आर. एस. राजपूत

आज देश में स्कूली पाठ्यक्रम को लेकर एक बहस छिड़ी है। खासकर इस बात को लेकर कि यह किन मूल्यों पर आधारित हो? पाठ्यक्रम में राष्ट्रीयता, धार्मिकता आदि भावनाओं की क्या जगह है? निश्चित ही तमाम शिक्षक व पालक इस विषय पर सोचते होंगे। इन्हें व्यक्त करना और इन पर बहस करना आज बहुत जरूरी हो गया है।
यहां हम सेमरी हरचंद के एक शिक्षक आर. एस. राजपूत का एक लेख प्रस्तुत कर रहे हैं - इतिहास शिक्षण के उद्देश्यों पर चूंकि उन्होंने अपनी सोच का आधार अखंड मानवीयता को बनाया है यह लेख हमें मौलिक स्तर पर सोचने पर मजबूर करता है। हम आशा करते हैं कि ज्यादा-से-ज्यादा शिक्षक इस लेख पर अपनी प्रतिक्रिया लिख भेजेंगे।
आज विश्व का मानव उन्नति गा के उस स्थान पर पहुंच चुका है जहां केवल दो रास्ते हैं पहला सही शिक्षा प्राप्त कर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ना तथा दूसरा सारी सभ्यता और मनुष्य जाति का संपूर्ण विनाश का मार्ग।

हम जानते हैं वर्तमान समय में शिक्षा 'व्यक्तिगत, राष्ट्रीय एवं राज - नैतिक संघर्ष' की धुरी बन गई है। इसलिए वह सामाजिक राजनैतिक उथल-पुथल से प्रभावित होती है।
गलत शिक्षा अथवा गलत सिद्धांतों पर दी गई शिक्षा के परिणाम बड़े गलत हुए हैं। मुझे मशहूर शायर की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं जो हमारे देश की स्थिति को बड़े अच्छे ढंग से व्यक्त करती हैं।  
हमें एक घर बनाना था
                  ये हम क्या बना बैठे।
कहीं मंदिर बना बैठे।
                  कहीं मस्जिद बना बैठे
परिदों के यहां फिरका
                  परस्ती क्यों नहीं होती
कभी मंदिर पे जा बैठे।
                  कभी मस्जिद पे जा बैठे।
 
विश्व बंधुता का आदर्श हमसे कोसो दूर दिखाई पड़ रहा है। उसके स्थान पर आतंकवाद की गतिविधियों से भारत ही नहीं पूरा विश्व किस तरह त्रस्त है हम बखूबी जानते हैं। यह सब इतिहास के गलत ढंग से पढ़ाए जाने तथा गलत समय में पढ़ाए जाने का परिणाम है।
वर्तमान युग में विज्ञान तथा औद्योगिक प्रगति इसी प्रकार होती रहेगी, परन्तु यह तथ्य सभी राष्ट्रों के शिक्षा विदों को आवश्यक रूप से समझ में आ चुका होगा कि अब विश्व के सभी राष्ट्र एक साथ बैठकर स्कूल तथा विश्व विद्यालय के पाठ्यक्रम (सभी विषयों) विशेषकर इतिहास के पाठ्यक्रम का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर डालें। अब देश में जाति के स्थान पर बालकों को उच्च नैतिक आदर्श व मानव मूल्यों की शिक्षा प्राप्त हो जिसमें 'सत्य' नैतिक आदर्श पर आधारित हों। परन्तु इसके लिए हमें बहुत बड़े त्याग की ज़रूरत होगी।

सभी राष्ट्रों एवं जातियों को अपनी वीर-पूजा की कहानियों को समाप्त करना होगा। जाति, धर्म, राष्ट्र के अहंकार का त्याग करना होगा। इसमें संदेह नहीं कि यह उन लोगों के प्रति अकृतज्ञता होगी जिन्होंने अपने देशजाति, धर्म के लिए बलिदान किए।
परन्तु यदि यह संभव हो सका तो वह दिन जरूर आएगा जब विश्व का प्रत्येक बालक एवं नौजवान एक समान मानवता का सच्चा इतिहास पढ़ेगा, दुनिया वास्तविक शांति पाएगी। विभिन्न देशों में पढ़ाए जाने वाला इतिहास अपनी जाति, धर्म, राष्ट्र को महान बताते हुए रचा गया है जिससे बच्चे स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य को 'हेय' समझते हैं। चाहे इतिहास हो या अन्य विषय, जो उच्च मानवता के आदर्श को प्राप्त करने में सहायक न हो उसे शिक्षा नहीं कह सकते। अतः इतिहास का विषय बालकों को 15 बर्ष की उम्र के पश्चात पढ़ाया जाए तो कोई हर्ज नहीं हैं।
मोहम्मद, ईसा, बुद्ध, कृष्ण,
                        कबीर, गांधी सबको पढ़ डालो।
सब धर्मों के सुविचारों
                       के गजरे गढ़ डालो।
मत बनवाओ मंदिर,
                       मस्जिद, गिरजे, गुरूद्वारे।
इनसे नफरत का ज़हर
                       ही फैला जग में।
सारे दीन-दुखियों की सेवा करो।
                        मदर टेरेसा कह रही,
मिले दिल से दिल की बूंद,
                       प्यार की गंगा बह रही।
इस तरह दिलों को जोड़ने का
                       नुस्खा सरे बाज़ार बांटता हूं।
जी हां हुजूर मैं प्यार बांटता हूं।


आर. एस. राजपूतः संस्कार विद्यालय, सेमरी हुरचंद, जिला होशंगाबाद में पढ़ाते हैं।