अश्विन साई नारायण शेषशायी

सूक्ष्म जीव जगत में कोशिकाएं ऐसी अर्थ व्यवस्थाएं होती हैं जो विभिन्न रासायनिक व भौतिक इनपुट्स के बीच संतुलन बनाती रहती हैं ताकि वृद्धि व संतानोत्पत्ति की संभावना अधिक से अधिक हो सके।

हमारी अर्थ व्यवस्थाएं और समाज ऐसे संगठनात्मक सिद्धांतों पर निर्मित हुए हैं जिनके बारे में हममें से कई गैर-विशेषज्ञ सहज स्तर पर परिचित होते हैं। कई अर्थ व्यवस्थाएं मांग और आपूर्ति के सिद्धांत पर निर्मित होती हैं: कच्चे माल की एक निश्चित मात्रा उपलब्ध होने पर उत्पादन की एक निश्चित मांग। उद्देश्य यह होता है कि दिए गए इनपुट से अधिकतम उत्पादन करना - यानी ऑप्टिमाइज़ेशन की समस्या।
सूक्ष्मजीव जगत के स्तर पर कोशिकाएं ऐसी अर्थ व्यवस्थाएं होती हैं जो विभिन्न भौतिक व रासायनिक इनपुट्स का संतुलन बनाती रहती हैं ताकि अधिकतम वृद्धि और अधिकतम संतानोत्पत्ति सुनिश्चित की जा सके। यह जानी-मानी बात है कि हमारे ग्रह पर जो बैक्टीरिया सबसे अधिक संख्या में पाया जाता है वह अपनी ज़ायदाद और प्रक्रियाओं को इस तरह प्रयुक्त करने का एक मॉडल है जिससे सीमाकारी पोषक पदार्थों से अधिकतम हासिल किया जा सके।

अन्य जीवधारी इतने किफायती नहीं होते। वे तो अपनी प्रक्रियाओं का नियमन इस तरह से करते हैं कि उनकी जेनेटिक सामग्री का महज़ एक छोटा हिस्सा ही ‘अभिव्यक्त’ होता है अर्थात उपयोग किया जाता है जिसके आधार पर किसी भी समय पर कुछ कोशिकीय अणुओं का उत्पादन किया जाता है। इस नियमन को हासिल करने के लिए पर्यावरण के संकेतों का आभास किया जाता है और इन संकेतों को आणविक प्रक्रियाओं की एक श्रृंखला में तबदील किया जाता है जिसके चलते अंतत: विशिष्ट आणविक नियामकों का उत्पादन होता है। ये नियामक ही तय करते हैं कि मूल संकेत के प्रत्युत्तर में कौन-से प्रोटीन या जैविक अणुओं का निर्माण किया जाएगा।
नियमन का महत्व तब उजागर होता है जब इस नियमन में गड़बड़ी होती है। यदि आप कैंसर के आणविक आधार से सम्बंधित वैज्ञानिक साहित्य को खंगालें तो पाएंगे कि आपका सामना बार-बार एक कूटशब्द ‘पी-53’ से होगा। पी-53 एक प्रोटीन का नाम है। यह गठान (ट्यूमर) का दमन करने वाला नियामक प्रोटीन है जो यह सुनिश्चित करता है कि हमारी सामान्य कोशिकाओं में जो विभिन्न कैंसर-रोधी प्रावधान हैं वे ज़रूरत पड़ने पर काम करने लगें। पी-53 को निष्क्रिय करने वाले उत्परिवर्तन कैंसर का कारण बन सकते हैं। इसी प्रकार से, अन्य नियामक प्रोटीन्स में गड़बड़ियों की वजह से कई जीवधारियों में विकास के दौरान शरीर की बनावट में विकृतियां पैदा हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, फलभक्षी मक्खी में यदि हॉक्स नामक नियामक प्रोटीन्स के एक समूह में उत्परिवर्तन हो जाए, तो उसके अंग गलत स्थानों पर उग आते हैं। यहां तक कि ऐसा भी हो जाता है कि एंटीना (स्पर्शक) के स्थान पर टांगें निकल आएं।

नियमन से ही किसी जीवधारी का प्राकृत वास निर्धारित होता है। इसका एक उदाहरण देखिए। स्क्विड नामक एक प्राणि के प्रकाश उत्पादक अंग में एक दीप्तिमान बैक्टीरिया विब्रियो फिशेरी निवास करता है। दरअसल यह सहजीवी बैक्टीरिया मेहमान ही स्क्विड को प्रकाश पैदा करने की काबिलियत प्रदान करता है। इस प्रकाश की मदद से ही स्क्विड अपने शिकार को ललचाता है और शिकारियों को भ्रमित करता है। मेंडल और उनके साथियों ने पाया था कि विब्रियो फिशेरी में एक नियामक प्रोटीन होता है ङद्मड़च् जो एक चिपचिपे पदार्थ के निर्माण का नियमन करता है। यह चिपचिपा पदार्थ बैक्टीरिया को स्क्विड से चिपकने और उसमें बसने की काबिलियत प्रदान करता है।
इसी बैक्टीरिया की एक अन्य किस्म है जो सामान्यत: कुछ मछलियों में निवास करती है। यह स्क्विड में बस्ती बनाने में असमर्थ होती है।
विब्रियो फिशेरी की इन दो किस्मों की जेनेटिक सामग्री की तुलना करके शोधकर्ता यह समझ पाए हैं कि इन दो किस्मों के बीच अंतर ङद्मड़च् की उपस्थिति का है। तब शोधकर्ताओं ने मछली में निवास करने वाली किस्म की जेनेटिक सामग्री में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ङद्मड़च् का जीन जोड़ दिया। इस एक जीन के जुड़ जाने पर वह बैक्टीरिया मछली-वासी से स्क्विड-वासी हो पाया।
कहने का मतलब यह नहीं है कि महज़ एक नियामक प्रोटीन की उपस्थिति से किसी जीवधारी को प्राकृतवास बदलने की सामर्थ्य मिल जाएगी। उदाहरण के लिए, यदि विब्रियो फिशेरी की मछली-वासी किस्म में वह चिपचिपा पदार्थ बनाने के लिए ज़रूरी जीन्स न होते तो मात्र ङद्मड़च् जोड़ देने से काम नहीं बनता। अलबत्ता, इससे इतना तो पता चलता ही है कि नियामक व्यवस्था प्राप्त होने या गंवा देने से किसी प्रजाति में नए लक्षण प्रकट हो जाते हैं अथवा नए लक्षणों के प्रकट होने की क्षमता पैदा हो जाती है। विब्रियो फिशेरी के मामले में एक चिपचिपे पदार्थ के निर्माण के बारे में नियामक निर्णय से तय होता है कि वह बैक्टीरिया मछली को उपनिवेश बनाएगा या स्क्विड को।

यह देखा गया है कि एक प्रोटीन के अभाव में साल्मोनेला नामक बैक्टीरिया (जो टायफाइड के लिए ज़िम्मेदार होता है) अपने हथियार डाल देता है और शांति के प्रयास करता है। पता चला है कि यह प्रोटीन एक नियामक प्रोटीन है जो यह सुनिश्चित करता है कि बैक्टीरिया के शस्त्रों का निर्माण उस समय न किया जाए जब उनकी ज़रूरत न हो। जिस तरह से इंसानों के युद्ध खर्चीले होते हैं, उसी तरह से बैक्टीरिया द्वारा शस्त्रों के रूप में प्रयुक्त किए जाने वाले प्रोटीन का अनावश्यक उत्पादन करना भी महंगा होता है। इसलिए बैक्टीरिया के लिए इस बात का बहुत महत्व है कि इन शस्त्रों का निर्माण ज़रूरत होने पर ही किया जाए।
जो वायरस बैक्टीरिया का शिकार करते हैं, वे नियमन की मदद से तय करते हैं कि कब वे सुप्त पड़े रहेंगे, भले बनकर बैक्टीरिया के एक हिस्से के रूप में चुपचाप संख्या वृद्धि करते रहेंगे या नए वायरस कणों का विस्फोटक जैव-संश्लेषण शु डिग्री कर देंगे जो अंतत: बैक्टीरिया को तबाह कर देंगे। दरअसल लैम्ब्डा वायरस में इन नियामक प्रक्रियाओं की खोज आणविक जीव विज्ञान में मील का पत्थर है। यह वायरस मशहूर बैक्टीरिया ई. कोली का शिकार करता है।
कोशिकाओं के जीवन में नियमन के महत्व को दर्शाने वाली फेहरिस्त अंतहीन है। सवाल यह है कि क्या कोई सामान्य सिद्धांत हैं। एक आकर्षक परिकल्पना जैव-रसायनविद जुआन रैनिया और जेनेट थर्नटन ने करीब 12 वर्ष पहले प्रस्तुत की थी। उन्होंने बैक्टीरिया के चयापचयी प्रोटीन्स (यानी शरीर में सीधे प्रयुक्त होने वाले प्रोटीन्स) को उसका उत्पादक परिणाम कहा था और नियामक प्रोटीन्स को इस उत्पादन को हासिल करने की परिचालन लागत माना था। उस समय ज्ञात बैक्टीरिया की विशाल विविधता की रेंज में उन्होंने गणना की थी कि किसी बैक्टीरिया में कूटबद्ध नियामक प्रोटीन (यानी उसकी परिचालन लागत) और उसके चयापचयी उत्पाद (यानी कुल उत्पादन) के बीच क्या सम्बंध होता है।

उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे बैक्टीरिया का जेनेटिक पदार्थ - और साथ-साथ चयापचयी जीन की संख्या - बढ़ती है, वैसे-वैसे परिचालन की लागत उससे भी तेज़ी से बढ़ती है। दूसरे शब्दों में, नया चयापचयी उत्पाद जोड़ने की लागत उस जीवधारी के लिए अधिक होती है जिसमें चयापचयी उत्पादों में बहुत विविधता हो बनिस्बत उस जीवधारी के जिसका चयापचयी खज़ाना अपेक्षाकृत सरल हो। इस सम्बंध के आधार में जाना यहां संभव नहीं है। वैसे उक्त शोधकर्ताओं ने काफी दृढ़ता से यह कहा था कि परिचालन की बढ़ती लागत इस बात की सीमा तय करती है कि किसी जीवधारी का चयापचयी खज़ाना कितना विशाल हो सकता है।
और लगता है कि कोशिकाओं के संदर्भ में उत्पादन और नियामकों के बीच जो विचित्र सम्बंध है वह सम्बंध शैक्षणिक संस्थाओं पर भी लागू होता है। देखा गया है कि इनमें भी अकादमिक व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि के मुकाबले प्रशासनिक कर्मियों की संख्या में वृद्धि कहीं ज़्यादा तेज़ी से होती है। (स्रोत फीचर्स)