क्या आप ऐसे बिनबुलाए-अनचाहे मेहमानों को जानते हैं जो आपके घर आते हैं, आपके घर को बिलकुल अपना ही घर समझते हैं, आराम से रहते (या पसर जाते) हैं, और जाने का नाम ही नहीं लेते, आप चाहे जो कर लें? खैर, प्रकृति में भी ऐसे ‘मेहमान’ होते हैं जिनमें पौधों, पक्षियों, जंतुओं, कीटों और यहां तक कि सूक्ष्मजीवों की कई प्रजातियां शामिल हैं।
हम अक्सर ‘देशज’ और ‘गैर-देशज’ शब्द सुनते रहते हैं। ‘देशज’ प्रजातियां वे हैं जो किसी क्षेत्र में नैसर्गिक रूप से पाई जाती हैं, और वहां की परिस्थितियों के अनुसार विकसित और अनुकूलित होती हैं। ‘गैर-देशज’ प्रजातियां - जिन्हें बाहर से प्रविष्ट, विदेशी या बाहरी प्रजातियां भी कहा जाता है - या तो इरादतन किसी ऐसे क्षेत्र में लाई जाती हैं जहां वे नैसर्गिक रूप से नहीं पाई जाती हैं या संयोगवश वहां पहुंच जाती हैं। उदाहरण के लिए, आज हमारे खान-पान का हिस्सा बन चुके कई फल और सब्ज़ियां पारंपरिक रूप से भारत में नहीं पाई जाती थीं। आलू को ही लें - यह दक्षिण अमेरिका के एंडीज़ क्षेत्र का मूल निवासी है और आज भारत सहित पूरी दुनिया के व्यंजनों में इसका खूब उपयोग होता है। या इमली को ही लें, जो मध्य अफ्रीका की देशज है, इसे हज़ारों साल पहले भारत लाया गया था और आज यह हमारे शोरबों और चटनियों का अभिन्न हिस्सा है।
लेकिन ऐसी अन्य प्रजातियां भी हैं जिनका जाने-अनजाने, किसी भी तरह से, आना हमेशा उपयोगी नहीं होता। इन्हें विदेशी आक्रामक प्रजातियां कहा जाता है। वे किसी स्थान पर आती हैं, वहां बस जाती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात - अनुकूल पारिस्थितिक परिस्थितियों और अपने शिकारियों की अनुपस्थिति में - स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और लोगों को नुकसान पहुंचाते हुए फैलती रहती हैं। आम तौर पर यह बताना मुश्किल होता है कि इनमें से कई आक्रामक प्रजातियां ठीक किस समय आई थीं, या क्यों/कैसे लाई गई थीं। लेकिन युरोपीय औपनिवेशिक उद्यम के लिए विभिन्न महाद्वीपों पर जहाज़ों द्वारा किए गए आवागमन ने आक्रामक प्रजातियों के फैलने में अहम भूमिका निभाई है। हो सकता है कि या तो बाहरी आक्रामक प्रजातियों को सजावटी पौधों या पालतू जानवरों के रूप में इरादतन लाया गया हो, और उन्हें या तो परिवेश में जानबूझकर छोड़ दिया गया हो या वे निकल भागी हों। या यह भी हो सकता है कि वे आवागमन के वाहनों में या तो गलती से सवार होकर आ गई हों, या बीजों/अनाजों जैसे अन्य उत्पादों में गिरकर/मिलावट के रूप में आ गई हों। पौधे, सूक्ष्मजीव, मछलियां, क्रस्टेशियन्स, पक्षी, सरीसृप - सभी अपने मूल क्षेत्रों से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हम मनुष्यों के साथ यात्रा कर चुके हैं (पेत्र पाइसेक एवं साथी, 2020; जूली लॉकवुड, 2023)।
यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि आज दुनिया भर में कितनी प्रजातियों को आक्रामक के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। आक्रामक प्रजातियों और उनके जैविक प्रभावों की सूची तैयार करने का एक प्रयास है ग्लोबल रजिस्टर ऑफ इन्ट्रोड्यूस्ड एंड इनवेसिव स्पीशीज़ (प्रविष्ट व आक्रामक प्रजातियों का वैश्विक रजिस्टर)। यह काम प्रगति पर है, और अब तक इस रजिस्टर में 20 देशों की 11,000 प्रजातियां दर्ज की जा चुकी हैं, जिनमें थलीय और समुद्री दोनों किस्म की प्रजातियां शामिल हैं। यह आंकड़ा जैविक घुसपैठ के परिमाण का एक अंदाज़ा देता है (श्यामा पगड़ एवं साथी, 2018)।
लेकिन आक्रामक प्रजातियों को लेकर इतना शोर क्यों? चिंता इसलिए है क्योंकि आलू और इमली, जिनके बिना हम आज अपने व्यंजनों की कल्पना भी नहीं कर सकते, के विपरीत विदेशी आक्रामक प्रजातियां प्रतिकूल पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक कीमत के साथ आती हैं – और ये सभी समस्याएं आपस में जुड़ी हुई हैं।
भारत में, सबसे आम आक्रामक पौधों में से एक लैंटाना है। ऐसा माना जाता है कि लैंटाना को 1807 में बागड़ बांधने वाले सजावटी पौधे के रूप में भारत में लाया गया था (जी.सी.एस. नेगी एवं साथी, 2019)। इसके छोटे बहुरंगी फूलों के कारण यह वास्तव में बहुत सुंदर दिखता है। लेकिन इसकी सुंदरता से इतर, लैंटाना पूरे देश में तेज़ी से फैल गया है और पारिस्थितिकी तंत्र के लिए इसके विनाशकारी परिणाम सामने आए हैं। बिलिगिरी रंगास्वामी वन्यजीव अभयारण्य और टाइगर रिज़र्व में लैंटाना इतने बड़े पैमाने पर फैल गया है कि देशज पादप प्रजातियां, जिन पर जंगली जानवर भोजन के लिए निर्भर हैं, कम हो गईं है। नतीजतन जंगली जानवर सोलिगा आदिवासियों की फसलों पर धावा बोलने लगे हैं। सोलिगा लोगों ने यह भी कहा कि लैंटाना के फैलने की वजह से जंगल के खाद्य पदार्थों की वृद्धि कम हो गई है, जिन पर सोलिगा समुदाय कभी निर्भर थे (सीमा मुंडोली एवं साथी, 2016)।
जलकुंभी (वॉटर हायसिंथ) एक अन्य आक्रामक प्रजाति है, जो बहुतायत में दिखती है। इसने आर्द्रभूमि और जल राशियों पर कब्ज़ा जमा लिया है और उनका दम घोंट दिया है - इसके नाज़ुक बैंगनी फूलों के (सुंदर) चंगुल में न फंसना! दक्षिण अमेरिका का मूल निवासी यह पौधा न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में सबसे आक्रामक पौधों में से एक माना जाता है। जलकुंभी पानी की सतह को हरे रंग की चादर से पूरी तरह ढंक देती है जो प्रकाश को पानी में प्रवेश नहीं करने देती है, जिससे पानी में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है और यह स्थिति मछलियों की मौत का कारण बनती है। जलकुंभी किसान और मछुआरों की भी दोस्त नहीं है और इससे छुटकारा पाने के लिए काफी अधिक समय, श्रम और धन लगाना पड़ता है।
पारिस्थितिकी तंत्र और आजीविका को प्रभावित करने के अलावा आक्रामक विदेशी प्रजातियां स्वास्थ्य के लिए भी जोखिम पैदा करती हैं। पीत ज्वर फैलाने वाले येलो फीवर मच्छर (Aedes aegypti) संभवत: 500 साल पहले अफ्रीका से बाहर निकले और हाल के दशकों में दुनिया भर में तेज़ी से फैल रहे हैं (जोशुआ सोकोल, 2023)। यह प्रजाति डेंगू और चिकनगुनिया वायरस की वाहक है। हाल ही में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में इन बीमारियों का प्रकोप चिंता का विषय रहा है (रेड्डी एवं साथी, 2023)। इसी तरह, विशाल अफ्रीकी घोंघा, जिसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया है, न केवल फसलों को नष्ट करता है बल्कि मेनिन्जाइटिस का कारण बनता है, जो जानलेवा हो सकता है।
वास्तव में हम यह पूरी तरह नहीं जानते कि वर्तमान में भारत में ऐसी कितनी बाह्य आक्रामक प्रजातियां मौजूद हैं, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र, आजीविका और मानव स्वास्थ्य पर उनके प्रभावों का दस्तावेज़ीकरण किया जा चुका है। आर्थिक दृष्टि से, यह अनुमान लगाया गया है कि 1960 से 2020 के बीच आक्रामक प्रजातियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को 8.3 से 11.9 लाख करोड़ रुपए के बीच नुकसान पहुंचाया है – और हो सकता है कि वास्तविक नुकसान कहीं अधिक हो। (अलोक बंग एवं साथी, 2022)।
लेकिन क्या आक्रामक प्रजातियों का कोई उपयोग भी है? यह बात प्रजाति-प्रजाति पर निर्भर करती है। ऐसे उदाहरण भी हैं जहां कोई आक्रामक प्रजाति स्थानीय आबादी के लिए फायदेमंद साबित हुई है, भले ही वह उस क्षेत्र की पारिस्थितिकी के लिए फायदेमंद न रही हो। दक्षिण अमेरिका की मेसक्वाइट को 1817 में चारे और ईंधन के स्रोत के रूप में भारत लाया गया था। कच्छ, गुजरात के बन्नी घास के मैदान के स्थानीय समुदाय घास की कई प्रजातियों के बीज खाते थे। लेकिन मेसक्वाइट, जिसे स्थानीय रूप से गांडा (पागल) बबूल नाम से जाना जाता है, के आने और फैलने से घास के मैदानों का ह्रास हुआ और खाने योग्य घास की प्रजातियां खत्म हो गई हैं। लेकिन, स्थानीय लोग गांडा बबूल की लकड़ी जलाकर कोयला बनाते हैं और अतिरिक्त आय कमाते हैं। पेड़ से निकलने वाला रस कैंडी की तरह चूसा जाता है (ए.पी.रहमान, 2024)। 
एक और आक्रामक प्रजाति, एलेगेटर वीड, पशुओं के लिए बेहतरीन चारा माना जाता है। बेंगलुरु के इर्द-गिर्द की झीलों की सतह पर तैरती एलेगेटर वीड को पशुपालक पैदल या नाव से घूमकर इकट्ठा करते हैं।
लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि आक्रामक प्रजातियां मुख्य रूप से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र पर, लोगों के स्वास्थ्य पर और देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। माना जाता है कि उन्होंने 16 प्रतिशत प्रजातियों की विलुप्ति में योगदान दिया है, और अब भी पूरे विश्व की जैव विविधता के लिए एक बड़ा खतरा बनी हुई हैं (के. स्मिथ, 2020)। और, जैव विविधता पर ही तो हमारा अस्तित्व टिका है।
आज, हम आक्रामक प्रजातियों के फैलाव, प्रभावों और कीमतों/नुकसान को समझने की जटिल चुनौतियों से जूझ रहे हैं, जलवायु परिवर्तन का दौर इन चुनौतियों को और भी बढ़ा देगा। प्रजातियां बदलती जलवायु परिस्थितियों से बचने के लिए स्वाभाविक रूप से अपने इलाकों को बदलेंगी। हम यह नहीं जानते कि इनमें से कितनी प्रजातियां नई जगहों पर जाकर आक्रामक हो जाएंगी। इस बीच हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि प्रजातियों को गैर-देशज आवासों में लाने से सम्बंधित कायदे-कानून कायम रखें और जितना संभव हो. आक्रामक प्रजातियों के प्रसार को नियंत्रित करें, और मेहमानों के रूप में छिपे इन नुकसानदेहों पर कड़ी निगाह रखें। (स्रोत फीचर्स)