डॉ. अरविन्द गुप्ते

पिछले दिनों एक शोधकार्य के बारे में समाचार प्रकाशित हुआ था जिसके अनुसार दो बाघों को बचाने से 520 करोड़ रुपए का फायदा होता है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि यह फायदा किस प्रकार होता है? क्या सरकारी खजाने में यह राशि जमा हो जाती है?
बात यह है कि हर पर्यावरणाीय परिस्थिति में, चाहे वह जंगल हो या नदी या तालाब या रेगिस्तान, जीवों का एक संतुलन बना रहता है। किसी भी भोजन श्रृंखला की शुरुआत पेड़-पौधों से होती है। पेड़-पौधों को छोटे-बड़े जंतु खाते हैं जिन्हें शाकाहारी कहते हैं। इन शाकाहारी जंतुओं को छोटे-बड़े मांसाहारी जंतु खाते हैं और श्रृंखला में सबसे ऊपर बाघ, तेंदुए, भेड़िए आदि शिकारी जंतु होते हैं जो अन्य सब जंतुओं को खाते हैं। यदि इस भोजन श्रृंखला के किसी एक घटक को भी हटा दिया जाए तो इसका असर पूरी श्रृंखला पर पड़ता है। इसके फलस्वरूप उस स्थान का पूरा पर्यावरण बिगड़ जाता है। अत: जंगल में बाघों का रहना उतना ही ज़रूरी होता है जितना पेड़-पौधों का। बाघों के रहने से पर्यावरण को जो फायदा होता है उसकी एक गणना रुपयों में की गई थी जिसके फलस्वरूप ऊपर दिए गए आंकड़े प्राप्त हुए।

शिकारी जंतुओं के महत्व को एक सच्ची घटना से समझा जा सकता है, किंतु घटना का विवरण देने से पहले यह जान लेना ज़रूरी है कि यह घटना कहां घटी। संयुक्त राज्य अमेरिका के तीन उत्तर-पश्चिमी राज्यों व्योमिंग, मोन्टाना और आयडाहो के नौ हज़ार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में एक विशाल जंगल फैला हुआ है। अन्य सभी जंगलों के समान किसी समय इस क्षेत्र की जैव विविधता बहुत समृद्ध थी। इसमें केवल अमेरिका के मूल निवासी रेड इंडियन कबीले रहते थे और वे, अन्य सभी आदिवासियों के समान, प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन बनाए रखते थे। किंतु जैसे-जैसे इसके आसपास गोरे लोगों की बसाहट बढ़ने लगी, जंगल का विनाश शुरू हो गया। अंधाधुंध तरीके से पेड़ों की कटाई और जानवरों का शिकार किया जाने लगा।

इस क्षेत्र की विशेषता यह है कि यह एक जीवित ज्वालामुखी के ऊपर स्थित है और यहां प्रति दिन सैकड़ों छोटे-छोटे भूकम्प आते रहते हैं। ज़मीन के नीचे खदबदाने वाले ज्वालामुखी की गर्मी के कारण यहां के लगभग तेरह सौ सोतों से समय-समय पर उबलते पानी और भाप के फव्वारे निकलते रहते हैं। यहां की कई झीलों का पानी बहुत अधिक गर्म रहता है, वहीं ठंडे और साफ पानी की झीलें भी हैं। जंगल के उत्तर में स्थित पहाड़ बर्फ से ढंके रहते हैं। इस क्षेत्र की अनोखी सुंदरता को देखने प्रति वर्ष हज़ारों की संख्या में पर्यटक यहां पहुंचते हैं।

सन 1872 में अमेरिकी सरकार ने इस जंगल को राष्ट्रीय उद्यान घोषित कर दिया था और इसका नाम यलोस्टोन नेशनल पार्क रखा गया था। यहां के मूल आदिवासी निवासियों को निकाल कर बाहर कर दिया गया किंतु यहां अन्य लोगों को शिकार करने की छूट दी गई। परिणाम यह हुआ कि भालू और भेड़िए आदि शिकारी जंतु बड़ी संख्या में मारे गए और एल्क नामक बड़े हिरनों की संख्या बढ़ती गई। इन और अन्य शाकाहारी जंतुओं ने पेड़-पौधों को खाना शुरू कर दिया और जंगल पर विपरीत असर होने लगा।

चूंकि इस भोजन श्रृंखला में भेड़िए सबसे ऊपर थे, यह निर्णय लिया गया कि हिरनों को बचाने के लिए क्षेत्र के सभी भेड़ियों को मार दिया जाए, और 1926 में आखरी भेड़िए को मार दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि हिरनों की संख्या में बेइंतहा बढ़ोतरी हो गई। इन हिरनों ने न केवल छोटे पौधों को अपितु बढ़ते हुए बड़े पौधों को भी खा कर जंगल को भारी क्षति पहुंचाई। इससे मिट्टी का कटाव होने लगा और नदियों के किनारे कटने के कारण नदियों के बहाव की दिशाएं बदलने लगीं। जंगल का विनाश होने के कारण छोटे जंतु और पक्षी वहां से गायब हो गए।

सन 1995 और 1996 में 31 भेड़ियों को बाहर से ला कर यलोस्टोन में छोड़ा गया। भेड़ियों ने आते ही हिरनों का शिकार करना शुरू कर दिया। तब हिरन उस क्षेत्र से दूर चले गए जहां भेड़ियों के झुंड रहते थे। हिरन-मुक्त इलाकों में पेड़-पौधे बढ़ने लगे। इन पर लगने वाले फूलों और फलों के कारण पक्षी और कीट आने लगे। फूलों के पराग और कीटों को खाने वाले पक्षियों की संख्या भी बढ़ी। भेड़ियों द्वारा मारे गए हिरनों के मांस के अवशेष खाने के लिए कौए और गरुड़ आने लगे। भेड़ियों ने कोयोटी (एक प्रकार का छोटा भेड़िया) की संख्या को भी नियंत्रित किया।

नतीजा यह हुआ कि जलीय ऊदबिलाव (ऑटर) और बीवर जैसे उन छोटे स्तनधारियों को पनपने का मौका मिला जिनका शिकार कोयोटी करते थे। पर्यावरण में बीवर की विशेष भूमिका होती है। खरगोश के आकार के ये स्तनधारी छोटे तालाबों में रहते हैं जिनका निर्माण वे स्वयं करते हैं। अपने तेज़ दांतों से किसी बड़े पेड़ के तने को काट कर बीवर उसे छोटी नदी या नाले पर गिरा देते हैं; फिर छोटी टहनियों, पत्थरों और जलीय पौधों की सहायता से वे गिरे हुए पेड़ पर एक मज़बूत बांध बना कर तालाब का निर्माण करते हैं और उसमें रहने लगते हैं।

ये जंतु पूरी तरह शाकाहारी होते हैं और पेड़ों की टहनियां और पत्तियां खाते हैं। बीवरों की संख्या बढ़ने के कारण यलोस्टोन में जगह-जगह छोटे-छोटे तालाब बन गए। इनके कारण ज़मीन में पानी रिसने लगा और भूजल का भंडार बढ़ने लगा। तालाबों में मछलियों और सांप, मगरमच्छ जैसे सरीसृपों और जलीय ऊदबिलावों की संख्या बढ़ी। सबसे बड़ा चमत्कार यह हुआ कि पेड़-पौधे बढ़ने से ज़मीन का कटाव कम हुआ और नदियों के बहाव अपनी सीमा में रहने लगे। इस प्रकार भेड़ियों के कारण यलोस्टोन के न केवल पर्यावरण में सुधार हुआ, नदियों के स्थिर होने से क्षेत्र के भूगोल पर भी असर पड़ा।
यह जानकारी नहीं है कि भेड़ियों के कारण यलोस्टोन के पर्यावरण में हुए इस सुधार की गणना डॉलर में की गई है या नहीं, किंतु करोड़ों डॉलर में तो ज़रूर होगी। (स्रोत फीचर्स)