मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी
सुबोध जोशी

मानव हमेशा चुनौतियां स्वीकार कर उन पर जीत हासिल कर गर्व का अनुभव करता आया है। लेकिन कुदरत कुछ व्यक्तियों का जीवन क्रूर चुनौतियों से भर देती है। ऐसी ही एक क्रूर चुनौती है मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी जो न सिर्फ लाइलाज है बल्कि निरंतर बढ़ती जाती है और प्रभावित व्यक्ति तथा उसके परिजन इसकी निरंतर बढ़ती गंभीरता देखने को बाध्य होते हैं। यह बीमारी व्यक्ति को पूरी तरह अशक्त और पराश्रित बना देती है। यह जानलेवा भी हो सकती है।
मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी मांसपेशियों से सम्बंधित एक विकार है। वास्तव में यह मांसपेशियों का क्रमिक ह्रास करने वाली जेनेटिक बीमारियों का ऐसा समूह है जो पहले ऐच्छिक मांसपेशियों को प्रभावित करता है। यह जन्मजात होती है लेकिन इसका प्रभाव अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग उम्र में शु डिग्री होता है। किसी में इसका प्रभाव वयस्क अवस्था के बाद भी प्रकट होता है। यह जेनेटिक विकार शिशु को अपने माता अथवा पिता में से किसी से भी मिल सकता है; यह एक गलतफहमी है कि सिर्फ मां ही इसके लिए ज़िम्मेदार होती है।
व्यक्ति के शारीरिक लक्षणों के केंद्र में गुणसूत्र होते हैं जो प्रत्येक कोशिका के केंद्रक में पाए जाते हैं। प्रत्येक गुणसूत्र में जीन्स की जोड़ियां होती हैं जिनसे यह तय होता है कि कोशिका में कौन-से प्रोटीन बनेंगे और ये प्रोटीन शरीर के गुणधर्म निर्धारित करते हैं। कुछ विशिष्ट जीन्स के दोषपूर्ण होने से मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी होती है।

मनुष्य के जीन्स द्वारा बनाए जाने वाले कई प्रोटीन्स में से एक है डिस्ट्रॉफिन। डिस्ट्रॉफिन मांसपेशियों के स्वस्थ रहने और सामान्य कामकाज के लिए आवश्यक होता है। मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी प्रभावित व्यक्ति के जीन्स में दोषपूर्ण या अधूरी सूचनाएं होती हैं जिनके कारण दोषपूर्ण अथवा अपूर्ण डिस्ट्रोफिन बनता है या कभी-कभी तो बनता ही नहीं है।
वंशानुगत आधार पर देखें तो मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी तीन तरह से संतान में पहुंच सकती है।
1. एक्स-लिंक्ड रेसेसिव: यानी सम्बंधित जीन एक्स गुणसूत्र पर होता है जो माता से संतान को मिलता है। यह आम तौर पर सिर्फ लड़कों को प्रभावित करती है।
2. ऑटोसोमल रेसेसिव: यह जीन सामान्य गुणसूत्रों पर होता है और माता और पिता दोनों से प्राप्त हो तभी विकार के लक्षण प्रकट होते हैं।
3. ऑटोसोमल डॉमिनेंट: यह जीन भी सामान्य गुणसूत्रों पर होता है और माता या पिता में से किसी एक से प्राप्त हो जाए तो रोग के लक्षण प्रकट हो सकते हैं।

मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी के लक्षण शिशु अवस्था, बाल्यावस्था या वयस्क अवस्था में भी प्रकट हो सकते हैं। एक बार शु डिग्री होने के बाद मांसपेशियों की कमज़ोरी बढ़ती जाती है और वे बेकार होती जाती हैं। मनुष्य का शरीर मांसपेशियों की सहायता से ही कार्य करता है। इस बीमारी के बढ़ने के साथ-साथ उसकी शारीरिक कार्य करने की क्षमता घटती चली जाती है। मांसपेशियों की क्षमता को लगातार इस तरह घटते देखना काफी दर्दनाक होता है। इससे प्रभावित व्यक्ति बौद्धिक क्षमता में विकसित, कुशल और अनुभवी हो सकता है किन्तु बीमारी धीरे-धीरे उसकी इन सभी योग्यताओं को अनुपयोगी बना देती है। बड़े पैमाने पर मानवीय क्षमता की संभावनाएं इसकी क्रूरता के नीचे दब जाती हैं।

मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी और इससे मिलती-जुलती स्थिति वाली सौ से अधिक बीमारियां या विकार हैं। मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी को मुख्यत: नौ प्रकारों में बांटा गया है।
*  ड्यूशिन्स: बच्चों में होती है और वह भी सिर्फ लड़कों में।
*  बेकर्स: यह छोटी उम्र में सिर्फ लड़कों को होती है मगर इसके लक्षण कम गंभीर होते हैं।
*  जन्मजात
* लिंब-गर्डल: लड़के-लड़कियों दोनों में होती है और थोड़ी देर से शुरु  होती है। सबसे पहला असर कूल्हे की मांसपेशियों पर होता है जो धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ता है।
*  डिस्टल: आम तौर पर वयस्क अवस्था में स्त्री-पुरुषों दोनों को प्रभावित करती है और भुजाओं के छोरों पर स्थित मांसपेशियों को जकड़ती है।
*  एमरी ड्रीफस: दुर्लभ किस्म का यह विकार थोड़ी बड़ी उम्र में सिर्फ लड़कों को प्रभावित करता है और कंधों के बाद हाथों तथा आगे चलकर टांगों को जकड़ता है।
*  फेशियोस्केल्पुलोह्युमेरा: लड़के-लड़कियों दोनों को होने वाला यह विकार सबसे पहले चेहरे, कंधे व ऊपरी भुजा की मांसपेशियों को प्रभावित करता है मगर इससे प्रभावित लोग पूरी तरह अक्षमता के शिकार नहीं होते।
*  मायोटोनिक: वयस्क अवस्था में होने वाला यह विकार स्त्री-पुरुषों दोनों में मांसपेशियों को कमज़ोर बना सकता है। यह सबसे आम किस्म की मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी है।
* ओक्युलोफेरिन्जियल विकार: 40 की उम्र के बाद स्त्री-पुरुष दोनों को प्रभावित कर सकता है और विशेष असर आंखों व गले पर होता है।

मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी फिलहाल एक लाइलाज बीमारी या विकार है। इसका प्रबंधन ही किया जा सकता है। इसलिए इसका जल्दी से जल्दी निदान बेहतर है ताकि अविलम्ब उसका उचित प्रबंधन आरंभ किया जा सके। उचित प्रबंधन ही इसके बढ़ने की गति पर कुछ नियंत्रण पाकर इससे प्रभावित व्यक्ति के जीवन की गुणवत्ता बनाए रखने का एकमात्र उपाय है। इसकी पहचान और पुष्टि के लिए आधुनिक प्रयोगशाला परीक्षण कराए जाते हैं। कुछ विशेष लक्षणों के आधार पर सतर्क होकर डॉक्टर से तत्काल परामर्श प्राप्त कर ये वैज्ञानिक परीक्षण कराए जाने चाहिए।
मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी की पहचान के लिए कुछ विशेष लक्षण होते हैं। इन्हें अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। मांसपेशियों की बढ़ती हुई कमज़ोरी के कारण दैनिक क्रियाकलापों में कठिनाई, जोड़ों में विकृति, खड़ा होने एवं बैठने, चलने, सीढ़ी चढ़ने-उतरने, हाथ उठाने, चीज़ें पकड़ने-उठाने, वज़न उठाने-रखने, सांस लेने, खांसने, बलगम निकालने में कठिनाई, संतुलन की कमी, बार-बार गिरना, पिंडलियों की बढ़ी हुई मांसपेशियां, मेरुदंड का टेढ़ापन, मांसपेशियों की सिकुड़न, जोड़ों का कड़ापन, कमज़ोरी के कारण कम्पन आदि लक्षण मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी की संभावना की ओर इशारा करते हैं।

किसी बच्चे या व्यक्ति में ये लक्षण पाने पर डॉक्टर द्वारा मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी की पुष्टि के लिए आधुनिक परीक्षण कराए जाने चाहिए जिनमें बायोप्सी, डीएनए टेस्ट, ब्लड एंज़ाइम टेस्ट शामिल हैं। बायोप्सी द्वारा मांसपेशी के ऊतक की जांच कर मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी का प्रकार जाना जाता है। डीएनए परीक्षण द्वारा जीन की असामान्यता का पता लगाया जाता है। ब्लड टेस्ट द्वारा एक एंज़ाइम का स्तर पता किया जाता है। इसका स्तर सामान्य से अधिक होना मांसपेशियों की क्षति की ओर इशारा करता है।
मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी की पुष्टि हो जाने पर नियमित डॉक्टरी परामर्श, फिज़ियोथेरपी, ऑक्यूपेशनल थेरपी, शिक्षा, प्रशिक्षण, समाजीकरण, पारिवारिक एवं सामाजिक गतिविधियों में सक्रियता, खेलकूद में भागीदारी, मनोरंजन आदि अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं। शारीरिक सक्रियता बनाए रखने के साथ वज़न कम रखने की कोशिश की जानी चाहिए।
फिज़ियोथेरपी एकमात्र उपाय है जिसकी सहायता से मांसपेशियों को अपेक्षाकृत अधिक समय तक बचाया जा सकता है, हालांकि क्षति को रोका नहीं जा सकता। फिज़ियोथेरेपी में एक्टिव और पैसिव व्यायाम तथा इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों द्वारा मरीज़ की शारीरिक स्थिति सुधारने और बरकरार रखने के प्रयास किए जाते हैं। ऑक्यूपेशनल थेरपी द्वारा विभिन्न कार्य करने की क्षमता और कुशलता बढ़ाने या बरकरार रखने के प्रयास किए जाते हैं। मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी से प्रभावित व्यक्ति को स्वयं कार्य करने, खेलकूद आदि शारीरिक गतिविधियों में भाग लेने को प्रेरित किया जाना चाहिए क्योंकि इनसे फिज़ियोथेरपी और ऑक्यूपेशनल थेरपी के समान लाभ होता है।

इसके अलावा सामान्य स्वास्थ्य की अच्छी से अच्छी देखभाल ज़रूरी है और किसी भी प्रकार की तकलीफ होने पर योग्य डॉक्टर से तुरन्त परामर्श और इलाज लिया जाना चाहिए। छाती के संक्रमण और रोगों से सुरक्षा के लिए हमेशा विशेष सतर्कता और सावधानी की ज़रूरत होती है क्योेंकि थोड़ी भी चूक गम्भीर साबित हो सकती है। प्रोटीन, मल्टीविटामिन्स और कैल्शियम का अतिरिक्त सेवन मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी की स्थिति में आवश्यक होता है किन्तु इसके लिए समय-समय पर डॉक्टर से परामर्श लेना उचित है। समय बीतने के साथ शारीरिक क्षमता में आने वाली कमी के अनुसार मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी प्रभावित व्यक्ति के लिए सहायक उपकरणों, मानवीय सहायता और आसपास के वातावरण को अनुकूल बनाने की व्यवस्था ज़रूरी हो जाती है और इनमें भी निरंतर परिवर्तन करना होता है। ऐसे व्यक्ति और उसके आसपास के व्यक्तियों की मानसिकता सकारात्मक हो, वातावरण बाधामुक्त हो और इस बारे में समाज में संवेदनशीलता तथा सहयोग की भावना हो, यह अपेक्षित है। तभी सारी मुश्किलों के बावजूद दी हुई परिस्थितियों में भी मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी जैसी चुनौती से प्रभावित व्यक्तियों का गुणवत्तापूर्ण और यथासंभव उपयोगी जीवन जीना संभव है। (स्रोत फीचर्स)