कुछ जंतुओं में क्षमता होती है कि वे अपने कटे हुए अंग को फिर से उगा लेते हैं। इनमें कुछ मछलियां और उभयचर जीव शामिल हैं। यह लगता तो चमत्कार जैसा है मगर अब वैज्ञानिकों ने पता लगा लिया है कि इस क्षमता का जेनेटिक राज़ क्या है और सोच रहे हैं कि क्या मनुष्यों में भी यह क्षमता पैदा की जा सकती है।
वैसे तो यह क्षमता कई जंतुओं में पाई जाती है कि वे अपनी कोई भुजा पूरी तरह पुन: विकसित कर सकते हैं - मांसपेशियों, हड्डियों और रक्त संचार सहित। यह भी पता रहा है कि इसके लिए वे घाव की जगह पर बनने वाली स्टेम कोशिकाओं का सहारा लेते हैं। मगर यह पता नहीं था कि जेनेटिक स्तर पर इस क्रिया का नियमन कैसे होता है।
इसके अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने तीन अलग-अलग जंतुओं की भुजा काट दी - दो मछलियां (ज़ेब्रा मछली और बिचिर मछली) तथा एक सेलेमेंडर (एक्सोलोटल)। ये तीनों ही भुजा को फिर से उगा सकते हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने घाव के स्थान से प्राप्त आरएनए (राइबोन्यूक्लिक एसिड) की तुलना की। आरएनए कोशिकाओं में वह पदार्थ होता है जो जेनेटिक सूचना को कार्यरूप देने में भूमिका निभाता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि आरएनए के 10 छोटे-छोटे टुकड़े (माइक्रो-आरएनए) तीनों जंतुओं में एक जैसे थे। और तो और, जंतुओं में संरचनागत अंतरों के बावजूद, तीनों में ये एक जैसा काम करते थे।
इस निष्कर्ष से पता चलता है कि इन तीनों जंतुओं में ये जीन्स और यह क्षमता एक ही स्रोत से आई है। वर्तमान सोच भी यही है कि करीब 4.2 करोड़ वर्ष पहले इन तीनों जंतुओं की उत्पत्ति एक ही पूर्वज से हुई है। इसका मतलब हुआ कि अंग पुनर्जनन की यह क्षमता विकास की प्रक्रिया में बार-बार स्वतंत्र रूप से प्रकट नहीं हुई है, बल्कि एक बार प्रकट होने के बाद इसे सहेजकर रखा गया है।
प्लॉस वन नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन का मनुष्यों के संदर्भ में क्या आशय है? वैज्ञानिकों का मत है कि अभी यह न सोचें कि मनुष्यों में भी हाथ या पैर उगने लगेंगे मगर इतना तय है कि यदि हम उपरोक्त माइक्रो-आरएनए को इस तरह परिवर्तित कर सकें कि वे मनुष्य में भी काम करने लगें तो गंभीर चोटों की मरम्मत के मामले में काफी आगे बढ़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)