डॉ. डी बालसुब्रमण्यन

एंथ्रोपोसीन पर चर्चा करते हुए हमने देखा था कि कैसे कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों में भारी वृद्धि वैश्विक तापमान में वृद्धि की वजह बनी है। यहां हम इस स्थिति में सुधार के लिए किए जा रहे कुछ उपायों पर प्रकाश डाल रहे हैं। उम्मीद है कि इनकी मदद से जल्द से जल्द जीवाश्म ईंधनों की जगह अक्षय ऊर्जा ले सकेगी। जो ऊर्जा उत्पादन के टिकाऊ तरीके होंगे।
पिछले 250 सालों से सभी उद्योगों और व्यावसायिक प्रक्रियाओं के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत कोयला रहा है। पूरे विश्व में आज हम अस्सी लाख टन कोयले का उत्पादन करते हैं और ईंधन के रूप में जलाते हैं। इस दर से आने वाले 150 सालों में विश्व का पूरा कोयला खत्म हो जाएगा।
ठोस कोयले के अलावा हम ऊर्जा उत्पादन के लिए तरल पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल भी करते हैं। हम प्रतिदिन 700 लाख बैरल से अधिक पेट्रोलियम इस्तेमाल करते हैं। आज पृथ्वी पर कच्चे तेल की कुल मात्रा करीब 17 खरब बैरल है और यह भी अगलेे 53 वर्षों में खत्म हो जाएगी। और ये तीनों जीवाश्म ईंधन उपयोग करके खो देने की तरह के हैं, नवीकरणीय नहीं है।

इन कार्बनिक ईंधन को जलाने के परिणामस्वरूप पृथ्वी के आसपास कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बढ़ रहा है जिसकी वजह से पृथ्वी तेज़ी से क्षतिग्रस्त होती जा रही है। कार्बन डाईऑक्साइड का अंतरिक्ष में पलायन नहीं होता क्योंकि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण की वजह से यहीं पर बंधी रह जाती है। कार्बन डाईऑक्साइड सूरज की रोशनी को तो पृथ्वी पर पहुंचने देती है लेकिन पृथ्वी से निकलने वाली गर्मी को वापिस नहीं जाने देती। यह गर्मी हमारे ऊपर ही मंडराती रहती है। इसे ग्रीन हाउस प्रभाव कहते हैं। इसने बहुत तेज़ी से धरती और उसके वातावरण को गर्म किया है, धीरे-धीरे हिमखण्डों को पिघलाया है, समुद्र स्तर को बढ़ाया है और द्वीपों की आबादी को खतरे में डाला है।
इसीलिए भूवैज्ञानिकों ने पृथ्वी के  इतिहास में एक नया युग जोड़ने का सुझाव दिया है - मानव-निर्मित एंथ्रोपोसीन जो होलोसीन युग के अंत का संकेत है। खतरा साफ है, हम इसके बारे में क्या कर सकते हैं?
क्या सच्चाई से साक्षात्कार के बाद हम नए विचार अपना सकते हैं या कुछ जांचे-परखे विचारों पर भी अमल कर सकते हैं। वैज्ञानिक कई नई संभावनाओं पर विचार कर रहे हैं और उन्हें अमल में भी ला रहे हैं। पहला है कि जीवाश्म ईंधनों में कटौती करके (या उनका उपयोग पूरी तरह रोककर) अक्षय ऊर्जा स्रोतों की तरफ जाना। इन्हें टिकाऊ ऊर्जा स्रोत भी कहते हैं। ये स्वच्छ हैं, ग्रीन हाउस गैसें नहीं बनाते, पानी की ज़रूरत नहीं है और न ही बहुत अधिक ज़मीन की ज़रूरत है।

इस संदर्भ में सबसे सफल कदम ओज़ोन कवच को ठीक करने में मदद का रहा है। पृथ्वी के ऊपर के वातावरण और समतापमंडल में ओज़ोन की मात्रा क्षीण हुई थी। इसके लिए रेफ्रिजरेटरों में इस्तेमाल होने वाली गैसें (जैसे फ्रीऑन) ज़िम्मेदार हैं। ओज़ोन पृथ्वी के ऊपर एक परत बनाती है जो अल्ट्रावायलेट विकिरण को अवशोषित करती हैं। अल्ट्रावायलेट विकिरण ऑक्सीकरण के ज़रिए जीवों को नुकसान पहुंचा सकता है। अर्थात ओज़ोन परत एक सुरक्षात्मक फिल्टर है। रेफ्रिजरेटरों की गैसें अपघटित होकर ओज़ोन के साथ प्रतिक्रिया कर उसकी मात्रा को कम करती हैं। हम डच नोबेल विजेता पॉल क्रुटज़ेन के आभारी हैं जिन्होंने फ्रीऑन और ऐसी अन्य गैसों के हानिकारक प्रभाव के बारे में बताया। इसी की बदौलत आज हम रेफ्रिजरेटरों में इन गैसों की बजाय सुरक्षित गैसों का इस्तेमाल करने लगे हैं और खुशकिस्मती से ओज़ोन परत धीरे-धीरे बहाल भी हो रही है।
हमने कार्बनिक जीवाश्म ईंधनों की जगह अक्षय और टिकाऊ ऊर्जा को बढ़ावा देना भी शु डिग्री कर दिया है। इनमें से पहला है सूरज से प्राप्त ऊर्जा को बिजली में रूपांतरित करना। इसके लिए हम सौर पैनलों का उपयोग करते हैं जो प्रकाश को विद्युत में परिवर्तित करती हैं। ये पैनल्स फोटो-वोल्टेइक सेल से बनी होती हैं और फोटो-वोल्टेइक सेल सिलिकॉन, गेलियम आर्सेनाइड, कैडमियम टेलुराइड व अन्य पदार्थों से बनाई जाती हैं। वास्तव में, भारत सौेर पैनल की मदद से विद्युत बनाने में दुनिया में नंबर 1 पर है। आज हम देश भर में 8000 मेगावॉट से ज़्यादा बिजली बना कर इस्तेमाल कर रहे हैं जिसमें राजस्थान, तमिलनाड़ु और गुजरात सबसे आगे हैं। आने वाले सालों में यह संख्या और बढ़ने की उम्मीद है। भारत और विदेश में स्थित वैज्ञानिक सौर पैनलों के लिए बेहतर से बेहतर फोटोवोल्टेइक पदार्थ बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
दूसरा कदम है पवन टरबाइन के ज़रिए पवन ऊर्जा से बिजली बनाना। इस कदम में चीन हमसे आगे है। वह 1,50,000 मेगावॉट पवन बिजली का उत्पादन करता है और भारत 25,000 मेगावॉट उत्पादन के साथ दूसरे पायदान पर है।

तीसरा कदम है समुद्री ज्वार का इस्तेमाल करना और समुद्र की सतह व गहराई में स्थित पानी के बीच तापमान के अंतर का दोहन करना। समुद्री ज्वारों का इस्तेमाल कर हम यांत्रिक ऊर्जा और तापमान के अंतर से ऊष्मीय ऊर्जा का उत्पादन कर सकते हैं। याद कीजिए कि पृथ्वी की सतह 70 प्रतिशत समुद्र से ढंकी हुई है। जापान इस क्षेत्र में बहुत आगे है और भारत ने अभी शुरुआत ही की है। एटलांटिस रिसोर्स कार्पोरेशन की योजना है कि 50 मेगावॉट की क्षमता वाला ज्वारीय ऊर्जा फार्म गुजरात में लगाया जाए। इस क्षमता को 200 मेगावॉट तक बढ़ाने की संभावना है। जब यह फार्म पूरा होगा तब यह भारत का ही नहीं बल्कि पूरे एशिया का पहला ऐसा फार्म होगा।
चौथा, और अभी विकसित हो रहा कदम है सूक्ष्मजीवी ईंधन कोशिकाओं का इस्तेमाल। इनमें बैक्टीरिया द्वारा दूषित पानी का इस्तेमाल कर बिजली बनाई जाती है। यह क्षेत्र अभी शैशव अवस्था में है और आगे इसके विकास की ज़रूरत है।
यह साफ है कि दुनिया की सीखने की प्रक्रिया लंबे समय से चली आ रही है। यह भी उल्लेखनीय है कि कई वैज्ञानिक और नवाचारी अन्य रास्ते खोजने की कोशिश कर रहे हैं और उन्हें कार्यक्षम बनाने के तरीकों पर लगातार काम कर रहे हैं। भारतीय वैज्ञानिकों और तकनीकीविदों के लिए यह एक मौका है कि हरित ऊर्जा के अन्य रास्तों को तलाशें। (स्रोत फीचर्स)