डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

भूसतह में पड़े उस छेद या दरार को ज्वालामुखी कहा जाता है जिसमें से विस्फोट के साथ प्रज्वलित गैसें, तरल लावा तथा तप्त शैल खण्ड निकलते हैं। ज्वालामुखियों से विस्फोट इतना भयंकर होता है कि उसकी आवाज़ हज़ारों किलोमीटर तक सुनाई पड़ती है। जैसे, 26 अगस्त सन 1883 को क्रैकैटोआ (इंडोनेशिया) नामक स्थान पर हुए ज्वालामुखी विस्फोट की आवाज़ वहां से लगभग 4800 किलोमीटर दूर स्थित ऑस्ट्रेलिया तक सुनी गई थी।
जिन ज्वालामुखियों से गैस की अपेक्षा लावा अधिक निकलता है, वे शांत किस्म के होते हैं। उदाहरणार्थ हवाई द्वीप का मोनालोआ ज्वालामुखी इसी प्रकार का है। ऐसे ज्वालामुखियों से काफी मात्रा में लावा निकलता है जो काफी दूर-दूर तक फैल जाता है। सन 1979 में इटली के पौम्पेई नामक नगर के पास होने वाला विसुवियस ज्वालामुखी विस्फोट इसी प्रकार का था। इस ज्वालामुखी से निकले लावा ने पूरे पौम्पेई नगर को ढंक लिया था। बाद में की गई खुदाई से इस प्राचीन नगर के अवशेष मिले हैं। इन अवशेषों में उस नगर के लोगों के लावा से आवृत अस्थि पंजर तथा उनके द्वारा उपयोग में आने वाले सामान मिले हैं।

कोई भी ज्वालामुखी स्थायी रूप से या सदैव सक्रिय नहीं रहता। इसी कारण ज्वालामुखियों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया है जिनमें शामिल हैं जागृत, सुप्त तथा मृत। जागृत ज्वालामुखी वे हैं जिनसे लावा, धुआं इत्यादि का निकलना जारी है। कोई भी ज्वालामुखी बहुत लम्बे समय तक सक्रिय नहीं रहता है, बल्कि कुछ समय के लिए विश्राम लेता है। विश्राम की अवधि कुछ दिनों से लेकर लाखों वर्षों तक हो सकती है। इसे सुप्त अवस्था कहा जाता है। यदि यह अवस्था बहुत अधिक समय तक हो तो इसे मृत मान लिया जाता है। मध्य भारत में स्थित दक्कन का पठार तथा झारखंड में राजमहल ट्रैप मृत ज्वालामुखी के उदाहरण हैं।
ज्वालामुखी विस्फोट होते क्यों हैं? भूवैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि भूसतह के नीचे अलग-अलग गहराइयों पर कुछ रेडियोधर्मी खनिज मौजूद हैं जिनके विखंडन से गर्मी उत्पन्न होती है। इस गर्मी के कारण पृथ्वी के भीतर मौजूद चट्टानें एवं अन्य पदार्थ तपते रहते हैं। इसके फलस्वरूप भूपटल के निचले स्तरों में तापमान चट्टानों के गलनांक से ऊपर पहुंच जाता है। परन्तु गहराई के साथ दाब भी बढ़ता जाता है। अत: इन गहराइयों पर ताप और दाब के बीच द्वंद्व चलता रहता है। हालांकि तापमान चट्टानों के गलनांक (1000 डिग्री सेल्सियस) से ऊपर हो जाता है परन्तु अत्यधिक दाब के कारण चट्टानें द्रवित नहीं हो पातीं लेकिन कभी-कभी ताप तथा दाब के बीच असंतुलन पैदा हो जाता है। यह असंतुलन दो प्रकार से पैदा हो सकता है -
1. दाब के सापेक्ष ताप में अत्यधिक वृद्धि
2. ताप के सापेक्ष दाब में कमी हो जाए।

इन दोनों ही अवस्थाओं में भूसतह के नीचे स्थित चट्टानें तत्काल द्रव अवस्था में परिवर्तित हो जाती हैं तथा मैगमा का निर्माण होता है। कुछ ऐसा ही परिणाम दाब में अपेक्षाकृत कमी के कारण भी होता है। भूसंचलन विक्षोभों के कारण भूपटल के स्तरों में पर्याप्त हलचल होती है जिसके फलस्वरूप बड़ी-बड़ी दरारों का निर्माण होता है। ये दरारें काफी गहराई तक जाती हैं। जिन स्तरों तक दरारों की पहुंच होती है, वहां दाब में कमी आ जाती है। इसकी वजह से ताप तथा दाब के बीच असंतुलन पैदा हो जाता है। इस परिस्थिति में यदि तापमान चट्टानों के गलनांक से ऊपर हो जाए तो अविलम्ब स्थानीय रूप से मैगमा का निर्माण होता है।
जैसे ही मैगमा का निर्माण होता है यह अविलम्ब अधिक दाब वाले क्षेत्र से कम दाब वाले क्षेत्र की ओर बहता है। इसी क्रम में यह दरारों से होकर ऊपर भूसतह की ओर बढ़ता है। दरारों से होकर ऊपर बढ़ने के क्रम में कभी तो मैगमा भूसतह पर पहुंचने में सफल हो जाता है, परन्तु कभी रास्ते में ही जम कर ठोस हो जाता है। भूसतह तक पहुंचने वाले मैगमा को लावा कहते हैं तथा इसी के कारण ज्वालामुखी विस्फोट होता है। भूसतह के नीचे ठोस हो जाने वाले मैगमा को अंतर्वेधी तथा भूसतह तक पहुंचने वाले मैगमा को बहिर्वेधी कहा जाता है। अंतर्वेधी मैगमा से बड़े-बड़े क्रिस्टल से निर्मित चट्टानों (जैसे ग्रैनाइट, गैब्रो इत्यादि) की उत्पत्ति होती है जबकि बहिर्वेधी मैगमा (अर्थात लावा) से छोटे क्रिस्टल से निर्मित चट्टानों (जैसे बेसाल्ट, रायोलाइट इत्यादि) की उत्पत्ति होती है।

ज्वालामुखी एक ओर तो भयंकर विनाश लीला प्रस्तुत करता है मगर दूसरी ओर खनिजों, चट्टानों तथा वायुमंडल के विभिन्न घटकों के सृजन और विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है। ज्वालामुखी से निकले लावा से लावा पठारों तथा पर्वतों का निर्माण हुआ है। ज्वालामुखी से निकली गैसें वायुमंडल का अंग बन पाईं। वायुमंडल में मौजूद जलवाष्प तथा सल्फर डाईऑक्साइड मुख्य रूप से ज्वालामुखियों की ही देन हैं। वैज्ञानिकों का विचार है कि पृथ्वी का वर्तमान वायुमंडल इसका आदि-वायुमंडल नहीं है; बल्कि पृथ्वी से निकली गैसों के कारण धीरे-धीरे अस्तित्व में आया है। अनुमान है कि आदि-वायुमंडल ऑक्सीजन विहीन था। उस काल में पृथ्वी के वायुमंडल में हाइड्रोजन तथा अनेक प्रकार के हाइड्रोकार्बन की प्रधानता थी। ज्वालामुखी विस्फोटों से निकली गैसों के मिलने से वायुमंडल में समय-समय पर कई परिवर्तन होते रहे हैं।
ज्वालामुखी विस्फोटों से निकले लावा ने भूपटल की चट्टानों से प्रतिक्रिया कर उनके रासायनिक एवं खनिज संघटन में परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इन परिवर्तनों के कारण अनेक प्रकार की नई चट्टानों एवं खनिजों की उत्पत्ति हुई है। ज्वालामुखी विस्फोटों तथा उनसे निकले लावा तथा अन्य पदार्थों ने भूसतह पर विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों को जन्म दिया है। इन स्थलाकृतियों में प्रमुख हैं लावा पठार, लावा सोपान (लावा कैस्केड), लावा सुरंग तथा लावा स्तूप (लावा टुमुलस), इत्यादि।
ज्वालामुखी विस्फोट सिर्फ स्थलीय क्षेत्रों में नहीं, अपितु समुद्रों की गहराइयों में भी होते हैं। समुद्री ज्वालामुखी विस्फोटों के कारण छोटे-छोटे टापुओं का निर्माण हो जाता है। इन टापुओं में जो बहुत छोटे होते हैं, वे समुद्री लहरों द्वारा नष्ट हो जाते हैं। परन्तु बड़े द्वीप बच जाते हैं तथा वे निरन्तर आकार में बढ़ते रहते हैं। प्रशांत महासागर में ज्वालामुखी लावा से निर्मित अनेक द्वीप मौजूद हैं। अटलांटिक तथा हिन्द महासागर में भी इस प्रकार के द्वीप पाए जाते हैं।

उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि भारत में अतीत में सात बार ज्वालामुखी विस्फोट हुए हैं जिनसे निकला लावा काफी बड़े क्षेत्र में फैला है। पहला ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग तीन अरब वर्ष पूर्व हुआ था जिसे ‘दालमा विस्फोट’ कहा जाता है। इसके अवशेष झारखंड राज्य के सिंहभूम क्षेत्र में ‘दालमा ट्रैप’ के रूप में आज भी पाए जाते हैं। भारत में दूसरा ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग ढाई अरब वर्ष पूर्व हुआ था जिसे ‘कडप्पा ज्वालामुखी (आंध्र प्रदेश)’ कहा जाता है। तीसरा ज्वालामुखी विस्फोट विन्ध्य समूह की चट्टानों के निर्माण के बाद हुआ था जिसे ‘मलानी विस्फोट’ कहा जाता है। चौथा विस्फोट आज से लगभग 32.5 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था जिसे ‘पीट पंजाल ट्रैप’ कहा जाता है। पांचवां ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग 13.5 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था जिसे ‘राजमहल ट्रैप’ कहा जाता है। यह विस्फोट झारखंड राजमहल क्षेत्र में हुआ था। भारत में छठा ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग 4.5 करोड़ वर्ष पूर्व डेक्कन नामक स्थान पर हुआ था। इसे ‘डेक्कन ट्रैप’ कहा जाता है। इस विस्फोट से निकले लावा ने मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा आंध्र प्रदेश के काफी बड़े क्षेत्र को ढंक लिया। सातवां और अन्तिम बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट आज से लगभग 15 लाख वर्ष पूर्व बैरेन द्वीप पर हुआ था। इस स्थान पर समय-समय पर लावा तथा धुआं निकलता रहता है। यहां सन 1789, 1795 तथा 1803 में भी लावा तथा धुआं निकलता देखा गया। यहां अन्तिम बार 1991 में लावा तथा धुआं निकलता देखा गया। (स्रोत फीचर्स)