डॉ. रामप्रताप गुप्ता

बीमारियों को सामान्यतया दो वर्गों में विभाजित किया जाता है- पहली, संक्रामक बीमारियां और दूसरी, जीवन शैली से उत्पन्न बीमारियां। विकसित राष्ट्रों में टीबी, मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियों पर तो नियंत्रण पा लिया गया है परन्तु वहां के नागरिक प्रमुख रूप से जीवनशैली से उत्पन्न बीमारियों जैसे रक्तचाप, हृदयरोग, कैंसर, गुर्दों के रोग आदि के शिकार होते हैं।
दूसरी ओर, भारत जैसे विकासशील राष्ट्र पुरानी संक्रामक बीमारियों से तो मुक्ति प्राप्त नहीं कर सके हैं, वहीं डेंगू, चिकनगुनिया, ज़ीका जैसी नई-नई संक्रामक बीमारियों के भी शिकार हो रहे हैं। काऊ फ्लू, चिकन फ्लू, बर्ड फ्लू जैसी संक्रामक बीमारियां भी समय-समय पर दस्तक देती रहती हैं। डेंगू ने 2015 तक देश के पैंतीस राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को अपनी चपेट में ले लिया था। इस वर्ष अब तक देश में लगभग 1 लाख लोग इस बीमारी से पीड़ित हुए हैं और 220 लोग मौत के शिकार हो गए हैं।
इन बढ़ती संक्रामक बीमारियों के साथ-साथ भारत में जीवन शैली की बीमारियों, जैसे रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह आदि भी तेज़ी से पांव पसार रही है। इन बीमारियों की प्रभावी और सस्ती दवाइयों के अभाव में इनसे निपटना मुश्किल होता जा रहा है और लोगों पर बीमारियों का बोझ बढ़ता जा रहा है।
इन बढ़ती स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार और उन्हें प्रभावी बनाने की आवश्यकता तो है ही, साथ ही नई और अधिक प्रभावी दवाइयों की खोज भी आवश्यक है। वर्तमान में चिकित्सा क्षेत्र में अधिकांश शोध कार्य विकसित राष्ट्रों में प्रमुख रूप से बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों द्वारा किया जा रहा है। अत: उनके द्वारा किया गया अधिकांश शोध कार्य वहां पाई जाने वाली बीमारियों तक सीमित रहता है। ऐसे में विकासशील राष्ट्रों की प्रमुख बीमारियों की चिकित्सा हेतु शोध सुविधाओं का सृजन पूर्णत: उपेक्षित रह गया है।
भारत में चिकित्सा शोध कार्य पर नज़र डालें तो शोचनीय स्थिति सामने आती है। इण्डेक्स मेडिकस द्वारा प्रदत्त आंकड़ों के अनुसार सन 1998 में स्वास्थ्य एवं चिकित्सा के क्षेत्र में विश्व स्तर पर प्रकाशित 4 लाख 16 हज़ार 561 शोध पत्रों में से भारत का हिस्सा मात्र 2974 शोध पत्र अर्थात 0.714 प्रतिशत था। चिकित्सा शोध में नगण्य हिस्सा हमारी कमियों की ओर ध्यान आकर्षित करता है।

ऐसे में चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत संस्थाओं का दायित्व है कि वे शोध कार्य को प्रोत्साहन दें। देश में चिकित्सा शोध को प्रोत्साहन और दिशा देने का दायित्व सन 1949 से ही भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद कर रही है। आधा दर्ज़न से अधिक संस्थाएं शोध कार्य हेतु धन भी उपलब्ध कराती हैं। परन्तु अब तक का इतिहास बताता है कि ये संस्थाएं इस दिशा में कोई प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर पाई हैं। सन 2007 में राष्ट्रपति के आदेश पर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग का सृजन भी किया गया। उद्योग भी इस क्षेत्र में सहयोग करते रहे हैं, यद्यपि यह अपर्याप्त ही रहा है। इस सब के बावजूद देश चिकित्सा क्षेत्र में शोध की दृष्टि से पिछड़ता ही जा रहा है।
विश्व में किए जा रहे शोध कार्य में भारत का यह अत्यन्त निम्न स्तरीय योगदान भी मात्र सार्वजनिक क्षेत्र के चंद प्रमुख चिकित्सा संस्थानों तक ही सीमित है। गंगाराम अस्पताल दिल्ली के डीन डॉ. समीरन रेड्डी और उनके दो साथियों द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार 2005-14 की दस वर्षीय अवधि में केवल 25 चिकित्सा संस्थानों ने प्रति वर्ष 100 से अधिक शोध पत्र प्रकाशित किए, जो देश के कुल प्रकाशित शोध पत्रों का 40.3 प्रतिशत था। 332 चिकित्सा महाविद्यालियों और संस्थानों ने एक भी शोध पत्र प्रकाशित नहीं किया।
इस तरह हम देखते है कि चिकित्सा में शोध कार्य मात्र कुछ शासकीय संस्थानों और महाविद्यालयों तक ही सीमित है। चिकित्सा विज्ञान में शोध कार्य की उपेक्षा करने वालों में निजी चिकित्सा महाविद्यालय प्रमुख हैं। इनके प्राध्यापक शिक्षण कार्य पूरा करने के बाद अपना पूरा ध्यान निजी क्लीनिकों पर प्रैक्टिस पर लगाते हैं।

इसी परिप्रेक्ष्य में यह प्रश्न उठता है कि क्या चिकित्सा के भारतीय विद्यार्थियों की शोध कार्य में कोई रुचि नहीं है, और क्या वे जल्दी से जल्दी स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर सरकारी नौकरी या निजी प्रैेक्टिस करना चाहते है। यह कथन पूरी तरह सत्य नहीं है। अक्टूबर 2006 और फरवरी 2008 में एकेडमी ऑफ मेडिसिन एण्ड बायो रिसर्च, पुणे ने स्नातक चिकित्सा छात्रों का एक सम्मेलन आयोजित किया था ताकि उनमें शोध कार्य के प्रति रुचि जागृत की जा सके। पहले सम्मेलन में 128 शोध सारांश प्राप्त हुए थे जिनकी संख्या दूसरे सम्मेलन में बढ़कर 350 हो गई। दोनों सम्मेलन में प्रस्तुत शोध सारांशों का स्तर भी अच्छा था। इन सम्मेलनों का निष्कर्ष यह रहा कि भारतीय विद्यार्थियों में शोध प्रवृत्ति प्रचुर मात्रा में है और वे मांग कर रहे हैं कि इस तरह के सम्मेलन प्रति वर्ष आयोजित किए जाएं। अत: अगर हम रुचि रखने वाले सभी विद्यार्थियों के लिए शोध तकनीक के अल्पकालीन पाठ्यक्रम आयोजित करें तो भारत में शोध कार्यों को प्रोत्साहन मिल सकेगा।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान ने चिकित्सा क्षेत्र के स्नातक स्तर के विद्यार्थियों के लिए दो प्रमुख कार्यक्रम शुरु किए हैं। एक है चिकित्सा विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम जिसका उद्देश्य चिकित्सा स्नातकों को जैव-चिकित्सा विज्ञान और चिकित्सा शोध, दोनों क्षेत्रों में प्रशिक्षण देना है ताकि वे चिकित्सा विज्ञान और मूलभूत विज्ञान के बीच की खाई को पाट सके। इस कार्यक्रम के अनुभव चिकित्सा छात्रों में शोध में रुचि जगाने और बढ़ाने में सफलता के प्रतीक हैं। दूसरे कार्यक्रम के अंतर्गत चिकित्सा पाठ्यक्रम के प्रथम और द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को ग्रीष्मावकाश में शोध अनुभव प्रदान करने के लिए प्रशिक्षण आयोजित किए जा रहे हैं। ऐसे कार्यक्रम और भी चिकित्सा महाविद्यालयों में भी शु डिग्री किए जाने चाहिए।
भारत में सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश चिकित्सा महाविद्यालयों में शोध कार्य हेतु मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। अत: सभी चिकित्सा महाविद्यालयों एवं संस्थानों में आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि शोध में रुचि रखने वाले स्नातक विद्यार्थियों को मौके मिल सकें। उदाहरण के तौर पर, नई दिल्ली स्थित ऐम्स में चिकित्सा शोध की सुविधाएं उपलब्ध हैं। वहां सन 2007 में 33 सामान्य सीटों के लिए 75,000 आवेदन आए थे जो चिकित्सा विद्यार्थियों में शोध के प्रति रुचि का द्योतक है। अन्य राज्यों के ऐम्स जैसे संस्थानों और अन्य चिकित्सा महाविद्यालयों में समुचित शोध सुविधाएं निर्मित हो जाएं तो भारत में चिकित्सा शोध कार्य गति पकड़ सकेगा।

भारत में चिकित्सा क्षेत्र में प्राध्यापकों की पदोन्नति मात्र वरिष्ठता के आधार पर की जाती है और शोध कार्य को कोई महत्व नहीं दिया जाता। शोध कार्य हेतु प्रेरणा देने के लिए यह आवश्यक है कि प्राध्यापकों द्वारा किए गए शोध पत्रों के प्रकाशन को भी पदोन्नति का एक आधार माना जाए। ऐसे में कई योग्य शिक्षक जो वर्तमान में शोध कार्य नहीं कर रहे हैं, वे भी शोध कार्य की दिशा में प्रवृत्त होंगे और छात्रों को भी इस दिशा में प्रेरित भी करेंगे। भारतीय चिकित्सा संघ द्वारा चिकित्सा महाविद्यालयों की मान्यता को निरन्तर करने के पूर्व यह देखना चाहिए कि उस संस्थान के शिक्षकों और छात्रों के कितने शोध-पत्र प्रकाशित हुए हैं। अंत में डॉ. समीरन रेड्डी की इन पंक्तियों के साथ बात पूरी करते हैं:
“विभिन्न राज्यों में प्रदत्त चिकित्सा शिक्षा को समस्तरीय बनाने के लिए भारत को श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले शोध कार्य को प्रोत्साहित करना पड़ेगा जो संस्थान में प्रदत्त चिकित्सा शिक्षा और प्रदत्त चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता का भी मापदण्ड होगा। फिलहाल शोध कार्य पदोन्नति को प्रभावित नहीं करता है, जो मात्र वरिष्ठता से निर्धारित होती है। चिकित्सा महाविद्यालयों के चिकित्सक अपने अतिरिक्त समय में निजी क्लीनिक चलाते हैं, परिणामस्वरूप शोध कार्य प्रतिकूल प्रभावित होता है। जहां कहीं भी हो, शोध प्रवृत्ति महत्वपूर्ण होती है, चाहे वह शासकीय चिकित्सा महाविद्यालयों में हो या निजी संस्थानों में। स्थायी और निरन्तर शोध प्रगति के लिए शासकीय सहायता अनिवार्य है।” (स्रोत फीचर्स)