नरेंद्र देवांगन

वर्ष 1752 में बेंजामिन फ्रैंकलिन ने अपना विश्वविख्यात ऐतिहासिक पतंग प्रयोग किया था जिसने आकाश में चमकने वाली रोशनी यानी तड़ित में विद्युत आवेश होने की पुष्टि की थी। इस प्रयोग को करने के लिए फ्रैंकलिन ने घर में पतंग बना कर उसकी डोरी में एक धातु की चाबी बांध दी थी और आंधी तूफान में बिजली कड़कने के समय उसे उड़ाया था। पतंग और उसकी गीली डोर से होते हुए विद्युत आवेेश ने चाबी पर पहुंच कर चिंगारी उत्पन्न की थी जिससे सिद्ध हुआ था कि आकाश में चमकने वाली बिजली में विद्युत आवेश होता है।
1847 में एक पतंग की सहायता से संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा के बीच नियाग्रा नदी पर एक केबल खींची गई थी। यह केबल नदी पर बनाए गए पहले झूला पुल का एक भाग थी।

वायुयानों के विकास में भी पतंगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ऑस्ट्रेलिया के लारेंस हार्ग्रेव द्वारा वर्ष 1893 में बनाई गई बॉक्स के आकार की पतंग ने उड़ने की वस्तुएं बनाने का तरीका ही बदल दिया था। वायुयान के आविष्कारक राइट बंधुओं ने अपने वायुयान उड़ाने के प्रयोग में विंग वार्पिंग के सभी परीक्षण बॉक्सनुमा पतंगों पर ही किए थे, जिनके आधार पर उन्हें वर्ष 1903 में पहला वायुयान बनाने में सफलता मिली थी।
टेलीफोन के आविष्कारक ग्राहम बेल ने भी पतंगें बनाईं। उन्हें पूरी आशा थी कि पतंगें लोगों से भरे वायुयान को उड़ाने में भी सक्षम होंगी। उन्होंनेे बॉक्स-पतंगों को जोड़ कर बड़ा रूप दिया ताकि वे मनुष्यों को आकाश की सैर करा सकें।
वायुमंडल में हवा के तापमान, दबाव, आर्द्रता, वेग एवं दिशा के अध्ययन के लिए पहले पतंग का ही प्रयोग किया जाता था। वर्ष 1898 से 1933 तक संयुक्त राज्य मौसम ब्यूरो ने मौसम के अध्ययन के लिए पतंग केंद्र बनाए हुए थे जहां से मौसम नापने की युक्तियों से लैस बॉक्स पतंगें उड़ा कर मौसम सम्बंधी अध्ययन किए जाते थे। आजकल इसके लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास से नई-नई तकनीकें आ गई हैं।
किसी पतंग की हवा में उड़ने की क्षमता उसकी बनावट और उससे बंधी कन्नी की स्थिति पर निर्भर करती है। आम तौर पर उड़ाई जाने वाली साधारण आकार की पतंग तब उड़ती है जब उसकी कवर्ड साइड यानी निचली सतह की ओर से हवा का दबाव पड़ता है। कन्नी की ऊपर वाली डोरी पतंग को हवा में खींचती है जिससे पतंग को ऊंचा उड़ानेे के लिए पतंग के नीचे वाले हिस्से में हवा के सापेक्ष एक कोण बन जाता है। पतंग के इस कोण को ‘एंगल ऑफ अटैक’ कहते हैं।

पतंग की बनावट और एंगल ऑफ अटैक यदि दोनों बिलकुल सही हों तो हवा पतंग की कन्नी वाली सतह पर तेज़ी से टकरा कर पीछे वाली सतह पर भी कुछ दबाव उत्पन्न करेगी। पतंग के सामने और पीछे वाली सतह के बीच उत्पन्न वायु के दाब का अंतर पतंग को ऊंचा उठाता है। इसे ‘लिफ्ट’ भी कहते हैं। पतंग की निचली सतह पर लगने वाले दबाव से पतंग आगे बढ़ती है - इसे ‘थ्रस्ट’ कहते हैं। सामने वाली सतह पर पड़ने वाले वायु के दबाव को ‘ड्रैग’ कहते हैं। इस प्रकार पतंग को हवा में बनाए रखने के लिए लिफ्ट, ड्रैग, थ्रस्ट, डोरी के खिंचाव और गुरुत्व बल के बीच सामंजस्य होना ज़रूरी है।
कोई भी पतंग अपनी सद्दी से बंधी कन्नी या ब्रिडल की सहायता से उड़ती है। इस कन्नी में दो या दो से अधिक डोरियां होती हैं जिन्हें ‘लेग्स’ कहते हैं जो पतंग को डोरी से जोड़ती है। कन्नियों के पतंग से जुड़ने के स्थान को कर्षण बिंदु कहते हैं। ये कर्षण बिंदु ही एंगल ऑफ अटैक का निर्धारण करते हैं और कन्नियां उड़ती हुई पतंग की आकृति बनाए रखने के लिए पतंग पर दबाव बनाए रखती हैं। पतंग को हवा में अधिक ऊंचाई पर उड़ाने में पतंग की दुम, झालर आदि सहायक होते हैं।
पहले तो पतंगों का उपयोग दूरस्थ स्थानों को संकेत देने, लैम्पों व झंडों को ले जाने में किया जाता था। नौसेना द्वारा दुश्मन के ठिकानों पर टारपीडो को तैराने में, आकाश मार्ग से पतंग पर कैमरा लगा कर चित्र खींचने तथा मनुष्य को आकाश में उड़ाने के लिए भी पतंगों का प्रयोग किया जाता था। परंतु आज पतंगबाजी सिर्फ मनोरंजन के लिए की जाती है। (स्रोत फीचर्स)