समाज और चिकित्सा में बच्चे पैदा ना कर पाने की समस्या को हमेशा महिलाओं और उनकी ही किसी कमी से जोड़ कर देखा जाता रहा है चाहे दिक्कत पुरुषों में ही क्यों ना हो। यदि किसी दंपत्ति के बच्चा पैदा नहीं हो रहा होगा और समस्या पुरुष के साथ होगी तो भी इसे महिलाओं से ही जोड़ कर देखा जाता है। किंतु एक नई खबर ने इस धारणा पर बातचीत के नए अवसर खोले हैं।

इस्राइल के वैज्ञानिकों ने हाल ही में यह बताया है कि विकसित देशों में पिछले 40 सालों में पुरुषों के वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या (स्पर्म कांउट) में 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा कमी आई है। और हर साल तकरीबन 1.6 प्रतिशत की कमी होती जा रही है। यह काफी चौंकाने वाली बात है। हर 10 में से एक व्यक्ति इस समस्या से जूझ रहा है।
यह खबर पी.डी. रेम्स के उपन्यास दी चिल्ड्रन ऑफ मैन की याद दिलाती है जिसकी कहानी एक अजीब-से विचार के इर्द-गिर्द घूमती है। कहानी में साल 2021 की कल्पना की गई है - जब पिछले 25 सालों से एक भी बच्चा नहीं जन्मा है और मानव जाति खत्म होने की कगार पर है। और भविष्य का कुछ भी अता-पता ना होते हुए सारा समाज काल के गाल में समाता जा रहा है। हो सकता है कि शुक्राणु संख्या में गिरावट के चलते 2021 आते-आते हमारी असल ज़िन्दगी में भी इस तरह की मुश्किलें आने लगें।

दी चिल्ड्रन ऑफ मैन में तो इंसानों की प्रजनन क्षमता किसी बीमारी के कारण खत्म हो जाती है। पर असल में लोगों में प्रजनन क्षमता कम क्यों हो रही है इसके कारण स्पष्ट नहीं है। जिसके लिए जल्द ही शोध करने की ज़रूरत है। पुरुष बांझपन के बारे में वैज्ञानिकों की समझ सीमित है। कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि इस बारे में बारीकी और बड़े पैमाने पर शोध करने के लिए उन्हें वित्तीय सहयोग मिलने में बहुत मुश्किल होती है।

वीर्य में कम होती शुक्राणुओं की संख्या से इस विचार को दूर करने का मौका मिला है कि बांझपन सिर्फ महिलाओं से जुड़ी समस्या है। यह खबर महिलाओं के लिए राहत की खबर हो सकती है। अब तक इस खबर से सदियों से चली आ रही महिला-पुरुष की गैर-बराबरी पर बात करने के अवसर खुले हैं। पुरुषों के शरीर में महिलाओं के समान बच्चे को जन्म देने की क्षमता नहीं है। और इसी बात को लिंगभेद के औचित्य की तरह उपयोग किया जा सकता है और किया भी जाता है। पर इस वजह से समाज में व्याप्त भेदभाव की पूरी व्याख्या संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)