प्रदीप

उन्नीसवी शताब्दी के अंत में गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत, विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, ऊष्मागतिकी वगैरह क्षेत्रों में इतनी प्रगति हो चुकी थी कि सैद्धांतिक भौतिकी के पंडितों ने यह दावा कर दिया था कि भौतिकी में जो भी नई खोजें हो सकती थीं, वे हो चुकीं हैं और अब नया खोजने के लिए कुछ भी नहीं रह गया है।

जैसे सिकंदर ने बचपन में अपने पिता से इस बात की शिकायत की थी कि जिस प्रकार से वे दुनिया को फतह कर रहे हैं उसके चलते उसके पास जीतने के लिए कुछ भी नहीं बचेगा, ठीक उसी प्रकार से वैज्ञानिकों को भी विज्ञान (विशेषकर भौतिकी) से शिकायत थी! मगर वास्तव में ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकृत सिद्धांतों पर नए प्रयोगों ने प्रश्न चिन्ह लगा दिए और धीरे-धीरे इन पुराने सिद्धांतों की उपयोगिता कम होने लगी तथा ब्राहृांंड की व्याख्या के लिए नए सिद्धांतों की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। और इसके बाद तो भौतिकी में महान खोजों की झड़ी-सी लग गई और एक्स-रे, रेडियोसक्रियता, इलेक्ट्रॉन, रेडियम, प्रकाश-विद्युत प्रभाव, क्वांटम सिद्धांत आदि खोजें भौतिकी के क्षितिज पर प्रकट हुर्इं। और, 1905 में तो जैसे चमत्कार ही हो गया। इस वर्ष बर्न के पेटेंट ऑफिस में एक क्लर्क की हैसियत से काम कर रहे 26 वर्षीय अल्बर्ट आइंस्टाइन ने भौतिकी की स्थापित मान्यताओं को चुनौती देते हुए दिक्काल (यानी स्पेस-टाइम) और पदार्थ की नई धारणाओं के साथ चार शोध पत्र प्रकाशित किए जिन्होंने सैद्धांतिक भौतिकी को झकझोरकर उसका कायाकल्प ही कर दिया।

पहला शोध पत्र प्रकाश-विद्युत प्रभाव की व्याख्या प्रस्तुत करता था, जिसने क्वांटम सिद्धांत को आधार प्रदान किया।  दूसरे शोध पत्र में ब्रााउनियन मोशन की व्याख्या की गई थी तथा परमाणु और अणु की वास्तविकता को स्थापित किया गया था। तीसरा शोध पत्र विशेष सापेक्षता सिद्धांत से सम्बंधित था। इसमें आइंस्टाइन ने बताया था कि समय, स्थान और द्रव्यमान तीनों ही गति के सापेक्ष निर्धारित होते हैं। चौथे शोध पत्र में उन्होंने द्रव्य और ऊर्जा के बीच के सम्बंध को स्थापित करते हुए मशहूर  E=mc² सूत्र प्रतिपादित किया था।
यह सब जर्मनी के उल्म शहर के एक ऐसे लड़के ने किया था, जिसको परिवार और विद्यालय ने मंदबुद्धि घोषित कर दिया था; जिसने पढ़ाई पूरी होने से पहले ही विद्यालय छोड़ दिया था; पोलिटेक्निक प्रवेश परीक्षा में असफल हो चुका था; जिसे पढ़ाई पूरी करने के बाद विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य प्राप्त करने में भी असफल होने के बाद एक क्लर्क की नौकरी से ही संतोष करना पड़ा था।

आइंस्टाइन का जीवन इस बात का प्रमाण है कि साधारण से साधारण व्यक्ति भी परिश्रम, साहस और लगन से सफलता प्राप्त कर सकता है। वैसे 1905 में प्रकाशित आइंस्टाइन के शोध पत्रों से भौतिकी में तत्काल कोई परिवर्तन नहीं हुए। मगर जैसे ही आइंस्टाइन के कार्यों को सही मान्यता मिली, उनके सामने पदों को स्वीकार करने के लिए विश्वविद्यालयों और अकादमियों की भीड़ लग गई। इसी बीच आइंस्टाइन ने अपने विशिष्ट सापेक्षता सिद्धांत को आगे विकसित करते हुए सामान्य सापेक्षता सिद्धांत प्रतिपादित किया।

एलेक्ज़ेंडर पोप ने न्यूटन के शोक संदेश में लिखा था:

प्रकृति और प्रकृति के नियम रात के अंधकार में ओझल थे;
ईश्वर ने कहा, “न्यूटन को आने दो” और रोशनी फैल गई।

इसी को आगे बढ़ाते हुए सर जॉन कोलिंग्स स्क्वायर ने लिखा:

वह टिका नहीं: शैतान की चीख “हो!
आइंस्टाइन को आने दो!” ने यथास्थिति को बहाल कर दिया।

सामान्य सापेक्षता सिद्धांत ने एक नई संकल्पना को जन्म दिया, जिसके अनुसार: ‘यदि प्रकाश की एक किरण अत्यंत प्रबल गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से गुज़रेगी, तो वह मुड़ जाएगी।’1919 में ब्रिाटेन के खगोल वैज्ञानिकों ने पूर्ण सूर्यग्रहण के अवसर पर किए गए अवलोकनों से आइंस्टाइन के इस पूर्वानुमान की सत्यता प्रमाणित की। अगले दिन आइंस्टाइन जब सोकर उठे तो उनकी दुनिया ही बदल चुकी थी। उनके इस सिद्धांत को न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत के बाद दुनिया का सबसे बड़ा आविष्कार माना गया। आम लोगों में यह धारणा बन गई कि इस सिद्धांत का अन्वेषक अवश्य ही अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति होगा। आइंस्टाइन का नाम प्रतिभा का पर्याय बन गया। उनके मस्तिष्क को एक चमत्कारी अति-मानवीय मस्तिष्क माना जाने लगा। दुनिया के इन सब मिथकों से दूर आइंस्टाइन सदैव सादगी की मूर्ति बने रहे और व्यक्ति पूजा के खोखलेपन को उजागर करते रहे।

हालांकि क्वांटम यांत्रिकी का बीज बोने के बावजूद खुद आइंस्टाइन संभाविता आधारित क्वांटम यांत्रिकी को जीवन भर स्वीकार नहीं कर पाए। अलबत्ता, अपने विरोध के बावजूद आइंस्टाइन इसे सबसे सफल व्यावहारिक सिद्धांत मानते थे। इसी प्रकार से आइंस्टाइन ब्रह्मांडको स्थिर मानते रहे, परंतु जब एडविन हबल ने अपने प्रयोगों के आधार पर बताया कि ब्रह्मांड फैल रहा है, तब आइंस्टाइन ने इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल माना। ‘मुझसे गलती हो गई’ यह कहना अपने आप में वैज्ञानिक मनोवृत्ति का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। आइंस्टाइन ने हमें बता दिया कि विज्ञान में कोई भी सर्वज्ञानी नहीं होता!

आइंस्टाइन ने सिर्फ भौतिकी में ही क्रांति नहीं लाई बल्कि उन्होंने नस्ल/जातिवाद और युद्धवाद से भी लोहा लिया। वे आजीवन शांति, अहिंसा, सामाजिक न्याय, मानवता और समाजवाद के पक्षधर रहे। आइंस्टाइन को जितना मीडिया प्रचार मिला, अब तक उतना प्रचार न्यूटन के अलावा किसी भी वैज्ञानिक को नहीं मिला। 14 मार्च, 1879 को जन्मे शांतिवादी और मानवतावादी वैज्ञानिक आइंस्टाइन की मृत्यु 18 अप्रैल, 1955 को हुई। टाइम पत्रिका ने आइंस्टाइन को बीसवीं सदी का सबसे प्रभावशाली मनुष्य माना। दिक्काल और ब्रह्मांड सम्बंधी हमारी समझ में विस्तार के साथ भौतिकी की दुनिया में अंतज्र्ञान विरोधी अवधारणाओं को उखाड़कर प्रकृति को गहराई से समझने के प्रयास में युगांतरकारी आइंस्टाइन को सदैव याद रखा जाएगा। (स्रोत फीचर्स)