अफसाना पठान

बारिश का मौसम आते ही जहां चारों ओर हरियाली छा जाती है वहीं दूजी तरफ बिलों में रहने वालों जीवों के लिए मुसीबत हो जाती है। इसी कारण सांप जैसे जीव बारिश के मौसम में बिलों से बाहर निकल आते हैं।
ये जीव किसी को ऐसे तो नुकसान नहीं पहुंचाते लेकिन गलती से अगर इन पर पैर पड़ जाए या कोई इन्हें परेशान करे, तो ये अपनी जान बचाने के लिए हमला करते हैं। सांपों की कई प्रजातियां होती हैं जिन्हें आप जानते भी होंगे। सांपों की हर प्रजाति ज़हरीली नहीं होती लेकिन कुछ प्रजातियां बहुत ज़हरीली होती हैं, जैसे - वायपर, मॉम्बा और टायफन जिनके काटने से जान भी जा सकती है। कार्पेट वायपर (Echis ocellatus) बहुत ही ज़हरीला सांप होता है। इसके काटने से इसका ज़हर रक्त में पहुंचकर थक्का बनने से रोकता है जिसके कारण रक्त का बहाव तेज़ हो जाता है और रक्त वाहिनियां क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, इस कारण नाक, मुंह से रक्त बहने लगता है। इससे या तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है या वह लकवाग्रस्त हो जाता है।

सांप के काटने से होने वाली मृत्यु का प्रतिशत भी उतना ही है जितना किसी महामारी से होने वाली मौतों का होता है। विश्वस्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति वर्ष पूरे विश्वमें लगभग 5 लाख लोग सांप के काटने का शिकार होते हैं। इनमें से लगभग 1 लाख की मौत हो जाती है और 4 लाख लोग लकवाग्रस्त हो जाते हैं। भारत में 2005 में किए गए सर्वे से यह बात उजागर हुई थी कि 45,000 से ज़्यादा मौतें सांप के काटने से होती हैं। नाइजीरिया में प्रति वर्ष सैकड़ों मृत्यु इन सांपों के काटने से होती है। सांप के काटने के सबसे ज़्यादा शिकार गरीब देशों के गरीब और बेघर लोग होते हैं।

सांप के काटने से जान बचाने का एक ही तरीका है - सही समय पर इलाज। पीड़ित व्यक्ति को फौरन नज़दीकी अस्पताल ले जाना चाहिए। यदि व्यक्ति को सही उपचार नहीं मिलता है तो उसकी मृत्यु हो सकती है। ऐसा सुना गया है कि दवा की पहुंच न होने या तुरंत उपचार न मिलने के कारण पीड़ित व्यक्ति पेट्रोल या केरोसीन पीते हैं या तंत्रविद्या का सहारा लेते हैं जो एकदम गलत है और इसके प्रति लोगों को जागरूक करने की आवश्यकता है। क्योंकि सांप के काटने से सिर्फ एंटी-वेनम ही बचा सकता है।

अभी तक हमारे पास पर्याप्त एंटी-वेनम मौजूद हैं और इससे सांप के काटने का इलाज किया जा सकता है। लेकिन आने वाले कुछ वर्षों में यह पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि दवा का वि·ासनीय बाज़ार उपलब्ध न होने के कारण विकसित देशों की कई दवा निर्माता कंपनियों ने इनके निर्माण से अपने हाथ खींच लिए हैं और कई देशों में एंटी-वेनम का विकास थम-सा गया है। सोनोफी पाश्चर कंपनी ने फेव-अफ्रीके नामक एंटी-वेनम बनाना बंद कर दिया है। बता दें कि फेव-अफ्रीके अब तक का सबसे प्रभावी कॉम्बीनेशन एंटी-वेनम है।

लेटिन अमेरिका की सरकारी प्रयोगशालाओं में एंटी-वेनम बनाया जाता है और मुफ्त में अस्पतालों और क्लीनिकों को मुहैया कराया जाता है। लेकिन दूर-दराज़ के इलाकों, जैसे उप-सहारा अफ्रीका, जहां इस दवा की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है वहां इसकी पहुंच मुश्किल है। सरकारी कामकाज में भ्रष्टाचार के चलते इस दवा को मुफ्त में उपलब्ध करवाने की बजाय ऊंचे दामों पर बेचा जाता है। यह समय पर इलाज न मिल पाने का एक बड़ा कारण है।

एंटी-वेनम को लेकर एक और सबसे बड़ी चिंता इस बात की है कि जब इसका विकास पैसा कमाने के लालच में किया जाएगा तो लाज़मी है कि दवा की कीमत भी ज़्यादा होगी। और हमारे जैसे विकासशील देशों में इस महंगी दवा की कीमत कितने लोग चुका पाएंगे, वह भी तब जब इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत गरीब लोगों को है?
एंटी-वेनम दवा की एक और बड़ी समस्या यह है कि इस दवा की लाइफ बहुत कम होती है और इसे पूरे समय रेफ्रिजरेशन की ज़रूरत पड़ती है। दूरस्थ स्थानों और विकासशील देशों के कई गांवों में जहां बिजली की समस्या है वहां इसका भंडारण नामुमकिन है।

सबसे पहली एंटी-वेनम बनाने की विधि फ्रांसीसी चिकित्सक एल्बर्ट काल्मेटी ने 1890 के दशक में विकसित की थी। एंटीवेनम बनाने का खर्च बहुत अधिक इसलिए भी आता है क्योंकि यह हमारे शरीर में नहीं बनता। एंटी-वेनम बनाने के लिए सांप के दूध से कुछ मात्रा में ज़हर को घोड़े और भेड़ के शरीर में इंजेक्ट किया जाता है ताकि उनका शरीर ज़हर को बेअसर करने वाली एंटीबॉडीज़ बनाना शुरू कर दे। फिर धीरे-धीरे इस ज़हर की खुराक को बढ़ाया जाता है ताकि शरीर ज़्यादा तादाद में एंटीबॉडीज़ बना सके। घोड़े और भेड़ सांप के ज़हर के प्रतिरोधी पाए गए हैं। लेकिन हर प्रजाति के सांप के लिए अलग प्रकार की एंटीबॉडीज़ बनाई जाती है। मकड़ी और बिच्छू का ज़हर भी घातक होता है इनके ज़हर में केवल एक या दो तरह के टॉक्सिक प्रोटीन होते हैं।लेकिन सांप के ज़हर में इससे 10 गुना ज़्यादा मात्रा में टॉक्सिक प्रोटीन पाए जाते हैं।

फिलहाल तो एंटीबॉडीज़ बनाने के लिए यही प्रक्रिया इस्तेमाल की जा रही है। लेकिन भविष्य में वैज्ञानिकों का कहना है कि इससे बेहतर तरीके से एंटी-वेनम बनाए जा सकेंगे। कुछ साल पहले की बात है जब सेन जोस स्थित कोस्टा रिका युनिवर्सिटी के विष विज्ञानी हैरिसन और जोस मारिया गुटियरेज़ ने वेनोमिक्स और एंटीवेनोमिक्स का इस्तेमाल करके उप-सहारा अफ्रीका के लिए एक सर्व-उपयोगी एंटी-वेनम बनाने के प्रयास किए थे। इसके लिए ज़हर में उपस्थित घातक प्रोटीन की पहचान करने के लिए विभिन्न तकनीकों का इस्तेमाल किया गया। इस प्रक्रिया का उद्देश्य कृत्रिम रूप से एंटीबॉडीज़ बनाना है। जिसमें किसी भी पशु के बजाय कोशिका का इस्तेमाल करके सर्व-उपयोगी एंटी-वेनम बनाया जा सकेगा। हाल ही में गुटियरेज़ की टीम को इसमें कुछ सफलता मिली है। उन्होंने ज़हरीले सांपों की एक प्रजाति एलिपिड से ज़हरीला प्रोटीन खोजने में सफलता हासिल की है। यह उपचार की दिशा में पहला कदम है। अगर यह शोध सफल रहता है तो बहुत जल्द एंटी-वेनम की कमी को पूरा किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)