एक बड़े स्तर के क्लीनिकल परीक्षण ने स्तन कैंसर रोगियों में दर्द निवारण के लिए एक्यूपंक्चर के उपयोग को प्रभावी माना है, जिससे एक बार फिर इस विवादित तकनीक की भूमिका पर बहस शुरू हो गई है।
अमेरिका के 11 विभिन्न केंद्रों में 226 महिलाओं पर वास्तविक तथा फर्ज़ी एक्यूपंक्चर का परीक्षण किया गया। कैंसर विज्ञानियों द्वारा टेक्सास स्थित सैन एंटोनियो स्तन कैंसर संगोष्ठी में प्रस्तुत रिपोर्ट में दावा किया गया है कि एक्यूपंक्चर से उन महिलाओं के दर्द में कमी आती है जो स्तन कैंसर के लिए हॉर्मोन थेरेपी ले रही हैं। इस परीक्षण से संबंधित वैज्ञानिकों का मत है कि यदि दर्द कम होगा तो महिलाएं उपचार को जारी रख पाएंगी और उनकी जीवित रहने की संभावना बढ़ेगी। दूसरी ओर, अन्य वैज्ञानिकों का मत है कि इस मामले में पूरी तरह डबल ब्लाइंड अध्ययन करना असंभव है।   

देखा जाए तो इस तकनीक में रुचि नशीले दर्द निवारक (अफीम-आधारित) दवाओं के दुष्प्रभावों के चलते एक विकल्प के रूप में पैदा हुई है। अमेरिका के लगभग 90 प्रतिशत कैंसर केंद्रों में पूरक चिकित्सा के तौर पर एक्यूपंक्चर की सलाह दी जा रही है और 70 प्रतिशत केंद्र तो ऐसी चिकित्सा उपलब्ध भी कराते हैं। इस बात को लेकर कई चिकित्सक चिंतित हैं क्योंकि साइन्स-बेस्ड मेडिसिन जैसे समूहों का कहना है कि एक्यूपंक्चर का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्व विद्यालय के मेडिकल सेंटर में कैंसर चिकित्सा वैज्ञानिक डॉन हर्शमैन और उनके साथी यह जांच करना चाहते थे कि क्या एक्यूपंक्चर एरोमेटेज़ अवरोधक के कारण होने वाले दर्द को कम करने में सहायक है। गौरतलब है कि एरोमेटेज़ अवरोधक स्तन कैंसर के लिए सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली दवाइयां हैं। ये दवाइयां एस्ट्रोजन स्तर को कम करती हैं और यदि पांच से दस वर्ष तक ली जाएं तो कैंसर के दुबारा उभरने का जोखिम कम हो जाता है। लेकिन इनके दुष्प्रभावों के चलते आधी से अधिक महिलाएं या तो दवा का सेवन अनियमित रूप से करती हैं या बंद कर देती हैं। इसका एक प्रमुख दुष्प्रभाव गठियानुमा दर्द है।

कोलंबिया में एक छोटे परीक्षण के बाद हर्शमैन की टीम ने एक बड़ा परीक्षण किया। 226 रोगी महिलाओं को 3 श्रेणियों में रखा गया। एक समूह पर एक्यूपंक्चर तकनीक का उपयोग किया गया, दूसरे समूह पर दिखावटी तौर पर उपचार किया गया जिसके अंतर्गत गैर-एक्यूपंक्चर बिंदुओं पर सुई का उपयोग कम गहराई पर किया गया और तीसरे समूह को कोई उपचार नहीं दिया गया। महिलाओं से अपने दर्द का स्तर शून्य से दस के पैमाने पर रिकॉर्ड करने को कहा गया। 

छह सप्ताह के उपचार के बाद, अन्य समूह की तुलना में वास्तविक-एक्यूपंक्चर समूह में ‘सबसे बुरे दर्द’ के स्तर में एक अंक की कमी पाई गई। यह प्रभाव सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण है जो ड्यूलोक्सेटिन नामक अवसाद-रोधी से बेहतर है जिसका उपयोग कैंसर मरीज़ों में दर्द कम करने के लिए किया जाता है। इसी दौरान, उन प्रतिभागियों का प्रतिशत दुगना हो गया जिनके दर्द में दो अंकों का सुधार हुआ था। ऐसे मरीज़ों की संख्या दोनों नियंत्रण समूहों में लगभग 30 प्रतिशत रही जबकि वास्तविक-एक्यूपंक्चर समूह में 58 प्रतिशत हो गई। एक्यूपंक्चर कोर्स पूरा होने के बाद भी ये लाभ कायम रहे जो ड्यूलोक्सेटिन में नहीं देखा गया है। हर्शमैन का मत है कि एक्यूपंक्चर निश्चित तौर पर दवाइयों से बेहतर विकल्प है। कई शोधकर्ताओं ने माना है कि यह एक सावधानीपूर्वक किया गया अध्ययन है।
परंतु शंकालुओं ने इस अध्ययन की आलोचना की है और इसे प्लेसिबो प्रभाव बताया है। प्लेसिबो प्रभाव एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव है जिसमें व्यक्ति को उपचार की बजाय निजी उम्मीदों के कारण अच्छा महसूस होता है। 

कई वैज्ञानिकों का कहना है कि एक्यूपंक्चर करने वालों को तो मालूम था कि वे किसे वास्तविक और किसे मात्र दिखावटी उपचार दे रहे हैं। दूसरी ओर, न्यूयॉर्क स्थित मेमोरियल स्लोअन केटरिंग कैंसर सेंटर में एकीकृत चिकित्सा के प्रमुख जून माओ का कहना है कि हर्शमैन का परीक्षण पहले किए गए परीक्षणों से बेहतर है क्योंकि इसमें भाग लेने वालों को पता नहीं था कि उन्हें क्या उपचार प्राप्त हो रहा है।
इस संदर्भ में पेन मेडिसिन के प्रमुख संपादक रोलिन गेलेगर का कहना है कि कई अध्ययनों से पता चलता है कि एक्यूपंक्चर से तंत्रिका क्रिया में परिवर्तन होते हैं जो दर्द के लिए प्रासंगिक हैं। उनका कहना है कि एक्यूपंक्चर को बाहरी लोगों पर छोड़ने की बजाय इसे मुख्यधारा चिकित्सा देखभाल में जोड़ने से लाभ ही होगा। (स्रोत फीचर्स)