भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने हाल में एक परामर्श पत्र जारी किया है जिसमें उसने लंबे समय से चले आ रहे एक अधिकारिक मत को दोहराया है: “आयुर्वेद के सिद्धांतों, अवधारणाओं और तरीकों की तुलना आधुनिक चिकित्सा प्रणाली से कदापि नहीं की जा सकती।” यह मत इन दो प्रणालियों के बीच स्पष्ट विभाजन को व्यक्त करता है और परोक्ष रूप से वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता पर सवाल खड़े करता है। इस आलेख में यह बताने की कोशिश की गई है कि आयुर्वेद की दुनिया में इस मत को व्यापक मान्यता कैसे मिली है।


अंधविश्वास काफी दिलचस्प हो सकते हैं, खास तौर से तब जब वे प्रभावशाली लोगों के दिमाग में बसे हों। यह कहानी एक ऐसे ही अंधविश्वास की है जो बीसवीं सदी के सारे आयुर्वेदिक विचारकों पर हावी रहा है।
जिस अंधविश्वासकी बात हो रही है, वह मोटे तौर पर निम्नानुसार है: प्राचीन भारतीय ऋषियों (मनीषियों), जिन्होंने विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों का प्रतिपादन किया, के पास विशेष यौगिक शक्तियां थीं; इन विशेष शक्तियों ने उन्हें प्रकृति को नज़दीक से जांचने-परखने तथा उसके रहस्यों को उजागर करने में समर्थ बनाया था। इसके बाद इन रहस्यों को उन्होंने अपने दर्शन के ग्रंथों में सूक्तियों के रूप में संहिताबद्ध किया। कहने का आशय यह है कि भारतीय ऋषियों ने विज्ञान को आगे बढ़ाने के लिए खोजबीन की बाह्र तकनीकों का सहारा न लेकर आंतरिक यौगिक पद्धतियों का सहारा लिया, जो सिर्फ उन लोगों की पहुंच में थीं जिन्होंने इनकी साधना की हो। अत: भारतीय दार्शनिक साहित्य उन्नत वैज्ञानिक ज्ञान से भरा है जिसमें से काफी सारे की पुष्टि तो आधुनिक भौतिक शास्त्र की विधियों से हो ही चुकी है। यदि किसी मामले में पुष्टि नहीं हुई है तो समझदारी इसी में है कि प्रतीक्षा करें।
यह तो ज़ाहिर है कि यह अंधविश्वासक्यों है। एक प्राचीन संस्कृत श्लोक (शांतारक्षिता का तत्वसंग्रह, अध्याय 26, श्लोक 3149) इस विचारधारा की समस्या को बखूबी उभारता है: सुगतो यदि सर्वज्ञ: कपिलो नेति का प्रमा।, अथोभावपि सर्वज्ञौ मतभेदस्तयो: कथम।। (“यदि बुद्ध को सर्वज्ञाता माना गया है, तो कपिल को क्यों नहीं? यदि ये दोनों बराबर के सर्वज्ञाता हैं, तो ये आपस में असहमत क्यों हैं?”)
सीधा-सा तथ्य यह है कि एक ही विषय को लेकर दार्शनिकों में अलग-अलग मत पाए जाते हैं। इससे यह स्वयंसिद्ध है कि उनके निष्कर्ष अंतिम होने का दावा नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में, जब यौगिक पद्धति तक सबकी पहुंच आसान नहीं है, तो किसी मत को मानना दार्शनिक विशेष के प्रति निजी प्रीति का मामला रह जाता है, न कि उसके दर्शन में सत्य का परिमाण।
ऐसे में, सहज बुद्धि का स्थान अथॉरिटी ले लेती है और प्रत्यक्ष खोजबीन का स्थान लिखित शब्द ले लेते हैं। अटकलों को, यहां तक सुविचारित अटकलों को भी यौगिक अंतज्र्ञान का जामा पहनाने की प्रवृत्ति का परिणाम सहज बुद्धि के निजीकरण और संपूर्ण बौद्धिक अशक्तिकरण के रूप में सामने आता है। ये दोनों ही संजीदा विज्ञान कर्म का गला घोंटने के लिए पर्याप्त हैं।
आयुर्वेद के क्षेत्र में इस विज्ञान-निषेध विश्व दृष्टि की ऐतिहासिक जड़ों की खोज करना लाभप्रद होगा। कहानी लगभग 100 वर्ष पहले की है। 1921 में मद्रास प्रेसिडेंसी की तत्कालीन सरकार ने एक समिति का गठन किया था। इस समिति को देसी चिकित्सा प्रणाली को मान्यता तथा प्रोत्साहन देने के सवाल पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया था। मुहम्मद उस्मान की अध्यक्षता में इस समिति ने अनुकरणीय काम किया और एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की, जो आज भी आयुर्वेदिक कामकाज का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत करने की दृष्टि से मूल्यवान है। कैप्टन जी. श्रीनिवास मूर्ति समिति के सचिव थे। वे आधुनिक चिकित्सा में प्रशिक्षित एक प्रतिष्ठित चिकित्सक थे। उनके द्वारा प्रस्तुत मेमोरेंडम समिति की रिपोर्ट में संलग्न था। यह संभवत: आयुर्वेद को पाश्चात्य चिकित्सा प्रणाली और आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के रूबरू खड़ा करने का पहला औपचारिक प्रयास था। विडंबना यह है कि यह उपरोक्त विज्ञान-विरोधी नज़रिए को संस्थागत स्वरूप देने का भी प्रयास था। लगभग 100 साल पहले मूर्ति ने अनजाने में जो बात लिखी थी, वह आज आयुर्वेद जगत का प्रचलित नज़रिया बन गई है: “हिंदुओं ने जिस पद्धति से चीज़ों को जानने की कोशिश की वह ज्ञानेंद्रियों के दायरे से परे है और वह पश्चिम के तरीके से एक खास मायने में भिन्न है; आधुनिक विज्ञान में हम अपनी ज्ञानेंद्रियों की सीमाओं से पार पाने के लिए सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी और वर्णक्रमदर्शी जैसे बाह्र उपकरणों का सहारा लेते हैं; दूसरी ओर हिंदुओं ने वही प्रभाव प्राप्त करने के लिए अपनी ज्ञानेंद्रियों को बाह्र साधनों का सहारा न देकर, अपने आंतरिक संवेदी अंगों को उन्नत बनाने की कोशिश की, ताकि उनकी अनुभूति का दायरा किसी भी वांछित सीमा तक बढ़ जाए; और यह उन्नति लाने का तरीका यह था कि अपनी इंद्रियों का अभ्यास गुरू द्वारा शिष्य को बताए गए विशेष तरीके से किया जाए।” भारतीय दार्शनिक विचारों और आधुनिक भौतिकी के बीच कुछ समानताएं बताने का प्रयास करने के उपरांत वे उम्मीद जताते हैं कि “जब हम देखते हैं कि कैसे इनमें से कई सिद्धांतों को आधुनिक विज्ञान की ताज़ा घटनाओं ने सही साबित कर दिया है, तो हम यह महसूस करने से इन्कार नहीं कर सकते कि जिस तरह से कुछ सिद्धांत सही साबित हो चुके हैं, वही अन्य सिद्धांतों को लेकर भी होगा।”
इस बात को न तो संजीदा विज्ञान का समर्थन हासिल है और न ही संजीदा दर्शन शास्त्र का, लेकिन आयुर्वेद जगत में इसे पूरी स्वीकृति मिल गई है। अचंता लक्ष्मीपति और पंडित शिव शर्मा जैसे नामी-गिरामी लोगों ने इस विचार का समर्थन किया है। आजकल के ज़माने का नया ‘फितूर’ है कि क्वांटम भौतिकी के विचारों को भारतीय दार्शनिक साहित्य में ‘खोज’ निकाला जाए। इससे भी उपरोक्त धारणा को समर्थन मिला है।
और तो और, आयुर्वेद का पाठ¬क्रम भी इसी आधार पर बनाया गया और इसके चलते उक्त धारणा आयुर्वेद का अधिकारिक नज़रिया बन गई। इस धारणा का सबसे गंभीर परिणाम यह हुआ कि आयुर्वेदिक सिद्धांतों को वैज्ञानिक छानबीन के दायरे से बाहर रखा गया और वह भी इस काल्पनिक उम्मीद में कि विज्ञान को अभी पर्याप्त प्रगति करनी है, उसके बाद ही वह इन सिद्धांतों की जांच के काबिल हो पाएगा। इस तरह से अधिकारिक आयुर्वेद वैज्ञानिक पद्धति की सार्वभौमिकता के साथ बेमेल हो गया।
रिचर्ड फाइनमैन ने कहा था, “विशेषज्ञों की अज्ञानता में विश्वास का नाम विज्ञान है।” आयुर्वेद को संस्थागत अंधविश्वास की जकड़न से मुक्त कराना इसी बात पर निर्भर है कि क्या आयुर्वेद के विद्यार्थी इस विश्वास में समर्थ हैं। आयुर्वेद का एक प्राक्विज्ञान से आगे बढ़कर एक पूर्ण विज्ञान बनना इसी बात पर निर्भर है कि इन संस्थागत अंधविश्वासों को कितने कारगर ढंग से चुनौती दी जाती है। यदि चुनौती नहीं दी गई तो यह महान चिकित्सकीय विरासत एक छद्म विज्ञान में विघटित हो जाएगी। हमें इस आसन्न खतरे के प्रति सचेत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)