ज्यूल्स बर्न

1875 का साल था, और यह शायद इस सदी की सबसे बड़ी चुनौती थी। फिलिस फॉग ने एक शर्त में अपनी सारी सम्पत्ति दांव पर लगा दी थी कि वह 19वीं सदी की पूरी दुनिया को बिना किसी तयशुदा कार्यक्रम के, बिना किसी खास इंतजाम के और बिना हवाई यात्रा के ठीक 80 दिन में पार कर लेगा। अगर ज़रा भी देरी हुई या किसी अन्य प्रकार की कोई रुकावट हुई, तो फॉग अपना सब कुछ हार जाएगा। मामला और भी ज्यादा पेचीदा इसलिए बना हुआ था क्योंकि मिस्टर फिक्स, फॉग का पीछा कर रहा था। फिक्स हरदम खजाने की खोज में लगा रहता था और उसका विश्वास था कि फॉग एक भगोड़ा बैंक लुटेरा है।
पूरी दुनिया का चक्कर लगाते हुए फिलिस फॉग हिन्दुस्तान से भी गुजरता है। ज्यूल्स वर्न के उपन्यास ‘एराऊंड द वर्ड इन ऐटी डेज़' के इस अंश में न सिर्फ हमें ज्यूल्स वर्न की नज़र और नज़रिए से उस समय के हिन्दुस्तान के बारे में जानकारी मिलती है, परन्तु साथ ही नवजात हिन्दुस्तानी रेल्वे के बारे में भी -- जिसे उस समय ‘ग्रेट इंडियन पेनिंसुला रेल्वे' के नाम से जाना जाता था।

सब लोग जानते हैं कि वह उल्टा । त्रिभुज जिसका आधार उत्तर में है, और शीर्ष दक्षिण में, हिन्दुस्तान कहलाता है। यह 14,00,000 वर्ग मील पर फैला हुआ है और अठारह करोड़ की आबादी यहां पर असमान रूप से फैली हुई है। इस विशाल देश के एक बड़े भाग पर ब्रिटिश ताज का दमनकारी शासन चलता है। एक गवर्नर जनरल कलकत्ता में विराजमान है; मद्रास, बंबई और बंगाल में गवर्नर बैठते हैं, तथा आगरा में एक लेफ्टिनेंट गवर्नर बैठता है।
ब्रिटिश इंडिया जैसा कि आमतौर पर इसे कहा जाता है, केवल सात लाख वर्ग मील में ही फैला हुआ है। इसकी जनसंख्या 10 से 11 करोड़ के बीच है। हिन्दुस्तान का काफी बड़ा हिस्सा अभी तक ब्रिटिश शासन से आज़ाद है; और देश के अंदरुनी भागों में कुछ बहादुर और खूखार राजा बसते हैं, जो पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।
प्रसिद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी सन् 1756 से, जब अंग्रेजों ने हिन्दुस्तान में पहली बार वहां पैर जमाए थे जहां आज मद्रास शहर बसा है, लेकर 1857 के गदर तक बेहिसाब ताकतवर थी। वह धीरे-धीरे स्थानीय मुखियाओं से उनके इलाके खरीदकर अपने कब्जे में करती गई, ज्यादातर बिना कीमत अदा किए; और वहां गवर्नर जनरल तथा उसके अधिनस्थ सैनिक व सिविल कर्मचारियों की नियुक्ति करती गई। लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी अब नहीं रही, और हिन्दुस्तान में अब ब्रिटिश कब्जे वाले इलाके सीधे-सीधे ब्रिटिश ताज के नियंत्रण में आ गए हैं। इस देश के बहुत से पहलुओं, खासतौर पर यहां के तौर-तरीकों और विभिन्न जातियों के बीच के रिश्तों में दिनोंदिन बदलाव आ रहे हैं।

पहले के जमाने में हिन्दुस्तान में कहीं भी जाना हो तो या तो पैदल ही रास्ता मापना पड़ता था, या फिर घोड़ों, पालकियों अथवा अनगढ़ बग्घियों जैसे अत्यन्त धीमे वाहनों का सहारा लेना पड़ता था। आजकल गंगा और सिंधु नदियों पर तेज गति से स्टीमर चलते हैं; और एक बड़ी रेल लाइन भी है। जिससे बंबई से कलकत्ता, प्रायद्वीप के एक छोर से दूसरे छोर तक तीन दिन में पहुंचा जा सकता है। रास्ते में इसे रेल लाइन से और बहुत-सी छोटीछोटी शाखाएं आकर मिलती हैं। यह रेल लाइन भारत के आर-पार एक सीधी लकीर में नहीं जाती। बंबई से कलकत्ता की हवाई दूरी अगर एक पक्षी की सीधी उड़ान से की जाए। तो 1000 से 1100 मील के बीच होगी। लेकिन जमीन पर वही दूरी रास्ते के घुमावदार मोडों आदि के कारण करीब एक-तिहाई और बढ़ जाती है।
‘ग्रेट इंडियन पेनिंसुला रेल्वे' का मार्ग कुछ इस प्रकार है- बंबई छोड़ने के बाद यह सेलसेट से गुजरती है, फिर ठाणे के सामने के प्रदेश से होकर, पश्चिमी घाट की श्रृंखला को पार कर उत्तर-पूर्व में बुरहानपुर तक आती है, और स्वतंत्र राज्य बुंदेलखंड के किनारे-किनारे होती हुई ऊपर इलाहाबाद तक जाकर, घूमकर पूर्व में बनारस में गंगा से जा मिलती है। फिर आगे चलकर नदी से थोड़ा हटकर दक्षिण -पूर्व में नीचे बर्दवान तथा फ्रांसीसी नगर चंदरनगर होकर आखिर में कलकत्ता पहुंचती है।

‘मंगोलिया' जहाज के यात्री बंबई तट पर साढ़े चार बजे पहुंचे, कलकत्ता के लिए रेल गाड़ी ठीक आठ बजे चलनी थी।
मिस्टर फॉग ने अपने ताश खेलने वाले साथियों से विदा ली और जहाज़ से बाहर आ गए। उन्होंने अपने नौकर को कुछ हिदायतें दीं और अच्छे से समझाया कि वह ठीक आठ बजे तक स्टेशन पहुंच जाए। फिर वे अपनी अत्यन्त नियमित चाल से जो कि घड़ी की टिक-टिक जैसी प्रतीत होती थी पासपोर्ट ऑफिस की ओर चल दिए।
बंबई के अद्भुत दर्शनीय स्थल, जाना-माना सिटी हॉल, शानदार पुस्तकालय, तरह-तरह के किले और बंदरगाह, बाज़ार, मस्जिदें, सिनेगॉग, आरमेनियन गिरजाघर और मलाबार हिल का प्रसिद्ध मंदिर जिसकी दो बहुकोणीय मीनारें हैं, इन सब को देखने में उनकी रत्ती भर भी रुचि न थी। यहां तक कि उन्होंने ऐलिफेंटा की श्रेष्ठ कलाकृतियों, बुद्धकालीन वास्तुकला के अवशेषों और सेलसेट द्वीप पर स्थित कन्हेरी गुफाओं को भी देखना नहीं चाहा।
पासपोर्ट दफ्तर में अपना काम निपटाकर वो शांति से रेल्वे स्टेशन आ गए, और अपने रात के खाने का ऑर्डर दिया। उन्हें जो व्यंजन परोसे गए उनमें से एक की होटल मालिक ने खास सिफारिश की थी, जिस पर उसे काफी नाज़ था। यह था 'नेटिव रैबिट' यानी खालिस देसी खरगोश। मिस्टर फॉग ने इसे चखा। यह काफी मसालेदार था लेकिन उन्हें एकदम नागवार गुजरा। उन्होंने होटल मालिक को बुलाने के लिए घंटी बजाई और आने पर उसे घूरते हुए पूछा, “यह खरगोश है?"

"जी हुजूर", धूर्त ने ढिठाई से जवाब दिया, “खरगोश सीधा जंगल से लाया गया है।"
“और जब इसे मारा गया होगा तो इस खरगोश ने म्याऊं भी नहीं की होगी?"
“क्या? म्याऊं! खरगोश म्याऊं करता है क्या हुजूर! मैं कसम खाता हूँ ...।'
“अब इतना-सा भला काम करो कि कसम तो मत खाओ। और यह भी याद रखो कि बिल्लियां एक जमाने में भारत में पवित्र मानी जाती थीं। वह समय अच्छा रहा होगा।"
"हुजूर, क्या बिल्लियों के लिए?"
"शायद मुसाफिरों के लिए भी।"
उसके बाद मिस्टर फॉग ने चुपचाप बाकी का भोजन किया ।
फॉग के जाने के थोड़ी देर बाद, मिस्टर फिक्स भी किनारे पर पहुंच गया था। बंबई पहुंचने पर उसका पहला लक्ष्य बंबई पुलिस मुख्यालय था। वहां उसने अपना परिचय लंदन के एक जासूस के रूप में दिया, और बंबई में अपने काम तथा तथाकथित डाकू के बारे में अवगत कराया, फिर घबराते हुए पूछा कि लंदन से कोई वारंट आया है क्या? वारंट अभी तक बंबई नहीं पहुंचा था, वास्तव में अभी उसके पहुंचने का वक्त ही नहीं हुआ था। फिक्स बहुत निराश हुआ और उसने बंबई पुलिस डायरेक्टर से ही गिरफ्तारी के लिए वारंट प्राप्त करने की कोशिश की, लेकिन डायरेक्टर ने साफ मना कर दिया क्योंकि यह लंदन ऑफिस का मामला था और कानूनी तौर पर सिर्फ वे ही वारंट दे सकते थे। फिक्स ने ज्यादा आग्रह नहीं किया और उस महत्वपूर्ण कागज़ के आने का इंतज़ार करने का तय किया। साथ ही उसने यह निश्चय भी किया कि जब तक वह रहस्यमई गुण्डा बंबई में है, वह उसे अपनी नज़रों से ओझल नहीं होने देगा। उसे एक पल के लिए भी संदेह नहीं हुआ कि फॉग वारंट के आने तक बंबई में नहीं रहेगा।

लेकिन पासपार्टआउट ने ‘मंगोलिया' जहाज़ से उतरते समय अपने मालिक का हुक्म सुनते ही जान लिया था कि वे लोग फौरन ही बंबई छोड़ने वाले हैं, जैसा कि उन्होंने सुएज़ और पेरिस में किया था और उनका सफर कम-से-कम कलकत्ता तक बढ़ने वाला है, और शायद उससे भी आगे। और तब उसने अपने आपसे सवाल किया था कि क्या वाकई फॉग अपनी इस शर्त को पूरा करने पर डटे हुए हैं? और क्या उसे भी अपनी आरामपसंद प्रकृति के खिलाफ उनके पीछे-पीछे अस्सी दिन में दुनिया का एक चक्कर लगाने पर मजबूर होना पड़ेगा!
उसने बाजार से अपनी ज़रूरत के मुताबिक जूते और कमीजें खरीदीं और फिर बंबई की सड़कों पर मजे से चहलकदमी करने लगा। वहां बहुत-से देशों के लोगों की भीड़-भाड़ थी - इनमें कुछ यूरोपियन थे, नोकदार टोपियां पहने पर्शियन थे, गोल पगड़ियां पहने बनिए थे, चौकोर टोपियां पहने सिंधी थे, काली टोपी पहने पारसी थे और लंबे चोगों में आरमेनियन थे। उस दिन कोई पारसी त्यौहार था। ये जॉरोएस्टर सम्प्रदाय के वंशज बहुत ही किफायती, सभ्य तथा बुद्धिमान होते हैं। इनमें से कई बंबई के सबसे अमीर व्यापारियों में गिने जाते हैं।
ये लोग एक धार्मिक उत्सव मना रहे थे। कोई जुलूस निकल रहा था जिसमें सोने-चांदी के गहनों से लदी हिन्दुस्तानी लड़कियां कसीदे वाले गुलाबी रंग के जालीदार कपड़े पहने, शालीनता से साजों की धुन पर नृत्य कर रही थीं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस अनोखे समारोह को पासपार्टआउट एकटक देख रहा था और उसका मुंह आश्चर्य से खुला ही रह गया था।

यह उसका व उसके मालिक का दुर्भाग्य ही कहिए कि उसकी जिज्ञासा जितनी दूर तक वह जाना चाहता था उससे उसे कहीं आगे ले गई। आखिरकार पारसी जुलूस को दूर खत्म होते हुए देख वह अपने कदम स्टेशन की ओर मोड़ रहा था कि उसकी नज़र मलाबार हिल के खूबसूरत मंदिर पर पड़ी, और उसके मन में इसे अंदर से देखने की तीव्र इच्छा जाग उठी। वह अपने आपको रोक नहीं पाया। उसे मालूम नहीं था कि हिन्दुओं के कुछ मंदिरों में ईसाइयों को जाने की इजाज़त नहीं होती और सभी को जूते दरवाजे के बाहर उतार कर नंगे पांव अंदर जाना होता है। यहां यह बता देना उचित होगा कि ब्रिटिश सरकार की यह सोची-समझी नीति थी कि स्थानीय धर्मों की इज्जत न करने वालों को कठोर सज़ा दी जाए।
पासपार्टआउट बेचारा, बिना किसी दुराभाव के, सामान्य टूरिस्ट की तरह अंदर चला गया और वहां की शानदार कारीगरी और सजावट में खो गया। जिस ओर उसकी नज़र गई हर जगह आश्चर्यजनक नक्काशी का नज़ारा था। तभी अचानक उसने अपने-आपको पवित्र पूजा स्थल पर धराशाई पाया। ऊपर की ओर देखने पर उसे गुस्से में उफनते हुए तीन पुजारी दिखाई दिए जो उस पर टूट पड़े। उन्होंने उसके जूते फाड़ दिए और जोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए उसे पीटने लगे। फुर्तीला फ्रांसीसी फौरन उठ खड़ा हुआ। उसने फुर्ती से दो लंबे चोगे वाले पुजारियों को लात-घूसों से मार गिराया, और फिर तेजी से भागकर मंदिर से बाहर आकर भीड़ में जा मिला, और इस तरह उसने तीसरे पुजारी से भी अपनी जान बचाई।

आठ बजने से ठीक पांच मिनट पहले पासपार्टआउट नंगे पांव, नंगे सिर, हांफता हुआ स्टेशन पहुंचा। झगड़े के दौरान उसका कपड़ों और जूतों का बंडल भी खो गया था।
मिस्टर फिक्स ने फॉग का स्टेशन तक पीछा किया और पाया कि वह प्लेटफॉर्म पर मौजूद है और वास्तव में तुरन्त बंबई छोड़ने वाला है। उसने इस लुटेरे का कलकत्ता तक, और जरूरी हुआ तो और भी आगे तक पीछा करने की ठान रखी थी। पासपार्टआउट जासूस की मौजूदगी से अनजान था क्योंकि वह एक अंधेरे कोने में खड़ा था, लेकिन फिक्स ने उसकी जोखिम भरी कहानी सुन ली।
मुझे उम्मीद है कि ऐसा कुछ फिर नहीं होगा", फॉग ने गाड़ी में चढ़ते हुए कहा। बेचारा पासपार्टआउट भी हतोत्साहित-सा अपने स्वामी के पीछे पीछे गाड़ी में चढ़ गया। फिक्स गाड़ी के दूसरे डिब्बे में चढ़ने ही वाला था, कि अचानक उसे एक विचार आया जिस कारण उसने अपना पहले वाला प्रोग्राम बदल दिया।
"नहीं मैं यहीं ठहरूंगा", वह बुदबुदाया, “हिन्दुस्तान की जमीन पर एक अपराध हुआ है।''
और तभी रेल के इंजन ने एक कर्कश सीटी बजाई और रेलगाड़ी राते के अंधेरे में गुम हो गई।

रेलगाड़ी ठीक समय से चल दी। मुसाफिरों में बहुत से अफसर थे, सरकारी अफसर और नील व अफीम के व्यापारी जिन्हें अपने कारोबार के लिए पूर्वी तट तक जाना पड़ता था। पासपार्टआउट अपने स्वामी के साथ उसी के डिब्बे में सफर कर रहा था और एक तीसरे यात्री ने उनके सामने की सीट ले ली थी। ये थे सर फ्रांसिस क्रोमेरटी, ‘मंगोलिया' जहाज़ की यात्रा के दौरान मिस्टर फॉग के ताश के साथियों में से एक, जो अपनी बटालियन में शामिल होने बनारस जा रहे थे। सर फ्रांसिस गोरे तथा छरहरे थे, उनकी आयु लगभग 50 वर्ष थी और गदर के वक्त उन्होंने अपनी खास । पहचान बनाई थी। इन्होंने हिन्दुस्तान को ही अपना घर मान लिया था, और हमेशा के लिए यहीं बस गए थे।
वे लंबे अर्से के बाद कभीकभार ही, कुछेक दिन के लिए इंग्लैंड जाते थे। वे एक हिन्दुस्तानी की भांति यहां के रीतिरिवाजों, यहां के इतिहास आदि से पूरी तरह वाकिफ थे। लेकिन फिलिस फॉग ने इन सब बातों के बारे में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई क्योंकि वे टूरिस्ट के तौर पर यात्रा नहीं कर रहे थे, वे तो मानों एक ठोस पिंड के समान थे जिसे तार्किक नियमों का पालन करते हुए महज पृथ्वी की परिधि का एक चक्कर पूरा करना था।
इस पल भी वे अपने दिमाग में यही हिसाब लगा रहे थे कि उन्हें लंदन से यहां तक आने में कुल कितने घंटे लगे और अगर उनकी आदत बेमतलब का दिखावा करने की होती तो वे इस वक्त संतोष की गहरी सांस भर रहे होते।

सर फ्रांसिस ने अपने हमसफर के अनोखेपन पर गौर किया था, हालांकि उन्हें फॉग को जानने का मौका सिर्फ तभी मिलता था जब वे ताश के पत्ते बांट रहे होते थे या दो बाजियों के बीच के वक्त में। वे अपने-आप से प्रश्न कर रहे थे कि इस पत्थर जैसे व्यक्तित्व के पीछे क्या सचमुच मनुष्य का दिल धड़कता है, क्या फॉग को प्रकृति की सुंदरता का ज़रा भी अहसास है? ब्रिगेडियर जनरल ने मन-ही-मन स्वीकार किया कि अब तक वह जितने भी सिरफिरे लोगों से मिले थे उनमें से कोई भी इस अजूबे की टक्कर का नहीं था।
फिलिस फॉग ने सर फ्रांसिस से कुछ नहीं छिपाया, न तो अपना इस तरह दुनिया का चक्कर लगाने का उद्देश्य और न ही यह कि किन परिस्थितियों में उन्होंने ऐसा करने का निर्णय लिया था। जनरल को फॉग की इस शर्त में केवल बेसिर-पैर पागलपन और स्वस्थ सामान्य बुद्धि की कमी के सिवाय और कुछ नजर नहीं आया। जिस तरीके से यह विचित्र यात्री आगे बढ़ रहा था, उससे तो किसी का भी भला नहीं होने वाला था, न तो स्वयं उसका और न ही किसी दूसरे का। और इस तरह वह बिना कुछ अच्छा किए ही इस दुनिया से चला जाने वाला था।
बंबई छोड़ने के एक घंटे बाद रेलगाड़ी सेलसेट द्वीप व पुलों को पार कर खुले प्रदेश में आ गई। कल्याण में वे उस ब्रांच लाइन के जंक्शन पर पहुंचे जो नीचे दक्षिण-पूर्व की ओर खंडाला और पूना जाती थी; और फिर गाड़ी ने पॉवेल को पार कर पहाड़ों के तंग दरों में प्रवेश किया। इन पहाड़ों का आधार बेसाल्ट (एक चट्टान) का था, और इनकी चोटियों पर घने जंगल थे। दोनों यात्री आपस में कभी-कभी थोड़ी-बहुत बातचीत कर लेते थे।

सर फ्रांसिस ने फिर से बातचीत शुरू करते हुए कहा, "अगर आपने कुछ वर्ष पहले ऐसी शर्त लगाई होती तो आप अवश्य हार गए होते क्योंकि इस जगह पर आकर आपका बहुत समय नष्ट हो जाता।''
"ऐसा क्यों, सर फ्रांसिस?"
"क्योंकि उस समय यह गाड़ी इन पहाड़ों की तलहटी में रुक जाती थी, और मुसाफिरों को पहाड़ों के दूसरी ओर खंडाला तक पालकी या खच्चरों से जाना पड़ता था।''
"इस प्रकार की देरी से मेरे इरादे पर जरा भी असर नहीं पड़ता", फॉग ने कहा, "मैं इस प्रकार की बाधाओं की संभावना के लिए पहले से तैयार रहता हूं।'
"लेकिन मिस्टर फॉग", सर फ्रांसिस ने बात जारी रखते हुए कहा, “आपको आपके इस साथी के मंदिर में किए गए दुःसाहस की वजह से कुछ परेशानी होने का खतरा है।'' पासपार्टआउट कंबल में लिपटा आराम से सो रहा था। उसे सपने में भी नहीं आया कि कोई उसके बारे में बात कर रहा था।
"सरकार का रवैया इस तरह के अपराधों के बारे में काफी कठोर है। इस बात का खास ध्यान रखा जाता है कि हिन्दुस्तान के रीति-रिवाज़ों को पूरी इज्ज़त दी जाए और अगर आपका यह आदमी पकड़ा जाता।"
“बहुत अच्छा, सर फ्रांसिस', फॉग ने जवाब दिया, “अगर ये पकड़ा भी जाता तो इसे सज़ा मिलती और फिर यह कुछ दिन बाद चुपचाप यूरोप वापस चला जाता। मैं नहीं समझ सकता कि उसके इस किस्से से उसके स्वामी को किस तरह देर होती?"

बातचीत फिर रुक गई। रात के सफर में गाड़ी पहाड़ों को पीछे छोड़ और नासिक पार कर अगले दिन खानदेश प्रदेश के समतल, लहराते खेतों में आ पहुंची। इस इलाके में बड़े-बड़े गांव फैले हुए थे, जिनमें मंदिरों के ऊपर उठे हुए गुंबज दूर से दिखाई दे जाते थे। इस उपजाऊ प्रदेश की सिंचाई अनगिनत छोटी-छोटी नदियों से होती है जो ज्यादातर गोदावरी की सहायक नदियां हैं।

पासपार्टआउट सोकर उठा और उसने बाहर देखा तो एकबारगी वह समझ ही नहीं पाया कि वह वाकई रेलगाड़ी में बैठा हिन्दुस्तान को पार कर रहा है। रेल के इंजन को एक अंग्रेज़ इंजीनियर चला रहा था और उसमें जलने वाला कोयला भी इंग्लैंड का ही था। इंजन अपना धुंआ कपास, कॉफी, जायफल, लौंग, काली-मिर्च के बागानों पर फेंक रहा था। जबकि भाप ताड़ के पेड़ों के झुंडों के चारों ओर चक्कर लगा रही थी जिनके बीच में खूबसूरत बंगले, विहार और हिन्दुस्तानी वास्तुशिल्प से सजे सुंदर मंदिर थे; और आगे जाने पर वे इतने विशाल इलाकों में पहुंच गए जो कि ऐसा लगता था मानों क्षितिज तक फैले हुए हों। यहां घने जंगल थे, जिनमें सांप, बाघ आदि जानवर रहते थे। ये जानवर गाड़ी की आवाज़ सुनकर दूर भाग जाते थे, जंगल में हाथी भी थे जो उदास नज़रों से गाड़ी को जाते देखते रहते थे।

आगे बढ़ते हुए यात्रियों ने मालेगांव पार किया। यह वह देश था जहां ‘मां काली संप्रदाय' के अनुयायियों के कारण कई बार रक्तपात हुआ था। पास ही एलोरा के मंदिरों के शानदार गुंबज ऊपर उठे हुए दिख रहे थे। और औरंगाबाद भी नज़र आ रहा था, जो किसी समय खूखार बादशाह औरंगजेब की राजधानी रही थी। आजकल यह निज़ाम के राज्य से अलग हुए प्रांत का प्रमुख नगर है। वहीं कहीं आसपास ही ठगों के मुखिया फरींगी का राज्य था जो गला घोटकर मारने वालों का उस्ताद था। ये ठग आपस में किसी गुप्त बंधन से बंधे थे। ये लोग मृत्यु की देवी के सम्मान में, किसी भी उम्र के शिकार को, बिना खून गिराए गला घोटकर मार डालते थे। एक समय ऐसा भी था जब देश के इस भूभाग में यात्रा करते हुए अक्सर चारों तरफ लाशें नज़र आती थीं। अंग्रेज़ सरकार इन हत्याओं को रोकने में काफी हद तक सफल रही। हालांकि अभी भी ठगी की घटनाएं होती हैं और वे लोग अपना यह भयानक धार्मिक अनुष्ठान भी करते हैं।

साढ़े बारह बजे गाड़ी बुरहानपुर ठहरी जहां पासपार्टआउटे ने कुछ हिन्दुस्तानी चप्पल खरीदीं। इन चप्पलों पर नकली मोतियों का काम किया गया था। उसने बहुत शान के साथ इन्हें पहना। मुसाफिरों ने जल्दी-जल्दी नाश्ता किया और फिर गाड़ी असीरगढ़ की ओर चल पड़ी। थोड़ी दूर तक गाड़ी ताप्ती नदी के किनारे उसके साथ-साथ चली। यह छोटी-सी नदी सूरत के निकट खंभात की खाड़ी में गिरती है।
पासपोर्टआउट अब दिवास्वप्नों में खो गया था। बंबई पहुंचने तक उसे उम्मीद थी कि उनकी यात्रा वहां खत्म हो जाएगी; लेकिन अब जबकि वे लोग पूरी रफ्तार के साथ हिन्दुस्तान के आर-पार जा रहे थे उसके ख्वाबों ने अचानक ही पलटा खाया, उसकी घुमक्कड़ी की पुरानी आदत फिर से लौट आई। उसकी जवानी के सपनों ने एक बार फिर से उसे बस में कर लिया था।
वह अपने स्वामी की योजना को महत्वपूर्ण मानने लगा था और शर्त की वास्तविकता में विश्वास करने लगा था। इसलिए दुनिया के दौरे और इसे निश्चित समय में पूरा करने की आवश्यकता भी समझने लगा था। अब उसने रास्ते में घट सकने वाली दुर्घटनाओं और रुकावटों के बारे में सोचना शुरू कर दिया था। वह खुद इस शर्त में दिलचस्पी लेने लगा और पिछली रात की मंदिर वाली घटना को याद कर कांप उठा कि उसकी माफ न करने लायक वो बेवकूफी शर्त हारने का जरिया बन सकती थी।
वह फॉग से कहीं कम ठंडे दिमाग वाला इंसान था इसीलिए बहुत ज्यादा बेचैन था। वह गुजरे हुए दिनों को बार-बार गिन रहा था और जब गाड़ी रुकती तो आक्रोश में अपशब्द बोलने लगता और गाड़ी को उसकी सुस्त चाल के लिए दोष देने लगता। वह मन-ही-मन मिस्टर फॉग को भी कोस रहा था कि उन्होंने गाड़ी के इंजीनियर को रिश्वत क्यों नहीं खिला दी; उस बंदे को यह नहीं मालूम था कि जहां इस तरह की तरकीबों से स्टीमर की रफ्तार को तेज करना संभव था, रेलगाड़ी के साथ ऐसा नहीं किया जा सकता था।

शाम को गाड़ी ने सतपुड़ा पहाड़ी के दर्रे में प्रवेश किया, जो कि खानदेश को बुंदेलखंड से अलग करता है। अगले दिन सर फ्रांसिस ने पासपोर्टआउट से समय पूछा, जिस पर पासपार्टआउट ने अपनी घड़ी देखकर कहा कि सुबह के तीन बजे हैं। उसकी यह मशहूर घड़ी हमेशा ग्रीनविच समय से मिली रहती थी। इस समय वह घड़ी ग्रीनविच से 77 डिग्री पूर्व में थी और इसलिए यहां के समय के हिसाब से कम-से- कम चार घंटे पीछे थी।
सर फ्रांसिस ने उसे ठीक समय बताते हुए कहा कि हरेक नई देशांतर रेखा पर पहुंचने पर घड़ी को ठीक कर लेना चाहिए, क्योंकि पूर्व की ओर जाने पर हर एक डिग्री पार करने पर दिन चार मिनट पहले उगता है। लेकिन पासपार्टआउट ने हठवश अपनी घड़ी का समय बदलने से इंकार कर दिया, जिसे उसने लंदन के समय से मिला रेखा था। वह एक निष्कपट अम बनाए हुए था जिससे किसी को कोई नुकसान नहीं हो रहा था।
गाड़ी आठ बजे रोथल से 15 मील आगे वनों के बीच एक मैदान में रुकी। वहां बहुत से बंगले और कामगारों के केबिन थे। डिब्बों के पास से गुज़रते हुए कंडक्टर चिल्लाकर कहने लगा, मुसाफिरों को यहां उतरना होगा।”
मिस्टर फॉग ने इसका मतलब जानने के लिए सर फ्रांसिस की ओर देखा लेकिन जनरल कुछ नहीं बता सके कि इस खजूर और बबूल के जंगल में ठहरने का मतलब क्या था। पासपार्टआउट को भी कम आश्चर्य नहीं हुआ। वह बाहर भागा और फिर तेज़ी से वापस आया और चिल्लाया,

"हुजूर आगे रेल नहीं है।'
“तुम्हारा क्या मतलब है", सर फ्रांसिस ने पूछा।
"मेरे कहने का मतलब यह है कि गाड़ी आगे नहीं जा रही।''
जनरल तुरंत ही बाहर निकले और उनके पीछे पीछे मिस्टर फॉग इत्मीनान के साथ बाहर आए। दोनों साथ-साथ कंडक्टर के पास पहुंचे और उससे पूछा,
"हम कहां हैं?"
"खोलबी गांव में।"
“क्या हम यहीं रुकेंगे?"
"हां, क्योंकि रेल लाइन अभी पूरी नहीं बिछी है।”
“क्या? अभी पूरी बिछी नहीं है?"
“देखिए, ऐसा है कि यहां से पचास मील दूर इलाहाबाद तक रेल लाइन बिछाना अभी बाकी है। वहां से लाइन फिर से शुरू हो जाएगी।"
"लेकिन अखबारों में तो शुरू से अंत तक पूरी तरह रेल लाइन के खुल जाने की घोषणा थी।'
“आपको क्या लगता है? एकदम साफ है कि अखबार गलत थे।''
"फिर भी आप बंबई से कलकत्ता तक के टिकट बेचते हैं", सर फ्रांसिस ने कहा। अब उन्हें भी गुस्सा आने लगा था।

"इसमें तो कोई शक नहीं है, कंडक्टर ने जवाब दिया, लेकिन मुसाफिर जानते हैं कि खोलबी से इलाहाबाद तक जाने के लिए वाहन का इंतज़ाम उन्हें खुद करना होगा।
सर फ्रांसिस बहुत गुस्से में थे। इस वक्त पासपार्टआउट ने सहर्ष कंडक्टर को मार कर नीचे गिराया होता। उसकी अपने स्वामी की ओर देखने की हिम्मत भी नहीं हो रही थी।
“सर फ्रांसिस', मिस्टर फॉग ने शांति से कहा, “अगर आप कहें तो हम लोग इलाहाबाद तक जाने के लिए कोई सवारी देखें।"
"मिस्टर फॉग, यह देरी आपके लिए काफी नुकसानदायक हो सकती है।”
"नहीं सर, इसको तो मैंने पहले से ही भांप लिया था।'
“क्या! क्या आप रास्ते के बारे में......"
"नहीं नहीं, जरा-सा भी नहीं। लेकिन मैं यह जानता था कि मेरे रास्ते में कभी-न-कभी, कोई-न-कोई बाधा अवश्य आएगी। इसलिए हमने कुछ भी नहीं खोया है। मेरे पास अभी दो दिन का वक्त बचा हुआ है जो मैंने ऐसे ही मौके पर गंवाने के लिए बचाया था। कलकत्ता से हांगकांग के लिए एक स्टीमर 25 तारीख को दोपहर को चलेगा। आज 22 तारीख ही है। हम वक्त पर कलकत्ता पहुंच जाएंगे।''

इतने आत्मविश्वास पूर्ण जवाब के बाद कहने के लिए और कुछ रह ही नहीं गया था।
यह सच था कि रेल लाइन इस जगह आकर खत्म हो जाती थी। अखबार कुछ ऐसी घड़ियों की तरह होते हैं जिनकी आदत बहुत तेज़ चलने की होती है। उन्होंने रेल लाइन के पूरा होने की घोषणा भी उसके पूरा हुए बिना ही कर दी थी। ज्यादातर मुसाफिरों को इस रुकावट की जानकारी थी और गाड़ी से उतरते ही वे गांव में मिलने वाली सवारियों का इंतजाम करने में लग गए थे, जैसे इक्का, रथ, बैलगाड़ी, खच्चर, पालकी आदि।
फॉग और सर फ्रांसिस ने गांव में एक छोर से दूसरे छोर तक सवारी ढूंढी, लेकिन उन्हें कोई सवारी नहीं मिली और वे वापस आ गए।
"मैं पैदल ही जाऊंगा', फॉग ने कहा।
पोसपार्टआउट भी अब तक वापस आ गया था और उसने यह सुनकर भौएं सिकोड़ी। उसे अपनी शानदार लेकिन नाजुक हिन्दुस्तानी चप्पलों की फिक्र थी। वह भी वाहन की खोज में गया था। थोड़ा हिचकिताते हुए उसने कहा, “हुजूर मुझे लगता है, मैंने जाने के लिए साधन ढूंढ लिया है।''
"क्या?"
"एक हाथी, यह एक हिन्दुस्तानी का हाथी है जो यहां से लगभग सौ कदम की दूरी पर रहता है।'
“चलो, हम चलकर उस हाथी को देखें", फॉग ने जवाब दिया। जल्दी ही वे लोग एक छोटी-सी झोंपड़ी के पास पहुंचे जहां बाड़े में वह हाथी खड़ा था। एक हिन्दुस्तानी आदमी झोंपड़ी से बाहर आया और उनके आग्रह पर उन्हें बाड़े में ले गया। उस हाथी का पालन पोषण उसके मालिक ने बोझा ढोने वाली जानवर बनाने के लिए नहीं किया था बल्कि वह उसे युद्ध आदि में काम आने वाला बनाना चाहता था। वह आधा पालतू था, इसके लिए वह हिन्दुस्तानी आदमी उसे अक्सर गुस्सा दिलाया करता था; और हर तीन महीने बाद उसे चीनी और मक्खन खिलाया करता था; जिससे उसमें वो उग्रता आ जाए जो कि हाथी के स्वभाव में नहीं होती। यह तरीका हाथियों को युद्ध के लिए ट्रेनिंग देने वाले अक्सर काम में लाते हैं।

फॉग के लिए यह खुशी की बात थी कि इस दिशा में अभी तक उस हाथी को ज्यादा ट्रेनिंग नहीं दी गई थी। हाथी में अभी तक उसकी प्राकृतिक नम्रता सुरक्षित थी। उसका नाम किऔनी था। किऔनी निःसंदेह तेजी से और लंबे समय तक यात्रा कर सकता था। यात्रा के लिए कोई और साधन नहीं मिलने पर फॉग ने उसे ही किराए पर लेने का निश्चय किया। हिन्दुस्तान में हाथी सस्ते नहीं मिलते क्योंकि यहां ये कम होते जा रहे हैं। नर हाथियों की मांग अधिक होती है क्योंकि सरकस के लिए नर हाथी ही उपयुक्त होते हैं। उनमें से भी कुछेक को ही पालतू बनाया जा सकता है।
जब फॉग ने हिन्दुस्तानी से हाथी किराए पर देने को कहा तो उसने साफ इंकार कर दिया। फॉग लगातार आग्रह करते रहे और उन्होंने उस हाथी को इलाहाबाद तक ले जाने के लिए दस पौंड प्रति घंटा जैसी बड़ी रकम देने का प्रस्ताव रखा। हिन्दुस्तानी ने मना कर दिया। बीस पौंड प्रति घंटे पर भी वह नहीं माना। यहां तक कि चालीस पौंड प्रति घंटा पर भी राज़ी नहीं हुआ। हर बार पैसा बढ़ाने पर पासपोर्टआउट उछलता लेकिन हिन्दुस्तानी लालच में नहीं आया। फिर भी प्रस्ताव बहुत लुभावना था, मान लीजिए हाथी को इलाहाबाद पहुंचने में पंद्रह घंटे लगते हैं, तो उसके मालिक को छ: सौ पौंड मिलेंगे।
फॉग ने जरा भी विचलित हुए बिना सीधे ही हाथी को खरीदने का प्रस्ताव रख दिया और उसके लिए एक हजार पौंड देने की बात कही। शायद हिन्दुस्तानी ने सोचा होगा कि वह कोई बड़ा सौदा करने जा रहा है, इसलिए इस पर भी उसने साफ मना कर दिया।

सर फ्रांसिस, फॉग को एक ओर ले गए और उनसे कहा कि और ज्यादा आगे बढ़ने से पहले, वे अच्छी तरह सोच-समझ लें। इस पर फॉग ने जवाब दिया कि तैश में आकर कुछ करने की उनकी आदत नहीं है। बीस हज़ार पौंड की शर्त दांव पर लगी है। उस वक्त हाथी उनके लिए बहुत आवश्यक है। और अगर हाथी की कीमत का बीस गुना भी देना पड़ा, तब भी वे उसे ले लेंगे। वे लोग हिन्दुस्तानी के पास वापस आए, उसकी आंखों की तेजी से साफ लग रहा था कि उसके लिए सिर्फ यही प्रश्न बाकी था कि वह ज्यादा-से-ज्यादा कितनी कीमत वसूल कर सकता है।
मिस्टर फॉग ने पहले बारह सौ, फिर पंद्रह सौ, अठारह सौ और फिर दो हजार पौंड की पेशकश की। पासपोर्टआउट जिसका चेहरा हमेशा लाल-सा लगता था, हैरत से सफेद हुआ जा रहा था।
हाथी की कीमत दो हजार पौंड देने की पेशकश को हिन्दुस्तानी मान गया।
"हे भगवान! एक हाथी की इतनी ऊंची कीमत", पासपोर्टआउट चिल्लाया।
अब सिर्फ एक मार्गदर्शक ढूंढना बाकी रह गया था, जो इसकी तुलना में काफी आसान था। एक युवा पारसी, जो शक्ल सूरत से होशियार लगता था, यह काम करने के लिए आगे आया। फॉग राजी हो गए और उन्होंने उसका जोश बढ़ाने के लिए उसे काफी ज्यादा पैसा देने का वादा किया। हाथी बाहर लाया गया और उस पर साजसामान बांधा गया। पारसी एक कुशल महावत भी था। उसने हाथी की पीठ को एक जीन की तरह के कपड़े से ढांक दिया और उसके ऊपर एक अजीब-सा बेआराम हौदा उसकी बगल से बांध दिया।
मिस्टर फॉग और उनके साथी ने अपनी आगे की यात्रा हिन्दुस्तानी जंगलों में से होकर जारी रखी।


ज्यूल्स वर्गः (1828--1905) कानून की पढ़ाई करने के बावजूद उनका झुकाव विज्ञान गल्प लिखने की ओर था। बिना किसी शक के कहा जा सकता है कि 19वीं सदी में विज्ञान गल्प की परम्परा की उन्होंने ही शुरुआत की। ज्यूल्स वर्न की लेखन प्रतिभा की झलक उनके द्वारा लिखी गई काल्पनिक यात्रा कथाओं में दिखाई देती है। ‘फाइव वीक्स इन ए बेलून' से शुरू करके उन्होंने चांद तक का सफर, धरती के केन्द्र की यात्रा, पनडुब्बी के सहारे समुद्री यात्रा जैसी बहुत-सी विज्ञान कथाएं लिखीं। इनमें सबसे मशहूर 'अराउंड द वर्ल्ड इन एटी डेज़' ही है जिसे आज भी पसंद किया जाता है। इस कहानी व उनकी और कई कहानियों पर फिल्में भी बनाई गई हैं।
पुष्पा अग्रवाल: शौकिया तौर पर अनुवाद करती हैं। जयपुर में रहती हैं।