मनीष वैद्य

मध्य प्रदेश में शुरुआती बारिश अच्छी होने और दूर-दूर तक घास के मैदान बन जाने से इस बार लुप्तप्राय प्रवासी पक्षी खरमोर (लेसर फ्लोरिकन) बड़ी संख्या में यहां पहुंच रहे हैं। बीते कुछ सालों से अल्पवर्षा और सूखे की वजह से यहां हर साल पहुंचने वाले प्रवासी खरमोर पक्षियों की तादाद तेज़ी से घटती दिखाई देने लगी थी। मध्य प्रदेश के ग्वालियर, श्योपुर, रतलाम, झाबुआ, व धार ज़िले की आबोहवा और यहां के बड़े घास के मैदान हज़ारों मील दूर रहने वाले इन पंछियों को काफी पसंद हैं कि वे यहां हर साल पहुंचते हैं। मगर इन पक्षियों को इस मौसम के अलावा यहां कभी नहीं देखा गया है।
खरमोर का आकार साधारण मुर्गी की तरह होता है पर देखने में यह उससे सुंदर लगता है। यह बड़े डील-डौल का लम्बी टांगों वाला पक्षी है। इसे चीनीमोर, खर तीतर या केरमोर भी कहते हैं। इसके नर और मादा काफी एक जैसे दिखते हैं। इसका सिर, गर्दन और नीचे का भाग काला और ऊपर का हिस्सा हल्का सफेद या चकत्तेदार होता है। इसके पंख भी सुंंदर होते हैं। प्रणयकाल में नर चमकीले काले रंग का हो जाता है।
खरमोर घास, कोमल पत्ते, पौधों की जड़ें, टिड्डे और अन्य कीड़े-मकोड़े खाता है। सुंदर सुराहीदार गर्दन और लम्बी पतली टांगों वाले खरमोर की ऊंची कूद देखने लायक होती है। मादा को आकर्षित करने के लिए नर एक बार में 400 से 800 बार तक कूदता है।
जुलाई के आखरी पखवाड़े से मध्य अक्टूबर तक सोनचिरैया परिवार के ये पक्षी मध्यप्रदेश के जंगलों में मेहमान बनकर आते हैं और फिर वापिस उड़ जाते हैं अपने देस को। ये खास तौर से यहां प्रणय के लिए ही आते हैं।

इन प्रवासी पक्षियों को देखने के लिए यहां बड़ी तादाद में लोग जुटते हैं। ये बहुत शर्मीले होते हैं और ज़रा-सी आहट पाते ही उड़ जाते हैं। यहां पहुंचने के करीब महीने भर बाद मादा खरमोर अंडे देती है और नर-मादा दोनों उन्हें सहेजते हैं। सात दिन बाद इन अण्डों से बच्चे निकल आते हैं। बर्ड लाइफ इंटरनेशनल ने 1994 में प्राप्त आंकड़ों के आधार पर इनकी वैश्विक आबादी 2200 बताई थी जबकि अकेले भारत में लगभग सवा 4 हज़ार बताई जाती है। अब सरकार के साथ आसपास रहने वाले किसान भी खरमोर को बचाने के लिए आगे आ रहे हैं।    
ये दुर्लभ पक्षी लुप्तप्राय प्रजाति के हैं, इसलिए सरकार भी हर साल बड़े पैमाने पर तैयारियां करती है, ताकि इनकी तादाद बढ़ सके। बीते कुछ सालों के आंकड़े बताते हैं कि इनकी संख्या लगातार घट रही थी। लेकिन इस बार शुरुआती मानसून में ही अच्छी बारिश होने से घास के मैदान हरे-भरे हो गए तो सैलानी खरमोर बड़ी तादाद में पहुंच रहे हैं।

ये पक्षी मानसून के दौरान मध्यप्रदेश के कुछ खास जंगलों में कहां से आते हैं और वापिस कहां चले जाते हैं, यह फिलहाल तक पक्षी विज्ञानियों के लिए शोध और उत्सुकता का विषय रहा है। अब इसका पता लगाने के लिए रेडियो चिप का सहारा लिया जा रहा है। देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान इनके प्राकृतिक रहवास को लेकर शोध कर रहा है। बीते साल भी संस्थान के वन्यजीव वैज्ञानिक और पक्षी विज्ञानी यहां आए थे। इस बार फिर अक्टूबर में दल प्रदेश के चिन्हित स्थानों पर खरमोर पर नज़र रखेगा। बीते साल 3 पक्षियों को रंगीन छल्ले पहनाए गए थे। अब इन छल्लेदार पक्षियों को ढूंढा जाएगा। प्रदेश में आने वाले खरमोरों को रेडियो चिप लगाई जा रही है। इसकी मदद से इनके प्रवास की स्थिति, प्रवास मार्ग, भौगोलिक स्थिति और अन्य जानकारियां हासिल की जा सकेंगी। तब यह पता चल पाएगा कि ये मानसून के अलावा बाकी समय कहां रहते हैं।
दरअसल खरमोर सामान्यतया 20 से.मी. ऊंची घास के सघन मैदानों में अपना प्रजनन काल बिताने यहां आते हैं। इनके रहवास और घास मैदानों का भी अब विशेष तौर पर अध्ययन किया जा रहा है। इस अध्ययन में बैंगलुरु का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस भी शामिल है। इसके आसपास के 100 वर्ग कि.मी. क्षेत्र का सेटेलाइट मानचित्र भी तैयार किया गया है।

इंस्टीट्यूट में पारिस्थितिकी शोध छात्र चैतन्य कृष्णा बताते हैं कि खरमोर के अलावा ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, बंगाल ब्लैकबर्ड आदि कई पक्षी घास के मैदानों में ही रहते हैं। उक्त अध्ययन से यह आकलन भी हो सकेगा कि वास्तव में घास के लिए अब धरती पर कितनी जगह बची है। अब यह ज़रूरी होता जा रहा है कि जंगल की तरह हम घास के मैदानों के संरक्षण की भी सुध लें। कृष्णा ने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए बताया कि 6 हैक्टर घास मैदानों के अध्ययन में पता चला है कि इस पर 160 प्रकार के जीव और वनस्पतियां निर्भर हैं।    
करीब तीन दशक पहले प्रसिद्ध पक्षी विज्ञानी डॉ. सालिम अली ने जब रतलाम से करीब 30 कि.मी. दूर सैलाना के पास पहली बार खरमोर को देखा तो वे चहक उठे। वे कहा करते थे कि खरमोर हमारे लिए प्रकृति का एक बेशकीमती तोहफा है। बाद में उन्हीं की पहल पर सरकार ने यहां खरमोर के प्रवास काल को सुखद बनाने के लिए विशेष अभयारण्य बनाया।
म.प्र. सरकार ने सैलाना में 14 जून 1983 को खरमोर अभयारण्य के लिए साढ़े आठ सौ हैक्टर से ज़्यादा वन भूमि और करीब साढ़े चार सौ हैक्टर कृषि भूमि अधिग्रहित की थी। यह पूरा इलाका खेतों और ऊंची-नीची घास की बीड़ों से आच्छादित है। यहां का वन अमला मानसून के साथ ही खरमोर के आने का इंतज़ार करने लगता है। खरमोर या उनके अंडे देखे जाने की सूचना देने वाले किसानों को नगद धन राशि का इनाम दिया जाता है। खरमोर को बाधा न पहुंचे, इसके लिए यहां के किसान नवम्बर तक घास नहीं काटते।   

अकेले सैलाना खरमोर अभयारण्य के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2005 से 2012 के बीच प्रति वर्ष 20--35 खरमोर ही सैलाना पहुंचे थे। बीते दो सालों में तो इनकी तादाद घटकर दर्जन के आसपास ही सिमट गई थी। इससे वन्यजीव प्रेमियों की चिंताएं बढ़ गई हैं।
वन्यजीव प्रेमी अजय गडीकर बताते हैं कि इस बार भी सैलाना में खरमोर आना शु डिग्री हो चुके हैं। अब धार-झाबुआ ज़िलों में इनके पहुंचने की उम्मीद है। ग्वालियर के घाटीगांव और श्योपुर के कूनो अभयारण्य में भी ये देखे जाते हैं।   
सैलाना के बाद धार ज़िले के सरदारपुर में करीब 9 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में तथा झाबुआ ज़िले के पेटलावद में भी विशेष अभयारण्य बनाए गए हैं। यहां 14 गांवों के 30 हज़ार किसान अपनी 13 हज़ार हैक्टर ज़मीन पर खेती तो कर सकते हैं लेकिन इसे न बेच सकते हैं और न कोई निर्माण कर सकते हैं। सरदारपुर में अब ढाई सौ वर्ग मीटर क्षेत्र को इको सेंसिटिव ज़ोन में बदला जा रहा है। यहां बारिश के पानी को रोका जाएगा और जल संरक्षण की कई तकनीकें इस्तेमाल की जाएंगी। जैविक खेती और सौर ऊर्जा को बढ़ावा दिया जाएगा। लकड़ी काटना पूरी तरह से प्रतिबंधित होगा तथा किसी तरह का निर्माण नहीं हो सकेगा। पेटलावद में भी करीब 90 लाख रुपए खर्च कर घास के बड़े मैदान बनाए गए हैं। यहां 2009 में आखरी बार खरमोर देखे गए थे।

खरमोर पर विशेष अध्ययन करने वाले प्राणी शास्त्री डॉ. तेजप्रकाश व्यास बताते हैं कि खरमोर के कम आने की वजह अभयारण्य क्षेत्रों के आसपास खेती में भारी मात्रा में रासायनिक खाद और कीटनाशकों का उपयोग है। इनके सतत इस्तेमाल से खरमोर के खाद्य कीटों पर भी बुरा असर हो रहा है। खेतों में बढ़ती आवाजाही भी इनके एकान्त में खलल पैदा करती है। अभयारण्य के आसपास खनन, सड़क और अन्य गतिविधियों के कारण भी खरमोर का आगमन कम होता है। सैलाना रियासत के विक्रमसिंह बताते हैं कि पहले यहां रियासत के दौरान शिकारवाड़ी हुआ करती थी। तब खरमोर बड़े-बड़े झुंडों में आया करते थे। तब यह जगह बहुत शांत थी पर अब लोगों ने पट्टे की ज़मीनों पर खेत बना लिए हैं। यहां खेती, अतिक्रमण, खनन जैसी गतिविधियों पर रोक लगाना ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)