ब्रिस्टल विश्वविद्यालय, ब्रिटेन की जूली डन के नेतृत्व में युरोप के  पुरातत्वविदों की एक टीम ने काफी दिलचस्प रिपोर्ट प्रस्तुत की है। “Milk of ruminants in ceramic baby bottles from prehistoric child graves” (बच्चों की प्रागैतिहासिक कब्रों में सिरेमिक बोतलों पर जुगाली करने वाले जानवरों के दूध के अवशेष) शीर्षक से यह रिपोर्ट नेचर पत्रिका के 10 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित हुई है। इस टीम को बच्चों की प्राचीन कब्रों में शिशुओं की कुछ बोतलें मिली है जिनमें कुछ अंडाकार और हैंडल वाली हैं और कुछ बोतलों में टोंटी जैसी रचना है जिसके माध्यम से तरल पदार्थ को ढाला या चूसा जा सकता था। सबसे पुरानी बोतल युरोपीय नवपाषाण युग (लगभग 10,000 वर्ष पहले) की है जबकि अन्य बोतलें कांस्य और लौह युग (4000-1200 ईसा पूर्व) स्थलों से पाई गई हैं।       
नेचर की इस रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात और है। सिरेमिक से बनी शिशु बोतलों के अंदरूनी हिस्से पर कुछ कार्बनिक रसायन के अवशेष चिपके मिले जिनका विश्लेषण संभव था। टीम ने उन अवशेषों को अलग करके नवीनतम रासायनिक और वर्णक्रमदर्शी विधियों की मदद से उनमें उपस्थित अणुओं का विश्लेषण किया। सभी अवशेषों में वसा अम्ल (जैसे पामिटिक और स्टीयरिक अम्ल) पाए गए जो आम तौर पर गाय-भैंस, भेड़ या अन्य पालतू जानवरों के दूध में तो पाए जाते हैं लेकिन मानव दूध में नहीं। इस आधार पर टीम का निष्कर्ष है कि “रासायनिक प्रमाण और बच्चों की कब्रों में पाए गए विशेष रूप से बने तीन पात्र दर्शाते हैं कि इनका उपयोग शिशुओं और पूरक आहार के तौर पर बच्चों को (मानव दूध की बजाय) पशुओं का दूध पिलाने के लिए किया जाता था।”     

               
पशु दूध की शुरुआत
उपरोक्त शोध पत्र में राशेल हॉउक्रॉफ्ट और स्टॉकहोम युनिवर्सिटी, स्वीडन की पुरातात्विक अनुसंधान प्रयोगशाला के अन्य लोगों द्वारा पूर्व में प्रस्तुत एक दिलचस्प रिपोर्ट “The Milky Way: The implications of using animal milk products in infant feeding” (दुग्धगंगा: शिशु आहार में जंतु दुग्ध उत्पादों के उपयोग के निहितार्थ) का उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका जर्नल में प्रकाशित हुई है [47-31-43 (2012)], जो नेट से फ्री डाउनलोड की जा सकती है। मेरी सलाह है कि इस विषय में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें। प्रसंगवश बताया जा सकता है कि एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका का अर्थ होता है मनुष्यों और अन्य जंतुओं के बीच अंतरक्रिया का अध्ययन।
मानव शिशुओं को पशुओं का दूध पिलाने की प्रथा जानवरों के पालतूकरण के बाद ही शुरू हुई होगी। पालतूकरण की शुरुआत तब हुई होगी जब मनुष्यों ने समुदाय में बसना शुरू किया तथा कृषि एवं अन्य कामों के लिए पशुओं का उपयोग करना शुरू किया। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत लगभग 12,000 वर्ष पहले नव-पाषाण युग में हुई थी; सबसे पहले मध्य-पूर्व में और उसके बाद पश्चिमी और मध्य एशिया तथा युरोप के कुछ हिस्सों में। सामुदायिक जीवन, कृषि और खेती की शुरुआत के बाद से कुत्ते, मवेशियों, बकरियों, ऊंटों (बाद में घोड़ों) को पालतू बनाकर उनको मानवीय ज़रूरतों के लिए उपयोग में लाया गया। उस समय मनुष्य शिकारी-संग्रहकर्ता हुआ करते थे और शिशुओं को दो वर्ष की आयु तक सिर्फ मां का दूध ही पिलाया जाता था।       
नव-पाषाण युग ने मानव व्यवहार को बदल डाला। संतानों की संख्या में वृद्धि हुई, महिलाओं के कार्य करने के तरीकों में बदलाव आए तथा शिशुओं में मां का दूध छुड़ाने की प्रक्रिया भी जल्दी होने लगी। जैसा हॉउक्रॉफ्ट और उनके सहकर्मियों का तर्क है, इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय तक मानव शिशुओं को पूरक भोजन के रूप में पशु का दूध दिया जाने लगा था। इसने माताओं को अपनी प्रजनन रणनीति को बदलने में भी समर्थ बनाया (कितने बच्चे, कितने समय में पैदा करें और कितनी जल्दी दूध छुड़ाएं)। 
हमने कुत्तों को लगभग 10,000-4400 ईसा पूर्व के आसपास, गाय और भेड़ों को लगभग 11,000-9000 ईसा पूर्व, ऊंटों तथा घोड़ों को लगभग 3000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया। हालांकि ऊपर बताए गए जीवों में से हम केवल गायों, बकरियों और भेड़ों के दूध का उपयोग करते हैं लेकिन अफ्रीकियों द्वारा ऊंटनी के दूध का भी उपयोग किया जाता था। दूध के लिए जुगाली करने वाले जीवों को पसंद करना वास्तव में आज़माइश और उपयुक्तता के अनुभव से आया है। जुगाली करने वाले प्राणियों में गाय-भैंस, भेड़, बकरी और ऊंट आते हैं। इनका पेट अलग-अलग भागों में बंटा होता है, जिसमें भोजन जल्दी से निगल लिया जाता है और बाद में जुगाली के बाद प्रथम आमाशय में जाता है जो इन जीवों का मुख्य पाचन अंग है। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमने कभी कुत्तों या घोड़ों के दूध का उपयोग नहीं किया है - पता नहीं क्यों?


जुगाली पशुओं का दूध
हॉउक्रॉफ्ट और उनकी टीम ने अपने पेपर में मानव और जुगाली करने वाले जीवों के दूध के संघटन की तुलना की है। मानव की तुलना में भेड़ के दूध में उच्च ठोस घटक होता है: कम पानी, कम कार्बोहाइड्रेट, अधिक प्रोटीन तथा लिपिड और भरपूर उर्जा। जहां उच्च प्रोटीन युक्त दूध बोतल से दूध पीने वाले शिशुओं में तेज़ विकास में मदद कर सकता है, वहीं यह एसिडिटी और अतिसार का कारण भी बन सकता है। भेड़ की तुलना में गाय के दूध में प्रोटीन और वसा की मात्रा थोड़ी कम होती है (हालांकि, मानव दूध की तुलना में तीन गुना अधिक होती है), फिर भी यह भेड़ के दूध के समान लक्षण पैदा कर सकता है। इसके साथ ही जुगाली करने वाले जीवों के दूध में कुछ ऐसे एंज़ाइम की कमी होती है जो मानव दूध में पाए जाते हैं। ये एंज़ाइम संक्रमण से लड़ने और ज़रूरी खनिज पदार्थों को अवशोषित करने में मदद करते हैं। कुछ सुरक्षात्मक और हानिकारक अंतरों के साथ, मानव दूध के स्थान पर पूरी तरह जुगाली-जीवों के दूध का उपयोग करने की बजाय इनका उपयोग पूरक के तौर पर करना बेहतर है। इसी चीज़ को शुरुआती मनुष्यों ने कर-करके सीखा होगा। इसी के आधार पर उन्होंने ‘फीडिंग बोतल’ और चीनी मिट्टी के पात्र बनाने तथा उपयोग करना शुरू किया होगा।    
शोधकर्ता आगे बताते हैं कि दूध से दही बनाकर इसे संरक्षित किया जा सकता है। यह लैक्टोज़ की मात्रा कम करता है और पाचन में मदद करता है। इसके पीछे एंज़ाइम लैक्टेज़ की भूमिका है। उनका निष्कर्ष है कि “प्रागैतिहासिक शिशुओं के लिए यह दुग्धगंगा शायद इतनी अच्छी न रही हो, लेकिन दही उनके लिए और लैक्टेज़ एंज़ाइम के प्रसार के लिए अच्छा रहा होगा।” 
गौरतलब है कि वसंत शिंदे और पुणे के कुछ सहयोगियों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता के स्थानों का व्यापक सर्वेक्षण किया था। उन्होंने 2500 ईसा पूर्व के कालीबंगन के हड़प्पा स्थल से सिरेमिक फीडिंग बोतल के ठोस सबूत पाए थे। हड़प्पावासियों ने भी अपने बच्चों को जानवरों के दूध का सेवन करवाया था। लेकिन वह पशु कौन-सा था? यदि हम इन बोतलों से कोई अवशेष प्राप्त करके अपनी प्रयोगशालाओं में विश्लेषण करने में कामयाब होते हैं तो यह काफी रोमांचक होगा। (स्रोत फीचर्स)