डॉ. राजाराम नित्यानंद

विज्ञान की स्नातक उपाधि यानी सामान्य बी.एससी. से काफी अंसतोष महसूस किया जा रहा है। अच्छे अंकों से उत्तीर्ण बी.एससी. छात्रों में भी प्रवेश परीक्षाओं और साक्षात्कारों के दौरान समझ और हुनर की कमी नज़र आती है। भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थानों (आईसर) की स्थापना इसी के प्रत्युत्तर में की गई थी। केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आईआईटी के पांच या चार वर्षीय स्नातक विज्ञान कोर्स इन नए प्रयासों से पहले से अस्तित्व में रहे हैं और इनके कई छात्र अनुसंधान के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। इनके अलावा 6 साल पहले भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी) ने अपना स्नातक कार्यक्रम शुरू किया था। ये सारे कार्यक्रम अपनी सफलता का आकलन इस आधार पर करते हैं कि उनके कितने छात्र आगे जाकर पीएच.डी. करते हैं, विदेश गए तो और भी बेहतर। सारी दिक्कतों के बावजूद, विश्वविद्यालयों के कुछ बी.एससी. कोर्सेस ने भी अपनी गति बनाए रखी है और इनके कई छात्र अनुसंधान के क्षेत्र में पहुंचते हैं।

हमारे जैसे बड़े देश में अच्छी गुणवत्ता के ऐसे कार्यक्रमों के लिए अभी बहुत जगह है, जो भावी अनुसंधानकर्ताओं को प्रशिक्षित करें। अलबत्ता, इनकी संख्या देश में कुल बी.एससी. उपाधिधारकों में से अंश मात्र ही रहेगी। यह आलेख शेष छात्रों के बारे में है।
मोटे तौर पर देखें तो किसी भी समय स्नातक स्तर पर विज्ञान के अध्ययन में लगभग 50 लाख छात्र होते हैं। इनमें से 45 प्रतिशत लड़कियां होती हैं। यह इंजीनियरिंग में लड़कियों के प्रतिशत से ज़्यादा है। कई जगहों पर पाठक्रम को निकट के किसी शोध संस्थान के नेकनीयत वैज्ञानिकों की मदद से ‘आधुनिकीकृत’ और ‘उन्नत’ बनाया गया है। ये वैज्ञानिक इन विश्वविद्यालयों के बोर्ड ऑफ स्टडीज़ के सदस्य होते हैं। आधुनिकीकरण का आम रुझान यह है कि ज़्यादा से ज़्यादा एडवांस्ड और विशेषीकृत विषय जोड़ दिए जाएं। कोई छात्र इस सामग्री पर पकड़ बना ले तो वह किसी भी अच्छे स्नातकोत्तर कोर्स या शायद पीएच.डी. में प्रवेश के लिए तैयार होगा/गी। वास्तव में, प्रवेश स्तर पर तमाम चलनियों के बावजूद, स्नातकोत्तर और डॉक्टरल स्तर के सारे कार्यक्रम अपने-अपने कोर्सवर्क के साथ शुरू होते हैं, जिनमें स्नातक स्तर के सारे एडवांस्ड विषयों को एक बार फिर दोहराया जाता है।

ज़ाहिर है, कक्षाओं में जो कुछ ‘सिखाया’ जाता है, उसे छात्र ‘ग्रहण’ नहीं कर पाते। चंद सम्मानजनक अपवादों को छोड़ दें, तो हमारे स्नातक कार्यक्रम एक तरह की रस्म अदायगी बन गए हैं। ये कार्यक्रम साल-दर-साल लाखों युवाओं में, उनके जीवन के सबसे उत्पादक वर्षों में, बौद्धिक अपच पैदा करते हैं। वर्तमान मॉडल में ये स्नातक तो पुछल्ले हैं - उच्च शिक्षा व अनुसंधान में पहुंचने वाली सारी प्रतिभा को सोख लेने के बाद बची तलछट। एक औद्योगिक प्रक्रिया की नज़र से देखें तो इसे निपट बरबादी ही कहा जाएगा।
ध्यान दें कि अब 11वीं और 12वीं के स्तर पर विज्ञान अध्यापकों के लिए एम.एससी. होना अनिवार्य है। इस बात पर विवाद हो सकता है कि इससे शिक्षा का स्तर सुधरता है या नहीं किंतु हकीकत यही है। स्नातकोत्तर उपाधि हासिल करने वालों की बड़ी संख्या अध्यापन व्यवसाय में जाती है। यह बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि यह अगली पीढ़ी के छात्रों को तैयार करता है। अर्थात स्नातक उपाधि के कम से कम तीन परिणाम होते हैं -
1. अनुसंधान/अनुसंधान-सह-अध्यापन,
2. मुख्यत: अध्यापन, और
3. बाकी सारे।

सूची में पहले से तीसरे क्रमांक तक संख्याओं में भारी बढ़ोतरी होती है। मगर इन पाठ¬क्रमों की डिज़ाइन ‘मुख्यत: अध्यापन’ और ‘सामान्य’ श्रेणियों के लिए नहीं बनी है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि विज्ञान के स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले अधिकांश छात्रों को सीखने, सराहने, आनंद लेने, साथ ले जाने और उपयोग करने के लिए कुछ न कुछ तो मिलना चाहिए। क्या यह संभव है?

सिलेबस को सुदृढ़ करना इसका जवाब नहीं है। यह बात मुझे अपने क्षेत्र भौतिकी में साफ नज़र आती है। इसमें विषय के अधिकांश एडवांस्ड हिस्सों को सीखने के लिए बुनियादी बातों में सशक्त समझ ज़रूरी है। यांत्रिकी, विद्युत-चुंबकत्व और ऊष्मा के पहले और दूसरे कोर्स की विषयवस्तु उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में भलीभांति समझ में आती थी। सिलेबस में नए-नए विषय जोड़ने की अनिवार्यता शायद इस सच्ची आकांक्षा में से उभरती है कि कहीं हमारे छात्र सौ साल पिछड़ न जाएं। किंतु परिणाम अक्सर कमज़ोर बुनियाद के रूप में सामने आता है। ज़्यादा एडवांस्ड या ट्रेंडी विषयों को कवर करने की जल्दबाज़ी अपनी छाप छोड़ जाती है।

कई जगहों पर अधिक सशक्त बी.एससी. पाठ¬क्रमों के विकास का एक और बहाना दिखता है, कम से कम कागज़ों पर। अधिकांश बुनियादी भौतिकी (और साथ में केल्कुलस, रैखीय बीजगणित और सदिश), जिसकी ज़रूरत आगे बढ़ने के लिए पड़ती है, उसमें से अधिकांश तो पहले ही 11वीं-12वीं की मानक पाठ¬पुस्तकों में और प्रमुख प्रवेश परीक्षाओं में शामिल किया जा चुका है। यह सिर्फ कागज़ी औचित्य है क्योंकि 11वीं-12वीं का सिलेबस बहुत भारी-भरकम है और इसलिए उसे समझ की दृष्टि से नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की तैयारी के लिहाज़ से रटंत पद्धति से पूरा किया जाता है। वास्तव में यह सामग्री सारे गुणवत्तापूर्ण स्नातक कार्यक्रमों, जिनका ज़िक्र मैंने ऊपर किया था, के प्रथम वर्ष में फिर से पढ़ाई जाती है।

आज हमारे पास एक ऐसा ढांचा है जिसके तहत एक ज़्यादा लचीला और संवेदनशील स्नातक शिक्षा का कार्यक्रम चल सकता है। यह ढांचा सीबीसीएस अर्थात चॉइस बेस्ड क्रेडिट सिस्टम का है। इसे अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की स्वीकृति भी मिल चुकी है। अधिकारिक (और कुछ हद तक दादागिरीनुमा) दिशानिर्देश सही बातें कहने का भरसक प्रयास करते हैं। इनमें कार्यक्षमता, समता और उत्कृष्टता की तिकड़ी विशेष रूप से नज़र आती है। इन दिशानिर्देशों की व्याख्या एक अलग मसला है। सीबीसीएस एक दुधारी तलवार है। एक विश्वविद्यालय, जिसका नाम उजागर नहीं करूंगा, ने पहले सेमेस्टर में तरल गतिकी और एकूस्टिक का कोर्स रख दिया है। यांत्रिकी का कोर्स जाकर पांचवे सेमेस्टर में प्रकट होता है, जिसमें रॉकेट्स, उपग्रह और जहाज़ों का तैरना-डूबना शामिल है। यह कोर्स विद्युत-चुंबकत्व और ऊष्मा-गतिकी के काफी बाद आता है। सापेक्षता और क्वांटम यांत्रिकी - सिर्फ विवरणात्मक नहीं बल्कि तकनीकी बारीकियों के साथ - एक अकेले कोर्स में गणितीय भौतिकी के साथ आखरी सेमेस्टर में आते हैं। इन पर्चों के अलावा वैकल्पिक पर्चे, सामान्य पर्चे और आजकल सर्वव्यापी हो चुके ‘सॉफ्ट’ हुनर हैं। ये ‘सॉफ्ट’ हुनर निसंदेह व्यापारिक जगत की सेवा के लिए रखे गए हैं।

मैंने जिन सारे बी.एससी. कोर्सेस को देखा वे सब इतने विचित्र तो नहीं थे किंतु यदि हम अधिकांश छात्रों की दृष्टि से देखें तो सबके सब अयथार्थवादी थे। दोष चॉइस या क्रेडिट में नहीं है। ये तो मूल्यवान साबित हो चुके हैं। ज़रूरत इस बात की है कि नई व्यवस्था जिन परिवर्तनों की गुंजाइश देती है, उन परिवर्तनों के लक्ष्य परिभाषित किए जाएं। वैश्वीकरण, ज्ञान-आधारित समाज, और व्यावसायिकरण जैसे मंत्रों का जाप आजकल खूब किया जाता है। आदर्श रूप में उपाधियों को छात्रों को तीन दशक के उनके जीवन तथा 21वीं सदी में आजीविका में मदद करनी चाहिए। इसके विपरीत, आज जो कुछ हम परोस रहे हैं, वह या तो विषयगत भारी-भरकम विषयवस्तु है या फिर मौजूदा फैशन और लोकप्रिय जुम्लों के पैकेज हैं।

हम इससे तो बेहतर कर सकते हैं। आजकल अधिकांश नौकरियों - अनुसंधान समेत - में अपने प्रशिक्षण कार्यक्रम होते हैं। इसलिए उन नौकरियों की ज़रूरतों का अंदाज़ा लगाने और उन प्रशिक्षण कार्यक्रमों की नकल उतारने की ज़रूरत नहीं है। ऐसे प्रयास आम तौर पर निष्प्रभावी होते हैं और जल्दी ही पुराने पड़ जाते हैं। बेहतर होगा कि छात्र जीवन की इस विशेष अवधि का उपयोग व्यापक क्षमताएं विकसित करने हेतु किया जाए, जो विविध संभावित भविष्यों में उनका साथ देंगी। यह भविष्य एक कर्मचारी के रूप में हो या उद्यमी के रूप में, किंतु नागरिक तो वे रहेंगे ही। सिर्फ यह अंदाज़ लगाकर कि भविष्य के गर्भ में क्या है, किसी को भी भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं बनाया जा सकता। संकीर्ण प्रशिक्षण के खिलाफ यही तर्क है। अलबत्ता, हम इतना तो पक्के तौर पर कह सकते हैं कि आज स्नातक होने वाले व्यक्तियों के लिए ज़रूरी होगा कि वे बोलकर व लिखकर प्रभावी संप्रेषण कर सकें, तार्किक, व्यावहारिक व मात्रात्मक ढंग से सोच सकें, और देश के घटनाक्रम की व्यापक तस्वीर से वाकिफ हों। उन्हें जानकारी की बाढ़ से निपटना होगा और उसका उपयोग करना होगा और डिजिटल दुनिया से जूझना होगा, संवाद करना होगा और उसमें रमना होगा। ये ‘सॉफ्ट हुनर’ नहीं हैं। ये किसी विषय-विशेष से बंधे नहीं हैं, किंतु किसी भी विषय के संदर्भ में इनको विकसित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, विज्ञान की उपाधि में एक कोर्स सेमीनार का हो सकता है, जो विज्ञान के विकास व दुनिया पर उसके प्रभाव से सम्बंधित सर्वोत्तम लेखन, दस्तावेज़ों या पुस्तकों पर आधारित हो सकता है। इस तरह का कोर्स निश्चित तौर पर पढ़ने-लिखने-बोलने को बढ़ावा देगा, जिन्हें आम तौर पर साहित्य के विद्यार्थियों का क्षेत्र माना जाता है। यह भी ज़रूरी है कि विषय की सीमाओं को बहुत गंभीरता से न लिया जाए। जो भौतिक शास्त्री आवर्त तालिका या जैव विकास,  जेनेटिक्स से अनभिज्ञ है, वह काफी कुछ गंवा रहा है। विभिन्न स्तरों पर अन्य विषयों के कोर्स लेने की गुंजाइश होनी चाहिए। कई स्नातक आगे चलकर स्कूल शिक्षक बनते हैं। अत: यह सवाल ज़रूरी है कि हम अगली पीढ़ी के शिक्षकों को क्या पृष्ठभूमि देना चाहते हैं।

ज़्यादा व्यापक विकल्प उच्च शिक्षा को दृष्टिगत रखकर प्रदान नहीं किए जाते, किंतु उच्च शिक्षा को अनदेखा भी नहीं किया जाता। कई छात्रों की विज्ञान में रुचि 12वीं की घिसाई के दौरान बोथरी पड़ जाती है किंतु एक अच्छा स्नातक पाठ¬क्रम उसे फिर जाग्रत कर देता है। विकल्पों के ज़रिए विभिन्न मार्ग उपलब्ध कराना, प्रोजेक्ट का विकल्प प्रदान करना और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि स्वयं सीखने व खोजबीन के लिए कुछ संसाधन और समय रखना तो सारे विद्यार्थियों के लिए कारगर होगा - चाहे वे उच्च शिक्षा में कदम रखें या न रखें। सबके लिए एक संपूर्ण व समग्र विषयगत सिलेबस तो हमेशा से एक बहकावा रहा है। इसके स्थान पर एक केंद्रीय विषयवस्तु रखी जा सकती है जिसे भलीभांति आत्मसात किया जा सके और इसके आगे कई सारे विकल्प होंगे ताकि ‘सबके लिए सब कुछ’ की परेशानी से बचा जा सके।
एक क्षेत्र जहां सुदृढ़ीकरण की ज़रूरत होगी वह है कि विज्ञान आकार कैसे लेता है और वह इस दुनिया को कैसे आकार देता है। भौतिकी के जिस छात्र को यह नहीं पता कि जीपीएस फंक्शन्स से युक्त एक मोबाइल फोन कैसे काम करता है, तो उसने काफी कुछ गंवा दिया है। जो कई सारे लोग विज्ञान स्नातक उपाधि अर्जित करेंगे उन्हें एक ज़्यादा व्यापक सरोकार को पहचानना चाहिए। वह सरोकार है कि विज्ञान को मात्र पेशेवर वैज्ञानिक समुदाय के लिए नहीं बल्कि लोगों के ज़्यादा व्यापक समूह के लिए अर्थपूर्ण होना चाहिए; तकनीकी बारीकियां न हों किंतु सिर्फ सतही स्तर पर भी न हो। इस बात को 1980 के दशक के यूएस के मशहूर विज्ञान संप्रेषक कार्ल सेगन ने बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया था। 1996 में उनके एक साक्षात्कार से लिए गए ये शब्द आज भी बहुत मौजूं हैं, “हमने विज्ञान और टेक्नॉलॉजी पर आधारित एक समाज सजा लिया है, जिसमें कोई भी विज्ञान व टेक्नॉलॉजी के बारे में कुछ नहीं समझता। और अज्ञान व सत्ता का यह विस्फोटक सम्मिश्रण देर सबेर हमारे सामने फूटेगा। यदि प्रजातंत्र में लोग इसके बारे में कुछ नहीं जानते तो विज्ञान व टेक्नॉलॉजी को चलाता कौन है?” शब्द ‘सजा लिया है’ पर गौर कीजिए। चाहें तो इस बात को यूएस के संदर्भ में ही देखें किंतु यह हम सब पर लागू होती है जो विज्ञान शिक्षा की वर्तमान व्यवस्था से वास्ता रखते हैं तथा आम लोगों तक विज्ञान संचार की वर्तमान स्थिति में पक्षकार हैं।

एक ज़्यादा व्यापक, लचीली और कम बोझिल विज्ञान उपाधियों की यह पैरवी एक ऐसा लेखक कर रहा है जिसने चार दशक अनुसंधान संस्थानों में व्यतीत करने के बाद हाल ही में स्नातक स्तर के अध्यापन में कदम रखे हैं। यह कहा जा सकता है कि यह नए मुल्ले समस्या है। मेरा जवाब है - अपराध कबूल करता हूं। यहां जिस व्यापक परिदृश्य का सुझाव दिया गया है, वह मात्र एक व्यक्ति का विचार है। अलबत्ता, इसमें अज़ीम प्रेमजी वि·ाविद्यालय में स्नातक पाठ¬क्रम से सम्बंधित चर्चाओं और अनुभव का काफी सहारा लिया गया है। मैं पिछले तीन वर्षों से इसका हिस्सा रहा हूं। यह कोई रामबाण नहीं है और यह कठोर परिश्रम की मांग करता है किंतु इस पर किसी न किसी रूप में विचार-विमर्श होना चाहिए, इसे आज़माया जाना चाहिए क्योंकि यथास्थिति कोई विकल्प नहीं है। (स्रोत फीचर्स)