डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

अब यह बात अच्छी तरह स्थापित हो चुकी है कि गर्भवती महिला का स्वास्थ्य और उसकी आदतें बच्चे के स्वास्थ्य (और रुग्णता) को बदल सकती हैं। इस प्रकार गर्भाधान से लेकर बच्चे की दूसरी वर्षगांठ तक के 1000 दिन बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। इसी सम्बंध में यह कहा गया है कि “व्यक्ति वही है जो वह शुरुआती 1000 दिनों में खाता है।” कारण यह है कि इस अवधि के दौरान नवजात शिशुओं के शरीर और मस्तिष्क बहुत तेज़ी से विकसित होते हैं और वयस्क अवस्था में उसकी वृद्धि और विकास का निर्धारण करते हैं।
भावी मां न केवल अपने जीन्स के ज़रिए बच्चे के स्वास्थ्य और खुशी को प्रभावित करती है बल्कि गर्भावस्था में उन जीन्स द्वारा दिए गए संदेशों से भी प्रभावित करती है। यदि वह रक्त की कमी या मधुमेह से पीड़ित है या धूम्रपान या अत्यधिक मदिरापान करती है, या किसी संक्रामक या असंक्रामक रोग से पीड़ित है, तो ये और सम्बंधित कारक उसकी संतान के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, सिर्फ बचपन में नहीं बल्कि आगे के जीवन में भी। इस प्रकार वह एक अंत:-पीढ़ीगत और एपिजेनेटिक भूमिका निभाती है।

यह बात पिछले 30 सालों में स्पष्ट हुई है कि स्वास्थ्य और बीमारियों की जड़ें विकास में होती हैं। अंग्रेज़ी में इसे डेवलपमेंटल ओरिजिन्स ऑफ हेल्थ एंड डिसीज़ कहते हैं और संक्षेप में DOHaD । यह आज वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त अवधारणा है और बताती है कि हम मां और बच्चे के अच्छे स्वास्थ्य के लिए क्या सलाह दे सकते हैं और किस तरह के हस्तक्षेप कर सकते हैं। यहां तक कि इस विषय का एक स्वतंत्र पेशेवर जर्नल भी है - जर्नल ऑफ डी.ओ.एच.ए.डी.। क़्ग्र्क्तठ्ठक़् के अंतर्गत यह सुझाव भी दिए जाते हैं कि किस तरह के परिवर्तनों से मां और बच्चे के स्वास्थ्य की उचित व परिपूर्ण देखभाल हो सकेगी।
यह तो जानी-मानी बात है कि अलग-अलग देशों में गर्भवती मां के हालात और पर्यावरण भिन्न होते हैं। एक ही देश के अलग-अलग राज्यों में भी अलग-अलग होते हैं। यूएस में जो हो रहा है वैसा ही युगांडा में नहीं होगा। मणिपुर में जो हो रहा है, मदुरै में उससे भिन्न होगा। इस प्रकार सबके लिए कोई एक आकार सही नहीं बैठता। उदाहरण के तौर पर पुणे के प्रसिद्ध मधुमेह विशेषज्ञ डॉ. चित्ररंजन याजनिक ने बताया कि हम भारतीय अपनी चर्बी पेट में जमा रखते हैं। और इस प्रकार हम मोटे तो नहीं होते लेकिन शरीर से दुबले और मोटी तोंद वाले होते हैं। यह पश्चिमी देशों के मोटापे से एकदम भिन्न है। इस दुबले मोटे शरीर का जुड़ाव मधुमेह, रक्तचाप जैसे गैर-संक्रामक रोगों की महामारी से होता है।

इस प्रकार के अध्ययन जो संदर्भ-निर्भर होते हैं को DOHaD uद्वारा प्रोत्साहित किया गया है। हाल में कनाडा के डॉ. अब्दला दार ने साउथ अफ्रीका के स्टेलेनबोश में DOHaD की एक मीटिंग आयोजित की थी। साउथ अफ्रीका के डॉ. शेन नूरिस ने बताया कि कैसे उप-सहारा अफ्रीका में शुरुआती जीवन में दखल देकर प्रभावी ढंग से आजीवन बेहतर स्वास्थ्य हासिल किया जा सकता है। स्वीडन के पीटर बाएस ने बताया कि दुखद तथ्य यह है कि अफ्रीका में जच्चा-बच्चा मृत्यु दर भयावह हैं और उन्हें प्रभावी ढंग से कम करने की आवश्यकता है। मीटिंग में इस संदर्भ में कई सस्ते तरीकों पर चर्चा की गई थी और उनमें से कुछ तरीकों को तो भारत में आसानी से लागू किया जा सकता है।
मीटिंग में उपस्थित लंदन के डॉ. अतुल सिंघल और अन्य ने स्तनपान के फायदों पर प्रकाश डाला था। यह खुशी की बात है कि आज भी भारत व अफ्रीका के ग्रामीण क्षेत्रों की मांएं अपने नवजात शिशुओं को स्तनपान कराती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बताया है कि कैसे स्तनपान संवेदी और संज्ञानात्मक विकास को बढ़ावा देता है और साथ ही कैसे नवजातों को संक्रमण और जीर्ण बीमारियों से सुरक्षा प्रदान करता है। विशेष रूप से स्तनपान बचपन में होने वाली बीमारियों जैसे डायरिया या निमोनिया से होने वाली शिशु मृत्यु दर को कम करता है और बीमारी के दौरान जल्दी स्वस्थ होने में भी मदद करता है।

इस सम्बंध में साउथ अफ्रीका के सोराया सीदत ने यह मुद्दा उठाया कि जब मदिरापान करने वाली या अन्य नशीले पदार्थों का सेवन करने वाली मां अपने बच्चे को दूध पिलाती है तब इसका नकारात्मक प्रभाव बच्चे पर पड़ता है और यह बाद की उम्र तक दिखाई देता है। यह 7 वर्ष या उससे अधिक की उम्र तक भी बना रह सकता है। अत: मां और उसकी संतान दोनों के स्वास्थ्य के लिए परामर्श और हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
पहले 1000 दिनों में मां-बच्चे के बीच संवाद सबसे अधिक होता है। साउथ अफ्रीका की डिंकी लेविट ने इसके लंबे समय तक होने वाले फायदों पर ज़ोर दिया जबकि आक्सफोर्ड की इलोना टोस्का ने बताया कि कैसे सामाजिक हस्तक्षेप किशोरों और युवाओं के स्वास्थ्य पर प्रभाव डालते हैं। विशेष रूप से महत्वपूर्ण और तल्ख बिंदु कनाडा के एंड्र्यू मैकनेब ने उठाया। वे एक हेल्थ स्कूल चला रहे हैं जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन स्वास्थ्य प्रोत्साहन स्कूल कहता है। यहां स्कूली बच्चे स्पर्श शिक्षा (या करके सीखना) लेते हैं इसमें स्वस्थ आदतों का अभ्यास कराया जाता है और जागरूकता बढ़ाई जाती है (जैसे टूथब्रश का इस्तेमाल करना)। उन्होंने नए 3 R की चर्चा की जिनके नाम हैं लचीलापन, सम्बंध और उसी समय पर सीखना।

परामर्श, हस्तक्षेप और क्रियान्वयन DOHaD की आधारशिलाएं हैं। और DOHaD के कई उदाहरण प्रस्तुत हुए हैं जिन्हें हमारे देश और दूसरे अन्य देशों में आसानी से अपनाया जा सकता है। भारत में परेशान कर देने वाली स्थिति है कि यहां 4.8 करोड़ से ज़्यादा बच्चे और मांएं प्रकट और छुपी हुई भूख से ग्रस्त हैं। इसकी वजह से लंबे समय से दोनों का विकास अवरुद्ध हो रहा है। हमारे यहां के वैज्ञानिकों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने इसके कई हल ढूंढे हैं और उन्हें अमल में भी ला रहे हैं। नए और लगातार प्रयासों के साथ हमें DOHaD के ज़रिए अन्य देशों से सीखना चाहिए, और बहुत संभावना है कि इन परेशान कर देने वाले आंकड़ों को काफी तेज़ी से कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)