महिला वैज्ञानिकों की बात करें तो इक्का-दुक्का नाम ही सामने आते हैं। एक कारण है कि सामाजिक असमानताओं और रूढ़िवादी मान्यताओं के चलते बहुत कम महिलाएं उच्च शिक्षा हासिल कर पाती हैं, वह भी अक्सर तमाम संघर्षों से गुज़रते हुए।
दूसरा कारण यह है कि जो महिलाएं विज्ञान में शोधरत हैं, उनके बारे में लोगों को बहुत ही कम पढ़ने को मिलता है। इस कमी को पाटने का एक प्रयास किया था रोहिणी गोडबोले और राम रामस्वामी ने लीलावतीज़ डॉटर्स नामक पुस्तक में। इसमें भारत की सौ महिला वैज्ञानिकों के काम, विचार व संघर्षों की गाथा है।
अगले कुछ अंकों में हम इस पुस्तक की कुछ जीवनियां आप तक पहुंचाएंगे।
मेरा जन्म जनवरी 1922 में एक प्रगतिशील और खुले विचारों वाले परिवार में हुआ था। मैं भले ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा न हुई हो, लेकिन हाथों में किताबें लेकर ज़रूर पैदा हुई थी! मेरा परिवार काफी बड़ा (संयुक्त) परिवार था, जो उन दिनों काफी आम बात थी। परिवार के सभी लोग काफी पढ़े-लिखे थे। यहां तक कि लड़कियां भी, और हमें हर उस गतिविधि में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था जो हमें पसंद थी या जिसमें हम भाग लेना चाहते थे। मेरी दादी, कमलम्मा दासप्पा, तत्कालीन मैसूर राज्य की सर्वप्रथम महिला स्नातकों में से एक थीं। वे महिलाओं की शिक्षा, खासकर विधवा और परित्यक्त महिलाओं की शिक्षा, के लिए बहुत सक्रिय थीं। लड़कियों की शिक्षा में मदद करने के लिए उन्होंने एक त्वरित स्कूल पाठ्यक्रम स्थापित करने की पहल की थी, जिसके तहत छात्राओं को 14 वर्ष की आयु तक अपना मैट्रिकुलेशन पूरी करने की इजाज़त थी। यह पाठ्यक्रम ‘महिला सेवा समाज’ द्वारा संचालित ‘विशेष अंग्रेज़ी स्कूल (Special English School)’ में चलाया गया था।
इस कोर्स के तहत मैंने और मेरे कुछ चचेरी-ममेरी बहनों ने पढ़ाई की। चूंकि मुझे अतीत की घटनाओं के बारे में पढ़ना और सीखना अच्छा लगता था, जो कि आज भी है, इसलिए स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैंने इतिहास विषय करीब-करीब चुन ही लिया था। लेकिन चूंकि मुझे विज्ञान और गणित भी अच्छा लगता था, इसलिए आखिरकार मैंने भौतिकी और गणित को आगे पढ़ाई के लिए चुना। हमारे घर में, कॉलेज और युनिवर्सिटी जाना स्वाभाविक बात थी। मैं अपनी बीएससी (ऑनर्स) और मास्टर्स डिग्री की पढ़ाई के लिए मैसूर विश्वविद्यालय के बैंगलौर के सेंट्रल कॉलेज गई। इस पूरी पढ़ाई में मैंने हमेशा प्रथम श्रेणी हासिल की। और एमएससी के बाद भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलौर के तत्कालीन विद्युत प्रौद्योगिकी विभाग में नौकरी ले ली। मैंने विद्युत संचार के क्षेत्र में एक शोध सहायक के रूप में काम किया।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत में अंग्रेज़ों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए एक अंतरिम सरकार की स्थापना की गई थी। इस सरकार ने प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिकों को विदेश में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की थी। मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स और इसके अनुप्रयोगों के क्षेत्र में ऐसी ही एक छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किया था। 1946 में इस छात्रवृत्ति के लिए चयनित होने के बाद, मैं शीघ्र ही आगे की पढ़ाई के लिए एन आर्बर स्थित मिशिगन विश्वविद्यालय चली गई। तब मेरी उम्र 24-25 के आसपास ही थी। और तो और, मैं तब अविवाहित थी, लेकिन तब भी मेरे परिवार ने मेरे विदेश जाने पर कोई आपत्ति नहीं जताई! ध्यान रहे, यह आज से करीब 80 साल पहले की बात है! आज की कई युवा लड़कियां, जो अपनी पसंद के कोर्स/विषय और करियर चुन सकती हैं, उन्हें शायद इस बात का अंदाज़ा न होगा कि उस समय महिलाओं को किस तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता था, यहां तक कि विदेशों में भी। 1920 या 30 के दशक तक पश्चिमी देशों के कई विश्वविद्यालय महिलाओं को प्रवेश नहीं देते थे। मैं वास्तव में बहुत भाग्यशाली थी कि मुझे इस तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा।
अमेरिका में इंजीनियरिंग में मास्टर्स करना और बाद में पीएचडी के लिए काम करना बहुत ही खुशगवार रहा, और उस दौरान मैंने कई चीज़ें सीखीं। मैंने और भी ज़्यादा खुली सोच रखना और नए विचारों के प्रति ग्रहणशील होना सीखा। मैंने सीखा कि अगर हम मन में ठान लें तो कुछ भी हासिल करना असंभव नहीं है। मैंने कई नए दोस्त बनाए और उनमें से कुछ के साथ कई सालों तक संपर्क बनाए रखा है। 1949 में अपनी मास्टर्स डिग्री हासिल करने के बाद मैं वॉशिंगटन डीसी में नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैंडर्ड्स में आठ महीने के रेडियो फ्रीक्वेंसी मापन के व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए गई। सितंबर 1949 में, मैं बारबॉर छात्रवृत्ति पर अपनी पीएचडी की पढ़ाई जारी रखने के लिए एन आर्बर वापस आ गई। वहां मेरे सलाहकार प्रोफेसर विलियम जी. डॉव थे, जिनका 1999 में 103 वर्ष की आयु में निधन हो गया।
1953 में मैं भारत लौटी। यहां आकर मैं भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में शामिल हो गई, और एक सक्रिय शोध करियर शुरू किया। अपने परिवार के पूर्ण समर्थन के साथ, मैंने अपने एक सहकर्मी शिशिर कुमार चटर्जी से विवाह किया, और कई प्रोजेक्ट पर उनके साथ मिलकर काम भी किया। हमने अपना अधिकांश समय IISc के खूबसूरत माहौल में बिताया - या तो विभाग में या लायब्रेरी में। हमारी बेटी, जो अब अमेरिका में प्रोफेसर है, ने अपना पूरा बचपन यहीं बिताया।
मेरे पति और मैं, हम दोनों कई प्रोजेक्ट लेते थे और हमने संयुक्त रूप से कई शोधपत्र प्रकाशित किए। हमने कई कोर्सेस, ज़्यादातर विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, इलेक्ट्रॉन ट्यूब सर्किट, माइक्रोवेव तकनीक और रेडियो इंजीनियरिंग के पढ़ाए और इन पर कई किताबें भी लिखीं। मेरा मुख्य योगदान मुख्यत: विमान और अंतरिक्ष यान, में उपयोग किए जाने वाले एंटीना के क्षेत्र में रहा है। 1994 में शिशिर के निधन के बाद भी मैंने इन विषयों पर किताबें लिखना जारी रखा, और विज्ञान तथा विशेष रूप से इंजीनियरिंग में अपनी रुचि बनाए रखी। मैंने 20 पीएचडी छात्र और छात्राओं को उनके काम में मार्गदर्शन दिया। मेरे कई छात्र-छात्राएं अपने-अपने क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए हैं, और भारत और विदेशों में डायरेक्टर और प्रोफेसर बने।
कई पुरस्कार और सम्मान मुझे मिले हैं। इनमें बीएससी (ऑनर्स) में प्रथम रैंक के लिए मुम्मदी कृष्णराज वोडेयार पुरस्कार, एमएससी में प्रथम रैंक के लिए एम. टी. नारायण अयंगर पुरस्कार एवं वॉटर्स मेमोरियल पुरस्कार, इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड रेडियो इंजीनियरिंग, यूके से सर्वश्रेष्ठ पेपर के लिए लॉर्ड माउंटबेटन पुरस्कार, इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स से सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र के लिए जे. सी. बोस मेमोरियल पुरस्कार और इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेलीकम्यूनिकेशन इंजीनियर्स के सर्वश्रेष्ठ शोध और शिक्षण कार्य के लिए रामलाल वाधवा पुरस्कार शामिल हैं। इन सबसे बढ़कर, मैंने अपने कुछ छात्र-छात्राओं और कई युवाओं का साथ और स्नेह कमाया है। मैंने इन सभी से बहुत कुछ सीखा है, मेरे कई विचारों में बड़े-बड़े बदलाव आए हैं!
IISc से रिटायरमेंट के बाद, मैंने सामाजिक कार्यक्रमों पर काम करना शुरू किया, मुख्यत: इंडियन एसोसिएशन फॉर वीमन्स स्टडीज़ के साथ। तब मैंने जाना कि कितनी महिलाओं ने जीवन में आगे बढ़ने के लिए तमाम बाधाओं के बावजूद कितना संघर्ष किया है, जिनका सामना हम जैसे कुलीन वर्ग के लोगों को शायद ही कभी करना पड़ा हो। मेरा मानना है कि हम सौभाग्यशाली थे तो वैज्ञानिक और इंजीनियर का यह मकाम हमने हासिल किया। और ऐसे वैज्ञानिक और इंजीनियर होने के नाते हमें अपने से कम सुविधा प्राप्त लोगों की, खासकर महिलाओं की, अपने पसंदीदा विषय में अध्ययन करने, काम करने और आगे बढ़ने में हर संभव मदद करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)