के. आर. शर्मा

मैं पिछले कुछ समय से चींटियों की एक खास किस्म के बारे में जानकारी जुटा रहा था। इन चींटियों को मैं बचपन से ही अपने गांव में देख रहा हूं। बचपन के गर्मियों के वो दिन जब आम के पेड़ों पर कच्ची केरियां तोड़ने के लिए चढ़ते थे तब अक्सर लाल रंग की चींटियां बुरी तरह से काट लेती थीं और जहां काटा हो वहां जलन काफी होती थी। तब इतना पता था कि ये चींटियां इन्हीं पेड़ों पर पत्तों को चिपकाकर, कागज़ की पुड़िया की तरह घरौंदा बनाती हैं और उसमें रहती हैं।
आखिर कैसे घोंसला बनाती होंगी ये चींटियां? इस सवाल का जवाब तब न तो स्कूल के शिक्षक ने दिया, न ही माता-पिता ने। खैर तो बात आई-गई हो गई। लेकिन हाल ही में मुझे इस चींटी के दर्शन हुए तो फिर वहीं सवाल मेरे दिमाग में कौंधा। इसके बारे में जो जानकारी मिली वो वाकई काफी रोमांचक है।

आपने भी आम के पेड़ों पर पाई जाने वाली इस लाल चींटी को जरूर देखा होगा। स्थानीय भाषाओं में इसे अलग-अलग नाम से जाना जाता है। मालवा के लोग इसे दूध मकोड़ी के नाम से जानते हैं तो होशंगाबाद के आसपास इसे बरबूटा कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे 'बीबर आंट' यानी जुलाहा चींटी कहा जाता है। नामों की इस बरबूटा चींटियों में घरौंदा बनाने के काम को मजदूर चींटियां अंजाम देती हैं। ये मजदूर रानी चींटी द्वारा दिए अंडों से निकले लार्वा का इस्तेमाल पत्तियों को चिपकाने में करते हैं। लांब अपनी इस अवस्था के दौरान रेशम का निर्माण करते हैं। कुछ अन्य मजदूर चींटियां पत्तों को पकड़कर पास-पास लाने में मदद करती हैं। और कुछ मज़दूर चींटियां अपने मुंह में पकड़े लार्वा को दो पत्तियों के बीच रखकर थोड़ा दबाती हैं, जिससे लार्वा से निकले रेशम से पत्तियां चिपक जाती हैं।
 
चर्चा में यह भी बता दें कि जीव वैज्ञानिक इसे Occophylla कहते हैं। इसका मतलब है पत्तियों से घर बनाने वाला।।
ये चींटियां पत्तियों को आपस में चिपका-चिपका कर अपना घर बनाती हैं। पत्तियों को चिपकाने के लिए ये एक पतले किन्तु मज़बूत रेशम के धागे का इस्तेमाल करती हैं। जब मुझे यह पता चला कि पत्तियों को जोड़ने के लिए चींटी रेशम का उपयोग करती है तो मेरी समस्या और भी बढ़ गई। मुझे इस बात की जानकारी है कि संपूर्ण जीव-जगत में मकड़ी ही एक मात्र जीब है जो अपनी बयस्क अवस्था में रेशम का निर्माण करता है। कीटों में, खासकर तितली और पतिंगों में, अपने जीवनचक्र की लार्वा से प्यूपा बनने की स्थिति में ही रेशम का निर्माण होता है। उसके बाद प्यूपा रेशम का खोल ओढ़कर पड़ा रहता है, जब तक कि अगली अबस्था की तैयारी
 
हो जाए। इसका मतलब यह हुआ कि वयस्क चींटी घोंसला बनाने के लिए आवश्यक रेशम का जुगाड़ कहीं और से करती होगी।
सबसे दिलचस्प मामला तो यह है कि ये चींटियां अपने लार्वा को एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कई सारे लाल रंग के चींटे जो वास्तव में श्रमिक होते हैं अपने मुंह में सफेद रंग की कोई चीज़ लिए दिखाई देते हैं। यह ‘सफेद रंग का कुछ’ मादा चींटी द्वारा दिए गए अंडे होते हैं। अंडों में से लार्वा निकलते हैं। ये लार्वा अपने आप तो कुछ नहीं करते लेकिन इनकी एक खूबी है कि ये रेशम का निर्माण कर सकते हैं।
है न मजेदार बात कि पक्षी अंडे देने के पहले घोंसला बनाते हैं। खुद माता-पिता सामग्री इकट्ठा करके घोंसला बनाते हैं। मधु-मक्खियों में भी वयस्क ही अपने शरीर में मोम का निर्माण करके एक मज़बूत छत्ता बनाते हैं; लेकिन बरबूटा की तो बात ही कुछ और है।

बरबूटा चींटियों में घरौंदा बनाने के काम को अंजाम देती हैं मजदूर चींटियां। मज़दूर चींटियां अपने मुंह में लार्वा को दबाए पत्तों को चिपकाने का काम शुरू करती हैं। इस दौरान कुछ अन्य श्रमिक चींटियां पत्तों को पकड़कर पास-पास लाने में मदद करती हैं। अब लार्वा जो कि श्रमिक चींटी के मुंह में है, जो अपने मुंह से सफेद रंग का चिपचिपा पदार्थ छोड़ने लगता है। लार्वा मुंह में से यह सफेद रंग का पदार्थ वैसे ही निकालता है जैसे गोंद की शीशी को दबाने पर गोंद निकलती है। और इसी चिपचिपे पदार्थ से पत्तों को फौरन चिपकाया जाता है। यह सफेद रंग का पदार्थ वास्तव में रेशम होता है जो हवा के संपर्क में आते ही सूख जाता है।

बरबूटा चींटियों में मजदूर चींटियां भी दो तरह की होती हैं - एक वे जो पत्तियों को बाहर से पकड़कर उनके किनारों को सटाकर रखती हैं तथा दुसरी वे जो लार्वा को मुंह में दबाकर पत्तों को चिपकाने का काम करती हैं। यह सारा काम एक मशीन की तरह होता है। पत्तों को चिपकाने में चींटियों की फौज लगी रहती है। |
ये चींटियां आम के अलावा जामुन, महुआ, गोंदी, करंद, शीशम आदि के पेड़ों पर भी पाई जाती हैं। ये वही चींटियां हैं जिनका उपयोग बस्तर के आदिवासी चटनी के रूप में करते हैं --- कहते हैं काफी स्वादिष्ट होती है वो चटनी!


के. आर. शर्माः एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम से जुड़े हैं। उज्जैन में रहते हैं।
फोटोग्राफ: के. आर. शर्मा।