डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

महात्मा गांधी हमेशा इस बात की वकालत करते थे कि पॉलिश किए हुए चावल की बजाय हाथ से कुटे चावल और हाथ की चक्की में पिसे गेहूं का आटा खाना चाहिए। हम तो अनाज को मशीनों के ज़रिए पॉलिश करते हैं ताकि उन्हें लंबे समय तक संग्रहित रख सकें। लेकिन पॉलिशिंग के दौरान चोकर (दाने का कवच) हट जाता है। चोकर में फलभित्ती और एल्यूरॉन परत होती है जिसमें कई ज़रूरी पोषक तत्व (जैसे कुछ विटामिन, आयरन, ज़िंक और दूसरे अकार्बनिक यौगिक) होते हैं। तो गांधीजी सही थे, मशीन-पॉलिश अनाज में इस तरह के सूक्ष्म पोषक तत्व नदारद होते हैं।
यह बात जिस रूप में सामने आती है उसे आजकल हिडन हंगर (अदृश्य भूख) कहते हैं। हो सकता है कि आप रोज़ भरपेट भोजन करते हों लेकिन फिर भी संभव है कि उसमें शरीर की वृद्धि और स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी ये सूक्ष्म पोषक तत्व नदारद हों।
राष्ट्र संघ संस्थाओं का अनुमान है कि यह अदृश्य भूख पूरे विश्व में हर तीन में से एक बच्चे को प्रभावित करती है, जिसकी वजह से शारीरिक वृद्धि और मस्तिष्क के विकास में कमी आती है। बच्चे विटामिन ए के अभाव के चलते दृष्टि सम्बंधी परेशानियों से ग्रस्त होते हैं। भोजन में आयरन का अभाव रक्त सम्बंधी विकारों की ओर ले जाता है जबकि ज़िंक की कमी के कारण शारीरिक विकास अवरूद्ध होता है और डायरिया, बालों का झड़ना, भूख की कमी और दूसरी स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएं पैदा होती हैं।

1970 के दशक में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के डॉ. रामालिंगास्वामी द्वारा भारत में एक कार्यक्रम शु डिग्री किया गया था। बच्चों को हर छ: माह में विटामिन ए की बड़ी मात्रा में खुराक दिए जाने से यह पाया गया कि रतौंधी जैसे रोगों से उन्हें बाहर निकालने में मदद मिली। इसका कारण यह है कि विटामिन ए से बना एक पदार्थ आंख के रेटिना के लिए ज़रूरी है। यह आंख में प्रकाश को विद्युत संकेतों में परिवर्तित कर देता है जिसकी वजह से देखने की प्रक्रिया में सहायता मिलती है।
डॉ. महाराज किशन भान जो पहले अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में थे और नई दिल्ली में भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सचिव थे ने एक नमक मिश्रण तैयार किया था। इस मिश्रण में ज़िंक और आयरन जैसे कुछ सूक्ष्म पोषक तत्व मिलाए गए थे। यह मिश्रण डायरिया और डीहाइड्रेशन (निर्जलीकरण) से पीड़ित बच्चों को दिया गया था। इसके परिणाम काफी सकारात्मक रहे। सूक्ष्म पोषक पूरक पदार्थों, विशेष रूप से ज़िंक, बच्चों में दस्त में बहुत फायदेमंद पाया गया था।
शरीर के लिए ज़िंक इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इसलिए कि हमारे शरीर में 300 से ज़्यादा एन्ज़ाइम अपने काम में ज़िंक का इस्तेमाल एक आवश्यक घटक के रूप में करते हैं। ज़िंक हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को मदद करने में, डीएनए के संश्लेषण व विघटन में, घावों को भरने में और कई अन्य गतिविधियों में ज़रूरी है। ज़िंक की बहुत अधिक मात्रा की ज़रूरत नहीं होती है। 70 किलोग्राम भार वाले मनुष्य के शरीर में ज़िंक की मात्रा 2 से 3 ग्राम होती है। लेकिन यदि  सामान्य से कम मात्रा हो जाए तो शारीरिक विकास अवरुद्ध हो जाता है, डायरिया होता है, आंख और त्वचा में घाव दिखाई देने लगते हैं, और भूख मर जाती है। ऐसी स्थिति में रोज़ ज़िंक की कुछ मात्रा लेना आवश्यक हो जाता है।

हालांकि दवा के रूप में विटामिन्स और कुछ खनिज पदार्थ लेना ठीक है, मगर विकासशील विश्व में करोड़ों बच्चों के लिए यह कोई विकल्प नहीं है। लेकिन यदि ऐसा किया जाए कि पूरक के रूप में अलग से लेने की बजाय ये सूक्ष्म पोषक तत्व हमारे रोज़ाना के चावल, गेहूं और दूसरे अनाजों का हिस्सा बन जाएं? क्या ऐसे चावल या गेहूं के पौधे होते हैं जो प्राकृतिक रूप से इन सूक्ष्म पोषक तत्वों में समृद्ध हों? क्या इन्हें उगाया जा सकता है, या पारंपरिक चावल या गेहूं के पौधों के साथ इनका संकरण किया जा सकता है? यह पूरे विश्व के कृषि वैज्ञानिकों का सपना रहा है। और हैदराबाद के चावल अनुसंधान संस्थान के डॉ. वेमुरी रविन्द्र बाबू के नेतृत्व में कार्यरत समूह ने पूरे 12 सालों की मेहनत के बाद इसे प्राप्त करने में सफलता हासिल की है।
इस समूह ने एक विशिष्ट प्रकार का धान विकसित किया है जो ज़िंक में समृद्ध है। इसे डीआरआर 45 (आईईटी 23832) नाम दिया गया है। इसमें  22.18 हिस्सा प्रति लाख तक ज़िंक होता है (जो अब तक जारी किस्मों में उच्चतम मात्रा है)। यह कीटों के द्वारा होने वाले लीफ ब्लास्ट रोग का थोड़ा प्रतिरोधी भी पाया गया है।

उच्च ज़िंक युक्त डीआरआर धान 45 का विकास बहुत आसान काम नहीं था। 2004 से शु डिग्री करके, भारत के विभिन्न हिस्सों से चावल की कई हज़ार किस्मों में ज़िंक की मात्रा जांची गई थी। इनमें से कुल 168 किस्मों को चुना गया जिनमें थोड़ी संभावना दिखाई दी थी। उनमें लौह और ज़िंक की मात्रा की जांच की गई। उनकी कड़ी स्क्रीनिंग करने के बाद उनका संकरण अधिक पैदावार वाली किस्मों के साथ कराया गया। अंत में यह किस्म आईईटी 23832 या डीआरआर 45 मिली। वास्तव में यह एक लंबी दौड़ रही है और बायोफोर्टिफिकेशन (इसका अर्थ है कि समृद्धता नैसर्गिक है, भान विधि के समान बाहर से नहीं जोड़ी गई है) का यह प्रयास सफल रहा। गौरतलब है कि इस किस्म का ज़िंक व दूसरे खनिज पदार्थ पॉलिशिंग के दौरान खत्म नहीं होते। इस प्रकार इस चावल को लंबे समय के लिए रखा और इस्तेमाल किया जा सकता है और परंपरागत चावल की तरह ही यह स्वादिष्ट भी है।
यह भी ध्यान देने की बात है कि यह जीएम (जेनेटक रूप से परिवर्तित) फसल नहीं है। तो यह किसी विवाद के घेरे में भी नहीं है। डीआरआर 45 में एक अतिरिक्त लाभ है कि इसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम है (परंपरागत धान के 75 के मुकाबले 51)। तो यह मधुमेह रोगियों के लिए भी अच्छा है। डॉ. बाबू ने मुझे बताया कि कम ग्लायसेमिक इंडेक्स के चलते यह पाचन में थोड़ा ज़्यादा समय लेता है और आपको देर तक भूख महसूस नहीं होती हैं।
उनका अगला कदम भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद बायोफोर्टिफिकेशन के अंतर्गत इसी तरह की ज़िंक और दूसरे खनिज युक्त गेहूं, मक्का और बाजरा की किस्में विकसित करना है। उनके इस तरह के प्रयासों के लिए शुभकामनाएं। (स्रोत फीचर्स)