ग्लेशियर, पहाड़ों पर सघन रूप से जमी बर्फ के विशाल और मोटे आवरण होते हैं। ग्लेशियर गुरुत्वाकर्षण और अपने स्वयं के वज़न के कारण खिसकते/ढहते रहते हैं; इस प्रक्रिया में रगड़ के चलते चट्टान टूट-फूट जाती हैं और मोरैन (हिमोढ़) नामक मिश्रण में बदल जाती है। मोरैन में कमरे के आकार के बड़े-गोल पत्थरों से लेकर पत्थरों का बेहद महीन चूरा (चट्टान का आटा) तक शामिल होते हैं। मोरैन ग्लेशियर के किनारों और अंतिम छोर पर जमा होता जाता है।
जब बर्फ पिघलने से ग्लेशियर सिकुड़कर पीछे हटते हैं तो वहां बना विशाल और गहरा गड्ढा पानी से भर जाता है। ग्लेशियर के अंतिम छोर पर जमा मोरैन अक्सर झील बनने के लिए एक प्राकृतिक बांध के रूप में काम करता है। इस तरह बनीं ग्लेशियर झीलें रुकावट के रूप में काम करती हैं - वे पिघलती हुई बर्फ से आने वाले पानी के प्रवाह को नियंत्रित करती हैं। ऐसा प्रवाह अनियंत्रित हो तो झीलों के नीचे की ओर रहने वाले समुदायों को मुश्किलें हो सकती हैं।
आसमान से भी नीला
ग्लेशियर झीलों का नीला रंग काफी हैरतअंगेज़ हो सकता है। इसकी थोड़ी तुलना ऐसे स्वीमिंग पूल से की जा सकती है जिसका पेंदा नीला पेंट किया गया हो। यह प्रभाव झील के पानी में निलंबित पत्थरों के चूरे के महीन कणों द्वारा प्रकाश के प्रकीर्णन के कारण होता है। हिमालय क्षेत्र में भी फिरोज़ी रंग की कुछ ग्लेशियर झीलें देखने को मिलती हैं।
शांत गुरुडोंगमार झील उत्तरी सिक्किम में समुद्र तल से 5430 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, और यह दुनिया की सबसे ऊंची झीलों में से एक है। मोरैन-बांध वाली इस झील से निकली जल धाराएं आगे जाकर तीस्ता नदी बनाती है। पैंगोंग त्सो झीलों की 134 किलोमीटर की शृंखला है जो लद्दाख और चीन के बीच विवादित बफर ज़ोन का हिस्सा है। सिक्किम में समुद्र तल से लगभग 4300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित बहुचर्चित सामिति झील कंचनजंगा के रास्ते में पड़ती है।
बाढ़ का प्रकोप
गर्माती दुनिया (ग्लोबल वार्मिंग) का एक उल्लेखनीय परिणाम ग्लेशियरों का (पिघलकर) सिकुड़ना है, जो ग्लेशियर झीलों में पानी में काफी इज़ाफा करता है। इससे इन झीलों के मोरैन बांधों के टूटने की संभावना बढ़ जाती है और इसके परिणाम भयावह हो सकते हैं।
सिक्किम की कई मोरैन-बांधित ग्लेशियर झीलों में से एक है दक्षिणी ल्होनक झील। इसने दिखा दिया है कि बढ़ते तापमान के क्या परिणाम हो सकते हैं। दक्षिणी ल्होनक झील में तीन ग्लेशियरों का पानी जमा होता है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस झील का आयतन असामान्य रूप से तेज़ी से बढ़ा है। झील बहुत हाल ही में बनी है - 1962 में यह पहली बार उपग्रह चित्रों में दिखाई दी थी। 1977 में यह मात्र 17 हैक्टर में फैली थी और यह बढ़ती हुई झील तब से एक संभावित खतरे के रूप में देखी जा रही थी। 2017 तक, झील से लगातार पानी निकालने के लिए आठ इंच व्यास वाले तीन पाइप लगाए गए थे। लेकिन वे भी निहायत अपर्याप्त साबित हुए थे।
2023 तक झील का क्षेत्रफल 167 हैक्टर हो जाना था। पिछले साल हुई बारिश के कारण मोरैन बांध टूट गया। परिणामस्वरूप झील के फटने से तीस्ता नदी का जल स्तर छह मीटर बढ़ गया, और तीस्ता-III बांध टूट गया और व्यापक पैमाने पर विनाश हुआ।
आईआईटी, रुड़की और अन्य वैज्ञानिकों द्वारा इस झील से भविष्य में होने वाले विस्फोट की मॉडलिंग कर यह अनुमान लगाया गया है कि मोरैन में आई एक बड़ी दरार से इससे 12,000 घन मीटर प्रति सेकंड से अधिक की गति से पानी बह सकता है - इससे झील के नीचे की ओर बसी मानव बस्तियों के लिए स्थिति बहुत ही भयावह होने की संभावना है। इस पर सतत निगरानी आपदा न्यूनीकरण में, और प्रकृति के इन रहस्यमय नीले चमत्कारों को समझने में मदद करेगी। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - January 2025
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