्मृतियों को झंकृत कर जाएगा।

Mera Naam Abdul Hai - A short story by Md.Arshad Khan, Illustration by Atanu Roy
आइडेंटिटि यानी अस्मिता एक बड़ी चीज़ है। शायद उसी से हमारा होना है। पर हमारे देश के कितने ही लोगों को यह नसीब नहीं। यह उनके होने को नकारने जैसा है। महिलाएँ, दलित और कुछ हद तक बच्चे भी शायद इस श्रेणी में आते हैं। मोहम्मद अरशद इस छोटी-सी कहानी से हास्य उत्पन्न करते हैं। पर यह हास्य एक शून्य की तरफ इशारा है जो जाने कितने जीवनों पर पसरा है।

Mathapacchi - Brain teasers
जूझने के लिए कई सवाल। और कुछ पहेलियाँ। कुछ शब्दों के खेल।
पहेलियाँ बूझना मज़ेदार काम है। और इन्हें बनाना उससे भी मज़ेदार काम। इसमें कम कसरत नहीं है।

Poetry orientation column - A poem by Rajesh Joshi and its explanation by Naresh Saxena
कविता खिड़की: इस कॉलम में हर बार किसी न किसी कविता के सहारे कविता की अंदरूनी दुनिया में उतरते हैं। इस बार एक बेहद सरल सी लगने वाली कविता में प्रवेश की कोशिश की गई है। इस बार खास बात यह है कि एक पाठक की व्याख्या के साथा-साथ खुद कवि की टिप्पणी भी प्रस्तुत की गई है। यानी कविता कैसे कवि तक पहुँची और फिर वह एक पाठक तक कैसे पहुँची।
इस बार की कविता है ताला सुधारनेवाला। राजेश जोशी की इस कविता पर नरेश सक्सेना की टिप्पणी है। हमारे जीवन में मोची, नाई, बिजली ठीक करनेवालों, नल ठीक करने वालों को अकसर सर्विस प्रोवाइडर यानी हमें सुविधाएँ उपलब्ध करानेवालों के रूप में देखा जाता है। तालासुधारने वालों को भी यही दर्जा प्राप्त है। हम इनके हुनर के कायल तो होते ही हैं पर सिर्फ उतनी देर के लिए जब हमें उनकी ज़रूरत होती है। उसके अलावा हमारी ज़िन्दगी में उनका कोई मोल नहीं। पर क्या यह काफी है? हमारी ज़िन्दगी में कितने ही ताले बेकार चले जाते अगर उनकी चाबी न होती। चाबी न तो ताले का क्या मोल। कबाड़ी में जाने लायक शय बन जाती वो अगर एक चाबी न होती। क्या हम कभी उन्हें इस नज़र से देख पाएँगे कि हमारी ज़िन्दगी के जाने कितने तालों को बरबाद होने से बचाया है उन्होंने? क्या एक चाबी के बदले सिर्फ उन्हें 10-20 रुपए चुकाकर हम फारिग हो सकेंगे...

Aminichechi ki Bakri - A short story by class 4thstudent Hiba K.Abdulla from Kerala, Illustration by Kanak
सुदूर केरल की एक छोटी-सी बच्ची अपना दिल खोल रही है। एक बकरी के बहाने वो हमारे समाज, उसमें फैले अकेलेपन, प्रेम, टूटन पर हमसे बात कर रही है। सुन रहे हैं न आप....

Dadhiwale Kissan - An article by Muriel Kakani on how tribes of Orissa manages in famine
लगता है हमारी कई समस्याएँ चार अक्षरों के पढ़ने ने बढ़ा दी हैं। इन अक्षरों से हमें हमारे आसपास से, और खुद से भी दूर कर दिया है। शायद हम ढ़ाई अक्षरों पर अगर रुक गए होते तो दुनिया जीने का एक कहीं बेहतर ढंग लेकर हमारे सामने आती। और इन ढाई अक्षरों की खूबसूरती यह है कि इनमें थाह पा जाते तो चार अक्षर अपने ज़्यादा ग्राह्र रूप में हमारे सामने आते। चार अक्षर हमें तब दम्भी बनाने से बचा सकते थे। म्यूरियल काकानी बेलजियम
की हैं। और सालों से हमारे देश के सुदूर गाँवों में घूम-घूम के लोगों से ढाई अक्षर की बोली में बात करती हैं। कभी वो कुम्भलगढ़ राजस्थान के ऊँट पालने वालों के यहाँ मेहमान बनती हैं, कभी उत्तराखण्ड के पहाड़ी गाँवों में डेरा डाल देती हैं। और हर बार वो हमारे लिए एक नायाब तोहफा लाती हैं। वहाँ के लोगों से, उनके जीवन से ताररुफ कराती हैं। इस बार उड़ीसा के आदिवासी इलाकों में वो हमें ले जाती हैं और बताती हैं कि भयानक अकाल के समय में भी कैसे वो अपनी सारी ज़रूरतें स्थानीय संसाधनों से पूरी कर लेते हैं। और इस तरह की वो खत्म भी न हों औऱ ज़रूरतें पूरी भी हो जाएँ। और उन्हें इसका कोई गुमान नहीं। वो तो इसे ही जीने का ढंग मानते हैं। चार अक्षरों ने हमसे कितना कुछ छीन लिया है यह हम कब समझेंगे…

Bhand se Bhandari - A journey of a word by Ibbar Rabbi
शब्दों का एक रोचक सफर जिसपर आप ज़रूर चलना चाहेंगे।

Darpan ki duniya - An article on mirrors by Vivek Soley
दर्पण हमें हमीं से मिलाता है। सोचिए हम जो हमेशा खुदी के साथ रहते हैं, खुद को देख तभी पाते हैं अगर दर्पण हमारे सामने है। दर्पण हमें अकेला नहीं महसूस कराता। पर हमें दिखाने में दर्पण ज़रा-सा खेल कर जाता है। वो हमें बस थोड़ा सा अलग दिखाता है। बस इतना ही अलग जिससे पहचाने में कोई दिक्कत नहीं होती। विवेक सोले इस लेख में बेहद रोचक तरीके से हमें दर्पण की दुनिया की चीज़ों से मिलवाते हैं।

Jab maine painting chalu ki - How Ambadas Khobargade started painting
पानी में बहते तेल में बहते सात रंगों की झिलमिल छटा। सड़कों पर बहती इस छटा को अपनी पेंटिंग की शैली ही बना देना कितना अद्भुत विचार है। इसमें कोई फिक्स्ड आकार नहीं, साइज़ नहीं, कोई तयशुदा रंग नहीं... क्या यह ज़िन्दगी ही तो नहीं...

Chitrapaheli
चित्रों के सुरागों को बूझकर किसी शब्द तक पहुँचना और पहेली भरना।

Bhatta - A touching poem by Ajay, a class-5th student, Illustration by Anupam Roy
पाँचवीं का अजय र्इंट-भट्टा में काम करनेवालों के बच्चों के लिए बने स्कूल में पढ़ता है - अपना स्कूल। आईआईटी कानपुर के कर्मचारियों और छात्रों द्वारा यह स्कूल चलाया जाता है।
भट्टा उनका जीवन है। औऱ वो अपने जीवन पर काबिज़ होते बाबू को देख रहे हैं।
मज़दूर भाई काम करे हैं सारा
बाबू पैसा मारे हमारा
यह भट्टा है कैसा
जब चले तो लगता घड़ी जैसा
इस कविता को पढ़ने के बाद हम बच्चों को कोरी स्लेट कहने से पहले ज़रूर झिझकेंगे...