अश्विन साई नारायण शेषशायी

कृषि के आविष्कार ने खाद्य सुरक्षा संभव बनाई और यह मनुष्य के इतिहास का एक प्रमुख पड़ाव था। इसने बड़े-बड़े समाजों, शहरों और सभ्यताओं का निर्माण संभव कर दिया। उस दिन से आज तक कुपोषण भी सभ्य समाजों की एक बुराई रहा है। संसाधनों, जिसमें मिट्टी की उपजाऊ क्षमता भी शामिल है, के अत्यधिक उपयोग ने कई बार शहरों को तहस-नहस किया है।
पोषण जीवन के हर रूप के लिए ज़रूरी है। इनमें बैक्टीरिया भी शामिल है जो इस धरती पर रहने वाले स्वतंत्रजीवी जीवों में सबसे बड़ी संख्या में पाए जाते हैं।
बैक्टीरिया एक-कोशिकीय जीव होते हैं। वे भी भोजन करते हैं और बड़े जंतुओं के समान अलग-अलग किस्म के बैक्टीरिया अलग-अलग किस्म का भोजन खाते और पचाते हैं। वे साइज़ (आकार) में वृद्धि करते हैं और प्रजनन करते हैं। बैक्टीरिया के प्रजनन में कुछ पेचीदा आणविक प्रक्रियाएं होती हैं मगर मुख्य बात यह है कि बैक्टीरिया अपने डीएनए को द्विगुणित करता है और यह बीच में से दो भागों में बंट जाता है।
जब कोई मानव कोशिका दो में बंटती है, तो इसकी छाप डीएनए पर बन जाती है। दूसरे शब्दों में, कोशिका के डीएनए में उसकी उम्र का निशान होता है। अलबत्ता बैक्टीरिया में ऐसा नहीं होता - इस अंतर का कारण एक तो डीएनए के द्विगुणन की प्रक्रिया में छिपा है और दूसरे इस तथ्य में छिपा है कि जहां मानव डीएनए रैखीय होता है, वहीं बैक्टीरिया का अधिकांश डीएनए वृत्ताकार होता है। प्रत्येक बैक्टीरिया में समान रूप से नव-निर्मित अणु पाए जाते हैं और उम्र का कोई निशान नहीं होता। अर्थात, जब तक बैक्टीरिया को भोजन मिलता रहे और वे विभाजित होते रहें, तब तक उनमें बुढ़ापे के कोई लक्षण प्रकट नहीं होते।
इस बात पर ज़ोर देना ज़रूरी है कि किसी बैक्टीरिया कोशिका को विभाजित होकर संख्या वृद्धि करने के लिए नए अणु बनाने पड़ते हैं: उसे नया डीएनए, नए प्रोटीन्स तथा कोशिका की सतह के लिए नई शर्कराएं व तेल भी बनाने पड़ते हैं। इसके लिए बैक्टीरिया को भोजन चाहिए। लिहाज़ा, बैक्टीरिया की कोई आबादी कितने समय में दुगने आकार की हो जाएगी, यह उसे उपलब्ध भोजन की मात्रा पर निर्भर करता है। भुखमरी का शिकार बैक्टीरिया प्रजनन में असमर्थ हो जाता है और बुढ़ाने भी लगता है चूंकि उसमें उपस्थित अणु किसी प्रकार से ‘पुराने’ होने लगते हैं।

भोजन के लिए लड़ाई
पता चला है कि कई समृद्ध मनुष्यों के विपरीत, कई बैक्टीरिया भोजन के लिए तरस जाते हैं। जैसे एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया को ही लें। आप जानते ही हैं कि यह हमारी आंतों का स्थायी निवासी है और भोजन में विषाक्तता का कारण भी है। वैज्ञानिक इसे प्रयोगों के लिए एक उपयोगी जीव मानते हैं जो जीवन को समझने में मददगार है।
प्रयोगशालाओं में हम ई. कोली को बहुत बढ़िया भोजन कराते हैं। इस परिस्थिति में एक बैक्टीरिया हर 20-30 मिनिट में दो बन जाता है। 1983 में माइकल सेवेगो ने अनुमान लगाया था कि प्रकृति में ई. कोली संभवत: हर 40 घंटे में विभाजित होता है। अर्थात आरामदायक प्रयोगशाला और निष्ठुर प्रकृति के बीच इस बैक्टीरिया के प्रजनन समय में 50-100 गुना का फर्क है। सेवेगो का आंकड़ा एक अनुमान है और हो सकता है कि इसमें थोड़ी अतिशयोक्ति हो। यह आंकड़ा एक औसत है और यह भी संभव है कि अलग-अलग परिस्थितियों में यह समय अलग-अलग हो। बहरहाल हम इतना तो पक्की तौर पर कह सकते हैं कि प्रकृति में एक से दो होने के लिए ई. कोली को 20-30 मिनट से ज़्यादा ही लगते हैं। नतीजतन, इसका पोषण स्तर प्राय: यथेष्ट से काफी कम होता है।
बैक्टीरिया के पास ऐसे कई तरीके होते हैं जिनके ज़रिए वे सुनिश्चित करते हैं कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वे पोषण प्राप्त करते रहें। उदाहरण के लिए, बैक्टीरिया बस्ती के कुछ सदस्य परोपकारी ढंग से खुदकुशी कर लेते हैं ताकि कॉलोनी के शेष सदस्यों को भोजन मिलता रहे और वे जीवित रहें।
रोगजनक परिस्थिति में बैक्टीरिया के लिए ‘शून्य में से’ भोजन प्राप्त करना बहुत ज़रूरी होता है। कल्पना कीजिए एक बैक्टीरिया की जो मानव शरीर में घुसने के बाद बीमारी पैदा करने की क्षमता रखता है। मानव शरीर भले बैक्टीरिया को पालता है और घुसपैठी बैक्टीरिया को भोजन के लिए इन भले बैक्टीरिया के साथ प्रतिस्पर्धा करनी होती है। और यह कदापि आसान नहीं होता। अलबत्ता, हेलिकोबैक्टर पायलोरी जैसे कुछ रोगजनक बैक्टीरिया मेज़बान की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के साथ खिलवाड़ करते हैं ताकि पोषण प्राप्त कर सकें। हेलिकोबैक्टर पायलोरी कई इंसानों की आंतों में पलता है और इसकी कुछ किस्में अल्सर भी पैदा करती हैं।

लैक्टोफेरिन्स बनाम सिडरोफोर्स
हेलिकोबैक्टर तथा कई अन्य रोगजनक बैक्टीरिया के विरुद्ध मानव प्रतिरक्षा तंत्र सूजन प्रतिक्रिया देता है। यह प्रतिक्रिया हमारे ऊतकों की परत को क्षति पहुंचाती है जिसकी वजह से पोषक पदार्थ रिसने लगते हैं। बैक्टीरिया इस रिसाव का इस्तेमाल भोजन के रूप में कर सकते हैं। यदि किसी बैक्टीरिया में यह क्षमता है कि वह सूजन की वजह से मुक्त होने वाले मारक तत्वों का प्रतिरोध कर सके, तो वह कई सारे मानव-मित्र बैक्टीरिया की अपेक्षा लाभ की स्थिति में रहेगा। ऊतक क्षति की वजह से विभिन्न शारीरिक अवरोधों में दरारें पड़ जाती हैं और ये दरारें रोगजनक बैक्टीरिया को मानव शरीर के नए-नए हिस्सों में प्रवेश का मार्ग बन सकती हैं। इन नई जगहों पर प्रतिस्पर्धा के अभाव में ये बैक्टीरिया मज़े से रह सकते हैं। ऐसे नए स्थानों पर प्रवेश के चलते कई भले बैक्टीरिया भी रोग पैदा कर सकते हैं।
रोगजनक बैक्टीरिया के लिए पोषण प्राप्त करने के मार्ग में एकमात्र बाधा प्रतिस्पर्धा की नहीं होती। मानव का तंत्र हर संभव कोशिश करता है कि रोगजनक बैक्टीरिया को ज़रूरी पोषक पदार्थ न मिल पाएं। ऐसा एक पोषक तत्व लौह है - और रोगजनक बैक्टीरिया व उसके संभावित शिकार के बीच युद्ध का परिणाम काफी हद तक लौह पर निर्भर होता है। लौह की उपस्थिति कई प्रोटीन्स के कामकाज के लिए ज़रूरी होती है। इनमें वे प्रोटीन्स भी शामिल हैं जो भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने में भूमिका निभाते हैं। पृथ्वी पर लौह की प्रचुर मात्रा को देखें, तो यह कोई अचरज की बात नहीं है कि यहां जीवन का विकास लौह तत्व का उपयोग करके हुआ है। लौह के बगैर अपने वर्तमान स्वरूप में जीवन संभव नहीं होगा।
मानव शरीर लैक्टोफेरिन्स जैसे कई प्रोटीन बनाता है जो लौह को काफी मज़बूती से पकड़कर रखते हैं और इसे घुसपैठी बैक्टीरिया की पहुंच से दूर रखते हैं। मगर बैक्टीरिया सिडरोफोर नामक अणु की बौछार करते हैं, जो लौह को लेक्टोफेरिन्स की अपेक्षा ज़्यादा मज़बूती से पकड़ लेते हैं। लिहाज़ा ये लौह को लैक्टोफेरिन्स की पकड़ से निकालकर स्वयं से जोड़ लेते हैं। आगे चलकर ये सिडरोफोर वापिस बैक्टीरिया की कोशिका में पहुंच जाते हैं और वहां कुछ रासायनिक अभिक्रियाओं की मदद से लौह को मुक्त कर दिया जाता है जो बैक्टीरिया की चयापचय क्रियाओं में काम आता है।
उपरोक्त उदाहरणों में हमने देखा कि बैक्टीरिया वह करते हैं जो सीमित पोषण की परिस्थिति में किया जाना चाहिए। मगर तब क्या होगा जब भोजन है ही नहीं? ऐसी स्थिति में संभवत: कई बैक्टीरिया तो मारे जाएंगे। मगर कई जीवित रहेंगे और काफी दिलचस्प तरीकों से जीवित रहेंगे।

अतिशय भुखमरी की स्थिति में कुछ बैक्टीरिया बीजाणु (स्पोर्स) बना लेते हैं। बैक्टीरिया भोजन के घोर अभाव की स्थिति को भांप लेता है और उसके बाद रासायनिक क्रियाओं का एक सिलसिला शु डिग्री हो जाता है जिसका परिणाम अंतत: यह होता है कि बैक्टीरिया के इर्द-गिर्द एक मज़बूत आवरण बन जाता है। इस आवरण के अंदर बैक्टीरिया पूरी तरह निष्क्रिय या लगभग निष्क्रिय सुप्तावस्था में बैठा रहता है। सुप्तावस्था में इस बैक्टीरिया को जीवित रहने के लिए बहुत कम भोजन की ज़रूरत होती है और यह लगभग उसी तरह जीवित रहता है जैसे जाड़ों में भालू रहते हैं। बीजाणु बैक्टीरिया को घातक पराबैंगनी प्रकाश, सूखने व तापमान के उतार-चढ़ाव से भी महफूज़ रखता है। कहना न होगा कि बीजाणु निर्माण एक उत्क्रमणीय प्रक्रिया है और अनुकूल परिस्थिति मिलने पर बीजाणु बैक्टीरिया को मुक्त कर सकते हैं जो एक बार फिर खाने-पीने-संख्यावृद्धि करने में मशगूल हो जाते हैं।
चिकित्सा के लिहाज़ से बीजाणु एक गंभीर समस्या हैं, खास तौर से अवसरवादी रोगजनक बैक्टीरिया क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल के संदर्भ में। अधिकांश स्वस्थ लोगों में यह बैक्टीरिया कोई हानि नहीं पहुंचाता। मगर दुर्बल प्रतिरक्षा तंत्र वाले लोगों में या अस्पताल में भर्ती होकर एंटीबायोटिक्स से इलाज करवा रहे लोगों में यह बैक्टीरिया बड़ी समस्या बन जाता है। यह अत्यंत कठोर बीजाणु बनाता है जिन पर रासायनिक विसंक्रामकों और एंटीबायोटिक औषधियों का कोई असर नहीं होता। इसके प्रतिस्पर्धी बैक्टीरिया तो एंटीबायोटिक के उपयोग के चलते नष्ट हो जाते हैं। ऐसी प्रतिस्पर्धा मुक्त परिस्थिति में क्लॉस्ट्रीडियम ‘अपनी वाली’ पर उतर आता है और जानलेवा दस्त पैदा करता है। पश्चिम में तो यह एक बड़ी समस्या बन चुका है। इसकी वजह से पिछले दस वर्षों में कई देशों में अस्पताल में अन्य कारणों से भर्ती सैकड़ों मरीज़ जान से हाथ धो बैठे हैं।

बैक्टीरिया अदम्य है
बीजाणु निर्माण अन्य संदर्भों में भी काम आ सकता है। जैसे मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया मिक्सोकॉकस ज़ेन्थस (Myxococcus xanthus) में। जब पोषक तत्वों का अभाव होता है तो कई अलग-अलग मिक्सोकॉकस एक-दूसरे से ‘बातचीत’ करने लगते हैं और साथ आकर विशाल रचनाएं बना लेते हैं जिन्हें फ्रूटिंग बॉडीज़ (फलकाय) कहते हैं। इन फ्रूटिंग बॉडीज़ पर भुखमरी-रोधी बीजाणु बनते हैं। यह एक-कोशिकीय जीवों के समूहों द्वारा बहु-कोशिकीय व्यवहार के प्रदर्शन का एक उम्दा उदाहरण है।
ई. कोली जैसे बैक्टीरिया बीजाणु तो नहीं बनाते मगर लंबे समय तक भुखमरी को झेल सकते हैं। प्रयोगशाला में समृद्ध मीडिया में संवर्धित ई. कोली उपलब्ध पोषक पदार्थ चुक जाने तक कुछ घंटों में कई बार विभाजित हो जाता है और उसके बाद स्टेशनरी अवस्था में प्रवेश करता है जिसमें संख्या वृद्धि नहीं होती या ना के बराबर होती है। स्टेशनरी अवस्था में कई सारी चयापचय क्रियाएं बहुत धीमी पड़ जाती हैं, जिनमें डीएनए प्रतिलिपिकरण और प्रोटीन निर्माण शामिल हैं। इस अवस्था में कुछ दिन बिताने पर 99 प्रतिशत कोशिकाएं तो मर जाती हैं, मगर शेष 1 प्रतिशत वर्षों तक जीवित रह सकती हैं। हालांकि इस अवस्था में जनसंख्या नहीं बढ़ती मगर इसका मतलब यह नहीं है कि इस अवस्था में सब कुछ निष्क्रिय पड़ा रहता है।
स्टेेशनरी अवस्था के दौरान ई. कोली की बस्ती नवीन उत्परिवर्तन हासिल करती है जो उसे ऐसे उत्परिवर्तनों से विहीन साथियों को पछाड़ने में समर्थ बनाते हैं।

ऐसा माना जाता है कि इस स्थिर अवस्था में विशिष्ट उत्परिवर्तन-युक्त उप-आबादियों में वृद्धि-और-मृत्यु की कई लहरें उठती हैं। जो उप-आबादियां इन परिस्थितियों में जीने के लिए अनुकूलित होती हैं उनमें वृद्धि होती है जबकि शेष मर जाती हैं। हर लहर में विशिष्ट अणुओं का उपयोग होता है और विशिष्ट अणु उत्सर्जित किए जाते हैं। मान लीजिए कि स्टेशनरी अवस्था के शुरु में ई. कोली की दो उप-आबादियां हैं - A तथा B। जिस पात्र में इन्हें रखा गया है उसमें पोषक पदार्थ N है। यदि N का भक्षण करके ई. कोली A अणु N का भक्षण करके M बना सकता है जबकि ई. कोली B ऐसा नहीं कर पाता तो ई. कोली A तो जीवित रहकर संख्यावृद्धि करेगा और B मर जाएगा। कुछ समय बाद N तो चुक जाएगा मगर M मौजूद है। ई. कोली A तो M का उपयोग नहीं कर सकता मगर एक नया उत्परिवर्तित रूप C है जो M का उपयोग कर सकता है और इस दौरान अणु P बनाता है। इस बार A मर जाएगा जबकि C संख्यावृद्धि करता रहेगा। यह चक्र लंबे समय तक चलता रह सकता है। हो सकता है कि विभिन्न उप-आबादियों की वृद्धि व मृत्यु दरें कुल मिलाकर औसतन शून्य वृद्धि दर दर्शाएं।
इस बात के भी प्रमाण हैं कि जो कोशिकीय प्रक्रियाएं जेनेटिक विविधता को बढ़ाती हैं वे दूरगामी उत्तरजीविता के लिए अनिवार्य हैं। जैसे डीएनए की प्रतिलिपि बनाते वक्त त्रुटियों की उच्च दर। और बढ़ी हुए जेनेटिक विविधता का मतलब यह भी होता है कि नए-नए उत्परिवर्तित रूप बनेंगे जो शायद विविध तनावों को झेलने की क्षमता दर्शाएंगे, जैसे एंटीबायोटिक औषधियों का आक्रमण। यह लगातार चलता रहता है। तो यदि आप संक्रामक रोगों के प्रति चिंतित हैं तो भूखे बैक्टीरिया से अवश्य डरकर रहें। और यदि आपको बैक्टीरिया का जीवन दिलचस्प लगता है तो भूखे बैक्टीरिया से भी मोहब्बत करें। (स्रोत फीचर्स)