अश्विन साई नारायण शेषशायी

काफी समय से बड़ा भौतिक शास्त्र बड़े और छोटे प्रोजेक्ट्स का सम्मिश्रण रहा है। ये दोनों एक-दूसरे का पोषण करते हैं। जीव विज्ञान को यहां तक पहुंचने में समय लगा है मगर जीनोमिक्स के जन्म ने इसे मज़बूती से उसी रास्ते पर खड़ा कर दिया है।
पंद्रह वर्ष और दो माह पहले, मानवता जान चुकी थी कि वह जीवन के विशाल संसार में कहां खड़ी है। नेचर पत्रिका के 2001 के एक अंक में एक शोध पत्र प्रकाशित हुआ था जिसमें आधुनिक मानव की आनुवंशिक सामग्री यानी डीएनए की लगभग पूरी श्रृंखला का विवरण प्रस्तुत किया गया था। मानव ‘जीनोम’ का यह अनुक्रमण (यानी उसकी क्षार श्रृंखला पता करना) वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय दल द्वारा किया गया था। यह पंद्रह वर्षों के राजनैतिक, कानूनी, नैतिक और वैज्ञानिक कौतूहल का परिणाम रहा है। इसकी लागत 1 अरब डॉलर से अधिक रही है और यह जीव विज्ञान में बड़े विज्ञान के जन्म का द्योतक है। इसके साथ हमने यह समझने में एक बड़ी छलांग लगाई है कि हम कहां से आए हैं, और यह भविष्यवाणी करने की क्षमता हासिल की है कि कहां पहुंच सकते हैं।

आगे बढ़कर 2007 में पहुंचते हैं। कैम्ब्रिज से एक बैठक की रिपोर्ट में घोषणा की गई कि अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय ने पूरे 1000 मनुष्यों के जीनोम का अनुक्रमण करने का फैसला किया है। विचार यह था कि पूरी मानव आबादी में जेनेटिक विविधता की गति का दस्तावेज़ीकरण किया जाए। यदि पहले मानव जीनोम के अनुक्रमण के लिए 15 वर्ष और एक अरब डॉलर लगे थे, तो कल्पना कीजिए कि एक हज़ार जीनोम का अनुक्रमण करने में कितनी मेहनत और धन लगता। क्या ये वैज्ञानिक बहक चुके थे? ऐसा तो बिलकुल नहीं था। यह प्रयास 2008 में शु डिग्री हुआ और 2015 में सम्पन्न घोषित कर दिया गया। मात्र सात वर्ष की अवधि में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के 1000 मनुष्यों के जीनोम का अनुक्रमण हो गया और उनका अध्ययन कर लिया गया। और इस काम की लागत प्रोजेक्ट के अनुमानित बजट का सौंवा भाग रही।
1990 के मध्य दशक से, डीएनए अनुक्रमण की लागत मूर के नियम के अनुरूप गिरी: प्रति दो वर्षों में यह लागत आधी हुई। मगर 2000 के दशक में यह और भी तेज़ी से कम होने लगी, इसने मूर के नियम को झुठला दिया। यह अचानक गिरावट जेनेटिक्स के हालिया इतिहास के एक निर्णायक मोड़ से जुड़ी है। यह मोड़ था जिसे आजकल अगली-पीढ़ी का अनुक्रमण कहा जाता है। आजकल, 10 लाख अक्षरों वाली जेनेटिक पुस्तक को एक डॉलर के सौंवे अंश में पढ़ा जा सकता है। यही काम 15 साल पहले 5000 डॉलर में होता था। यदि लागत में गिरावट मूर के नियम के अनुरूप ही चलती तो आज 10 लाख अक्षरों वाले डीएनए को पढ़ने की लागत 50 डॉलर रही होती। इस टेक्नॉलॉजी क्रांति ने न सिर्फ अनुक्रमण की लागत को कम किया बल्कि मानव जीनोम को पढ़ने में लगने वाले समय में भारी कमी की। आजकल, अगली-पीढ़ी की अनुक्रमण मशीन की मदद से दसियों या सैकड़ों मानव जीनोम चंद दिनों या घंटों में ही पढ़े जा सकते हैं। दरअसल, आजकल जेनेटिक अनुक्रम का सम्बंध बीमारियों से जोड़ने के लिए जीनोम अनुक्रमण के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट्स काफी आम हो गए हैं।

सहस्र जीनोम प्रोजेक्ट की सफलता ने कई उत्साही वैज्ञानिकों को 10,000 रीढ़धारी जंतुओं के जीनोम अनुक्रमण को प्रेरित किया है ताकि जंतु जीवन के विकास को समझने में मदद मिले। आखिरकार, जैव विकास, जो जीवन के केंद्र में है, हमारे डीएनए में बुना हुआ है, और जितने ज़्यादा जीनोम हम पढ़ेंगे, जीवन को उतना ही बेहतर समझ पाएंगे।
रोचक बात यह है कि अगली-पीढ़ी की तकनीकें न सिर्फ स्थिर जीनोम अनुक्रम को समझने में मदद करती हैं, वे गतिशील शरीर क्रिया को समझने में भी मददगार होती हैं। सजीव कोशिकाओं से बने होते हैं और कोशिका मूलत: एक कारखाना है जो तमाम रसायनों का उपभोग करती है और तमाम रसायनों का उत्पादन करती है। यही रासायनिक क्रियाएं और उत्पाद कोशिका के कार्य का निर्धारण करते हैं। किसी कोशिका में उपस्थित रसायन समय और स्थान के साथ बदलते हैं जबकि कोशिका का जीनोम अनुक्रम नहीं बदलता। और जीनोमिक्स का उपयोग एक साथ हज़ारों रासायनिक इकाइयों में होने वाले इन परिवर्तनों के मापन में किया जा सकता है। यह पारंपरिक आणविक जीव विज्ञान से काफी अलग है, क्योंकि उसमें एक समय पर एक अणु की हलचल को समझा जा सकता है।

जीनोम सम्बंधी शोध करने वाले वैज्ञानिक महत्वाकांक्षी होते हैं और 2000 के मध्य दशक में उन्होंने ENCODE प्रोजेक्ट शुरु  किया था। ENCODEप्रोजेक्ट का मकसद ऐसा था कि लगभग 1000 मानव जीनोम के बराबर जीनोम की आणविक घटनाओं का विवरण तैयार किया जाए ताकि इस बात की समझ बने कि हमारा जीनोम कोशिकाओं में कैसे कार्यरूप में परिणित होता है। इसके निष्कर्ष सितंबर 2012 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित हुए थे। हालांकि कई हलकों में माना जा रहा है कि इन वैज्ञानिकों ने इन आंकड़ों के विश्लेषण में गड़बड़ियां की हैं जिसकी वजह से निष्कर्ष भ्रामक हैं, मगर यह विशाल प्रयास और इसमें देखा गया समन्वय अद्भुत था।
जीव विज्ञान अधिकांशत: छोटे-छोटे विज्ञान का संकलित रूप रहा है जिसमें अलग-अलग प्रयोगशालाएं स्वतंत्र शोध-लक्ष्यों पर काम करती हैं। प्रत्येक ऐसे प्रोजेक्ट में बहुत कम पैसे की ज़रूरत होती है। आणविक जीव विज्ञान, जेनेटिक इंजीनियरिंग और आजकल का प्रचलित मुहावरा जीन संपादन मूलत: छोटे-छोटे विज्ञानों के परिणाम रहे हैं। मगर जीनोमिक्स के क्षेत्र ने बड़े विज्ञान को अग्रणी पंक्ति में ला खड़ा किया है। यह कहना अनुचित न होगा कि जीनोम अनुक्रमण के विशाल प्रोजेक्ट्स से प्राप्त आंकड़ों ने लगभग सारे आधुनिक छोटे-छोटे आणविक जीव विज्ञान को किसी न किसी स्तर पर प्रभावित किया है। दूसरी ओर कुछ लोगों का तर्क है कि विशाल विज्ञान परियोजनाओं के क्रियांवयन से जुड़ी शोहरत के आकर्षण ने जीव विज्ञान के विभिन्न ऐसे उप-क्षेत्रों में विशाल विज्ञान की घुसपैठ को संभव बनाया है, जो इसके लिए उपयुक्त नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, बड़े विज्ञान में आजकल ऐसे प्रयास भी शामिल हो गए हैं जो महज़ लफ्फाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। ऐसे डर व्यक्त किए जा रहे हैं कि छोटा विज्ञान इस बड़े विज्ञान के राक्षस की बलि चढ़ जाएगा।

प्रतिष्ठित जैव-रसायनविद् ग्रेगरी पेट्स्को ने 2009 में EMBO Reports नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित अपने आलेख में इस बात की आलोचना की थी कि बड़े-विज्ञान प्रोजेक्ट्स हज़ारों प्रोटीन्स की आणविक रचना का खुलासा करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि यह प्रयास “छोटे-छोटे प्रयासों से संसाधनों को चूस रहा है।” जबकि इस विशाल प्रयास में “युवा वैज्ञानिकों को प्रशिक्षित करने की गुंजाइश शून्य है।” यह ऐसी टेक्नॉलॉजी विकसित करने का दावा करता है जो “अभ्यासी वैज्ञानिकों के लिए ज़्यादा उपयोगी नहीं है।” क्या ये तर्क जीनोमिक्स के मामले में सही ठहरते हैं?
बड़े-विज्ञान के प्रोजेक्ट्स महंगे होते हैं। ऐसे प्रोजेक्ट्स का समन्वय बड़े-बड़े केंद्रों द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए, एम.आई.टी. का ब्रॉड इंस्टीट्यूट और कैम्ब्रिज के निकट सैंगर इंस्टीट्यूट काफी समय से जीनोम अनुक्रमण के प्रतिष्ठित केंद्र रहे हैं। विज्ञान के लिए वित्त बहुत दुर्लभ है, और यदि इस दुर्लभ संसाधन का एक बड़ा हिस्सा बड़े-विज्ञान केंद्रों के चंद लोगों को मिल जाता है, तो इसका खामियाजा कई सारी छोटी-छोटी नवाचारी प्रयोगशालाओं को भुगतना पड़ता है। छोटा-विज्ञान महत्वपूर्ण है क्योंकि निकट भविष्य में बड़े-विज्ञान में इतनी गहराई नहीं आएगी कि वह हमें जीवन की बारीकियों को समझने में मदद कर सके। अलबत्ता, बड़ा-विज्ञान हमें बेशकीमती धरातल प्रदान कर सकता है जिसके आधार पर छोटा-विज्ञान पहले से बेहतर फल-फूल सकता है।

जीव विज्ञान में बड़ा-विज्ञान युवा वैज्ञानिकों के प्रशिक्षण में मदद करता है या नहीं, इसमें से सवाल यह उठता है कि अच्छा प्रशिक्षण क्या होता है। यदि विज्ञान में अच्छे प्रशिक्षण का मतलब युवाओं को परिकल्पना विकसित करना, उन परिकल्पनाओं की गहन जांच करना, अपने निष्कर्षों की एक रिपोर्ट लिखना और उसे समकक्ष समीक्षा की प्रक्रिया में सफलतापूर्वक पार करवाना सिखाना है, तो बड़ा-विज्ञान इन सबकी पूर्ति कर देगा। मगर कुछ ऐसे स्थान हैं जहां बडे-विज्ञान का महत्व है; इनमें विधियों का व्यापक विकास और व्यापक आंकड़ों के साथ कामकाज करने के तौर-तरीके शामिल हैं।
पेट्स्को के शब्दों में, सही किस्म का बड़ा-विज्ञान वह है जो “ढेर सारे छोटे-विज्ञान को जन्म देता है, उसे सहारा देता है।” इसमें कोई शक नहीं कि मानव जीनोम प्रोजेक्ट सही किस्म का बड़ा-विज्ञान रहा है। इसने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऐसे आंकड़े उत्पन्न किए हैं, जिनका उपयोग दुनिया भर की आणविक जीव विज्ञान प्रयोगशालाओं में रोज़मर्रा के काम में किया जाता है। इस प्रोजेक्ट ने ऐसी तकनीकें विकसित की हैं जिनकी बदौलत जीनोम अनुक्रमण का काम बड़े-बड़े केंद्रों की चारदीवारी से निकलकर छोटी प्रयोगशालाओं में संभव हो गया है। इसके चलते यह संभव हुआ है कि कई सारे छोटे-विज्ञान प्रोजेक्ट्स से उत्पन्न आंकड़ों को समेकित करके अनपेक्षित बड़े निष्कर्ष निकाले गए हैं। यह कहना उचित ही होगा कि जो चीज़ 15 वर्षों पहले बड़ा-विज्ञान कहलाने के योग्य थी वह आज छोटे-विज्ञान का एक औज़ार बन गई है।

मानव जीनोम प्रोजेक्ट और उसके द्वारा प्रोत्साहित टेक्नॉलॉजी के ताने-बाने के दम पर जीनोमिक्स का ताना-बाना मानव जेनेटिक विविधता के दायरे से कहीं ज़्यादा व्यापक हो गया है। बड़े अनुक्रमण केंद्र और यहां तक कि छोटी-छोटी प्रयोगशालाएं भी रोज़ाना सैकड़ों बैक्टीरिया के जीनोम्स का अनुक्रमण करती हैं ताकि वैश्विक महामारियों की निगरानी की जा सके। भारत समेत दुनिया भर की प्रयोगशालाएं अगली-पीढ़ी की तकनीकों की मदद से एक ही समय पर सैकड़ों बैक्टीरिया के जीनोम्स का अध्ययन करती हैं ताकि उनके समकालीन विकास का अवलोकन किया जा सके। इसमें एंटीबायोटिक प्रतिरोध का अध्ययन भी शामिल है। इनके अंतर्गत यह समझने के भी प्रयास किए जाते हैं कि जैव विकास द्वारा उत्पन्न जेनेटिक विविधता कैसे नवीन कोशिकीय प्रक्रियाओं को जन्म देती है।
2011 में बैक्टीरिया जनित खाद्य विषाक्तता पूरे जर्मनी में तेज़ी से फैली थी और इसने 50 लोगों की जानें ले ली थीं। इस महामारी का स्रोत संभवत: मिस्र से आयातित ‘जैविक मैथी’ थी। इसमें बैक्टीरिया ई. कोली की एक जानलेवा किस्म मौजूद थी। कुछ ही सप्ताह के अंदर इस संक्रमण की पहचान करके वैज्ञानिकों ने इस ई. कोली का संपूर्ण जीनोम पता कर लिया और दर्शाया कि इसकी जेनेटिक बनावट सर्वथा नवीन है। इससे शायद उस संक्रमण की रोकथाम में ज़्यादा मदद न मिली हो, मगर इतना तो स्पष्ट हो गया कि जीनोम अनुक्रमण अब स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त समय सीमा में पूरा किया जा सकता है।
इससे भी ज़्यादा नाटकीय घटनाक्रम तो एक साल बाद हुआ। यूके में वैज्ञानिकों ने एक ऐसे बैक्टीरिया की विभिन्न किस्मों के जीनोम का अनुक्रमण किया जो एक अस्पताल में तांडव मचाए हुए था और इसका स्रोत अस्पताल का एक कर्मचारी निकला। इस खोज की बदौलत इस व्यक्ति को अलग-थलग करके संक्रमण की रोकथाम मुमकिन हुई।

आज तो हमारे पास यूएसबी स्टिक की साइज़ के अनुक्रमण यंत्र उपलब्ध हैं जिन्हें महामारी के दूर-दराज के स्थान पर ले जाया जा सकता है। इन्हें एक लैपटॉप से जोड़कर चंद घंटों में डीएनए का अनुक्रमण किया जा सकता है। इससे न सिर्फ रोग-प्रसार विज्ञान के क्षेत्र में बल्कि रोग निदान के क्षेत्र में बहुत मदद मिलेगी। ज़ाहिर है बड़ा-विज्ञान मरीज़ के पलंग के नज़दीक पहुंच गया है।
अनुक्रमण से इतिहास पर भी रोशनी पड़ सकती है। जीनोम अनुक्रमण से आधुनिक प्लेग के कारक जीव की उत्पत्ति को समझने में मदद मिली है। इसका स्रोत 14वीं सदी में फैली ब्लैक डेथ का बैक्टीरिया है। आजकल वैज्ञानिक अश्मीभूत मानव और उनके सहोदरों के जीनोम का अनुक्रमण करके हमारा प्राचीन इतिहास समझने का प्रयास करते हैं। इस वर्ष के शु डिग्री में, कोलकाता के तीन वैज्ञानिकों ने सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कम विभेदन वाले मानव जीनोम अनुक्रम आंकड़ों का उपयोग करके गुप्त काल में जाति आधारित विवाह बाध्यता की उत्पत्ति को समझने के प्रयास किए थे। इसने विचारधारा के आधार पर सबसे ज़्यादा मान्य धारा के लिए जेनेटिक समर्थन प्रदान किया था।
अर्थात, मानव जीनोम प्रोजेक्ट परिवर्तनकारी रहा है - न सिर्फ मानव अनूठेपन को लेकर आत्ममोहक सिद्धांतों को ध्वस्त करके बल्कि चिकित्सा व जन-कौतूहल के विषयों में अनुसंधान को बढ़ावा देकर भी।

दूसरी ओर, ज़्यादा हाल के और बदनामशुदा ENCODE  प्रोजेक्ट ने क्या छोटे-विज्ञान को बेहतर बनाया है? इसका फैसला अभी बाकी है मगर जीनोम अनुक्रम के लगभग अचर रूप के मुकाबले कोशिकीय कार्यिकी की जटिलता इतनी अधिक है कि इस क्षेत्र में ENCODE जैसा समन्वित, पूर्व-निर्धारित प्रोजेक्ट शायद ही कोई खास न्याय कर पाए। एक अग्रणी वैज्ञानिक, खुली पहुंच के पैरोकार और ENCODE प्रोजेक्ट के एक सलाहकार माइकल आईसेन के शब्दों में इस प्रोजेक्ट का तभी कोई अर्थ है जब “कोई - या शायद कुछ लोगों की एक समिति - जिसे मेरे काम का कोई अंदाज़ नहीं है, वह इस बात की सही-सही भविष्यवाणी कर पाए कि मुझे किन आंकड़ों की ज़रूरत होगी और (समय से वर्षों पहले) वे आंकड़े जुटा पाए।” यह तो काफी दूर की कौड़ी लगती है।
यह सही है कि बड़े-विज्ञान को लेकर बहसें कुछ समय तक जारी रहेंगी, मगर भारत की परिस्थिति इन चीज़ों से पूरी तरह अनभिज्ञ लगती है। हमारे यहां यूएस, युरोप, चीन या जापान जैसे बड़े-बड़े अनुक्रमण केंद्र लगभग नदारद हैं। वित्तपोषण, चाहे हताशा और आकर्षण की हद तक बेतरतीब है, फिर भी हमारे शोध समुदाय की साइज़ के हिसाब से पर्याप्त है। यह छोटे-विज्ञान के हक में दिखता है, हालांकि कुछ गिने-चुने बड़े प्रोजेक्ट्स को हाल में वित्तपोषण मिला है जो चंद बीमारियों के जेनेटिक सम्बंधों की खोज में लगे हैं।

सही किस्म का बड़ा-विज्ञान काफी सारे छोटे-विज्ञान को संभव बना सकता है, मगर बड़ा-विज्ञान छोटे-विज्ञान के ढेर सारे प्रोजेक्ट्स की बुनियाद पर ही खड़ा हो सकता है। यह सही है कि स्वयं मानव जीनोम प्रोजेक्ट मात्र 15 साल चला, मगर यह हकीकत बन सका तो 150 सालों के विविधतापूर्ण छोटे-विज्ञान के दम पर, जो बुनियादी भी था और तात्कालिक चिकित्सा समस्याओं को सुलझाने के लिए किया गया विज्ञान भी था। उन्नीसवीं सदी के मध्य में, जब युरोप के हरफनमौला और दार्शनिक वैज्ञानिकों का युग समाप्ति की ओर था, ग्रेगर मेंडल नामक एक मठवासी ने मटर के पौधों पर प्रजनन सम्बंधी प्रयोग किए थे। किस्मत और तीक्ष्ण अवलोकन क्षमता की बदौलत उन्होंने वंशानुगति की ‘कण’ प्रकृति खोज निकाली। दूसरे शब्दों में उन्होंने दर्शाया कि किसी जीव का प्रत्येक गुण (जैसे मटर के दाने का आकार या रंग) उसके आनुवंशिक पदार्थ के एक स्पष्ट, अलग-थलग अंश द्वारा नियंत्रित किया जाता है। उनके समकालीन चार्ल्स डारविन जहाज़ में बैठकर दुनिया की सैर पर निकले, और एक सच्चे प्रकृतिविद की भांति उन्होंने विभिन्न जीवों के अवलोकन किए। उन्हें यह देखकर घोर आश्चर्य हुआ कि परस्पर सम्बंधित जंतुओं और पक्षियों में गुणों में इतनी अधिक विविधता पाई जाती है। इसके आधार पर उन्होंने प्राकृतिक चयन और जैव विकास का सिद्धांत प्रतिपादित किया।

शुरू-शु डिग्री में उपेक्षित रहे मगर 1900 में पुन: खोज निकाले गए मेंडल के निष्कर्ष और डारविन के काम के चलते आनुवंशिक पदार्थ की तलाश अनिवार्य हो गई। करीब 100 साल पहले वित्त के अभाव से जूझ रहे लंदन के एक चिकित्सा शोधकर्ता फ्रेडरिक ट्वॉर्फ ऐसे वायरस की खोज में लगे थे जो बीमारियां पैदा नहीं करते (ऐसा करने का कारण तो शायद वही जानते थे)। अंतत: उन्होंने बैक्टीरियाभक्षी (बैक्टीरियोफेज) की खोज की - ये ऐसे वायरस होते हैं जो बैक्टीरिया का शिकार करते हैं। बैक्टीरियाभक्षी की खोज पहले किसने की थी इस विवाद को दरकिनार कर दें, तो ट्वॉर्फ की मेहनत ने आणविक जीव विज्ञान के युग की शुरुआत की थी। बैक्टीरिया और बैक्टीरियाभक्षियों की आनुवंशिकता पर किए कई अध्ययनों के दम पर अल्फ्रेड हर्शले और मार्था चेज़ ने 1950 में दर्शाया कि डीएनए वह पदार्थ है जो बैक्टीरियाभक्षी में प्रजनन संभव बनाता है। इससे पहले 1920 के दशक में फ्रेडरिक ग्रिफिथ दर्शा चुके थे कि यदि संक्रामक मगर मृत निमोनिया बैक्टीरिया को असंक्रामक मगर जीवित सम्बंधी के साथ रखा जाए, तो असंक्रामक बैक्टीरिया में रोग पैदा करने की क्षमता पैदा हो जाती है। इसके आधार पर आगे बढ़कर ओस्वाल्ड एवरी, कोलिन मैक्लियॉड और मैकलिन मैकार्टी ने 1940 में स्पष्ट किया इस परिवर्तन का कारक डीएनए है। बैक्टीरिया, बैक्टीरियाभक्षी, और कुछ फफूंदों तथा फलभक्षी मक्खी पर किए गए प्रयोगों से यह स्थापित करने में मदद मिली कि डीएनए ही आनुवंशिक पदार्थ है जो वंशानुगति के रहस्य को संजोए हुए है।

इन खोजों ने वह धरातल तैयार कर दिया जहां रोज़ालिन्ड फ्रेन्कलिन, जेम्स वॉटसन और फ्रांसिस क्रिक ने 1953 में यह खोज की कि आणविक रूप में डीएनए दिखता कैसा है और यह स्वयं की प्रतिलिपि कैसे बना पाता है। यह स्पष्ट हो गया कि डीएनए एक पुस्तक है जिसे चार क्षारों की वर्णमाला से लिखा गया है। अपने जीन्स के राज़ को जानने के लिए हमें बस इस पुस्तक को पढ़ना होगा। मगर कहना आसान है, करना बहुत मुश्किल है। इस मोड़ पर फ्रेडरिक सैंगर का प्रवेश होता है जिन्होंने रसायन शास्त्र में दो नोबेल पुरस्कार जीते और आगे चलकर गृह वाटिका में व्यस्त रहे। सैंगर ने 1970 में दुनिया को सिखाया कि जीन्स की भाषा को कैसे पढ़ें। इस मामले में भी बैक्टीरियाभक्षियों ने अहम भूमिका अदा की थी। शुरुआत में जिन पूरे-पूरे जेनेटिक पदार्थों को पढ़ा गया वे बैक्टीरियाभक्षियों और कुछ अन्य वायरसों के थे। बैक्टीरियाभक्षियों की जेनेटिक पुस्तक चंद हज़ार अक्षरों के बराबर होती है। मगर इंसान की जेनेटिक पुस्तक में तो कुछ अरब अक्षर होते हैं। यानी बैक्टीरियाभक्षियों से इंसानों तक पहुंचना आसान नहीं था। तब एक वैज्ञानिक आगे आए -  लिओरी हुड। हुड ने सैंगर की डीएनए अनुक्रमण की तकनीक को लिया और उसे स्वचालित बना दिया। इसके चलते कई व्यक्तियों में यह उत्साह पैदा हुआ कि वे स्वयं भी मनुष्य की जेनेटिक पुस्तक (डीएनए) को जिल्द-से-जिल्द तक पढ़ने की कोशिश करें।

1986 में यूएस के ऊर्जा विभाग ने सान्टा फे इंस्टीट्यूट में एक बैठक का आयोजन किया, जहां यह निर्णय लिया गया कि मानव जीनोम के अनुक्रमण के लिए वित्त की तलाश की जाए - अर्थात आणविक जीव विज्ञान में पहले बड़े-विज्ञान प्रोजेक्ट को शु डिग्री किया जाए। यूएस सरकार के वित्तीय अधिकारी शायद इस बात पर मुग्ध हुए थे कि ऐसा बड़ा प्रोजेक्ट उथल-पुथल मचा देगा और नेशनल इंस्टीट्यूट्स ऑफ हेल्थ भी साथ आ गया। इसके बाद जल्द ही प्रोजेक्ट शु डिग्री हो गया। कई तकनीकी चुनौतियां थीं - जिनका सम्बंध ब्यूरेट-पिपेट से कदापि नहीं था बल्कि कंप्यूटरों से था। इन चुनौतियों का सामना चतुराई से किया गया। काम के दौरान मशहूर ई. कोली समेत कई बैक्टीरिया के जीनोम का अनुक्रमण किया गया। इसके अलावा खमीर, पारदर्शी कृमि और फलभक्षी मक्खी को भी निपटाया गया। अंतत: नई सहस्राब्दि के साथ ही वक्त आ गया था कि यह घोषणा की जाए कि हम स्वयं को जान गए हैं। इस प्रयास के दौरान सूचना पर अधिकार जैसे सवाल इस परिप्रेक्ष्य में हल हुए कि जैसे ही आंकड़े पैदा होते हैं उन्हें खुले तौर पर उपलब्ध कराना बेहद ज़रूरी है। इसके अलावा एक समस्या यह भी थी कि जितना डैटा उत्पन्न हुआ था उसे सहेजकर रखने की क्षमता भी कम पड़ने लगी थी। विशाल डैटा का विश्लेषण जीव विज्ञान की अगली बड़ी चुनौती हो गई।

संक्षेप में, जीव विज्ञान में बड़ा-विज्ञान अब बना रहेगा। उसकी पहुंच व्यापक है और उसके फल टपक-टपककर ढेर सारे छोटे, नवाचारी विज्ञान को सहारा देते हैं। कई सारे स्वतंत्र छोटे-छोटे विज्ञान से कोई बड़ा, अनपेक्षित परिणाम आ सकता है - जो किसी बड़ा-विज्ञान प्रोजेक्ट के रूप में भी हो सकता है। हो सकता है कि विज्ञान के इन दो तरीकों के बीच का अंतर भारतीय विज्ञान प्रतिष्ठान को छू तक नहीं गया है, मगर निकट भविष्य में ऐसा होने की संभावना है। हम सही किस्म के बड़े-विज्ञान को बढ़ावा दें और साथ ही छोटे-छोटे स्वतंत्र विज्ञान को फलने-फूलने में मदद करें। यही विज्ञान की दुनिया में हमारी स्थिति को सुदृढ़ करेगा। (स्रोत फीचर्स)