अमेरिका में 2005-2014 के बीच फ्लू वैक्सीन ने तकरीबन 40,000 जानें बचाई थीं परन्तु यह काफी नहीं है। पिछले वर्ष इस्तेमाल किया गया फ्लू वैक्सीन प्रमुख इन्फ्लूएंज़ा एच3एन2 स्ट्रेन के विरुद्ध केवल 43 प्रतिशत प्रभावी रहा। अब दो अध्ययनों से फ्लू के टीके की असफलता का एक नया कारण सुझाया गया है। कारण यह है कि उत्पादन के दौरान वैक्सीन में उपस्थित वायरस उत्परिवर्तित होता है जो वास्तव में फ्लू फैला रहे वायरस से मेल नहीं खाता।

शोधकर्ता यह तो पहले से जानते थे कि फ्लू का वायरस बहुत तेज़ी से विकसित होता है। इसलिए टीका तैयार होने के बाद जब उपयोग के लिए भेजा जाता है तब तक मानव शरीर में यह वायरस बदल चुका होता है। मगर अब पता चला है कि इसके मेल ना खाने का एक कारण यह भी है कि टीके का उत्पादन मुर्गी के अंडों के भीतर किया जाता है। पिछले 70 वर्षों से इस पद्धति के अच्छे परिणाम मिले हैं लेकिन अब यह देखा गया है कि यह वायरस अंडों में भी परिवर्तित होता है। इस वजह से वह मनुष्य को संक्रमित करने वाले वायरस से मेल नहीं खाता।

नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित एक पर्चे में हेंसले और उनकी टीम ने बताया है कि उन्होंने 2014 में एच3एन2 वायरस की सतह पर एक शकरनुमा अणु पाया है। यह अणु वायरस पर ठीक उस जगह पाया जाता है जहां हमारी प्रतिरक्षा कोशिकाएं वायरस से जुड़ती हैं और खतरे का संकेत देती हैं। इस शकर की अनुपस्थिति में प्रतिरक्षा कोशिकाएं वायरस से जुड़ नहीं पातीं। इस अणु की खोज के बाद टीका बनाने वालों ने वायरस की इस किस्म को 2016-17 के टीके में शामिल किया था ताकि प्रतिरक्षा कोशिकाएं इसे पहचानकर नष्ट कर सकें।

किंतु जब हेंसले की टीम ने मुर्गी के अंडे से उत्पादित टीके की जांच की तो उसमें शकर का अणु नदारद था। दूसरी ओर, उन टीकों ने अच्छे परिणाम दिए जो अंडे में विकसित नहीं किए गए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि अंडे के अंदर उक्त शकर का अणु वायरस की वृद्धि में बाधक होता है। इसलिए, अंडे में पहुंचते ही वायरस उसे त्याग देते हैं। और तो और, जब वायरस शकर का त्याग करता है तो उसके कुछ अन्य क्षेत्रों में भी परिवर्तन होते हैं जो हमारी प्रतिरक्षा व्यवस्था की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

एक अन्य अध्ययन (प्लॉस पैथोजेन में प्रकाशित) में देखा गया कि मुर्गी के अंडे में उत्पादन के फलस्वरूप वायरस में कुछ अन्य परिवर्तन भी होते हैं, जिनकी वजह से हमारा प्रतिरक्षा तंत्र उन्हें पहचान नहीं पाता।
तो अंडा आधारित टीके समस्यामूलक हैं। किंतु हेंसले के अनुसार इन्हें त्याग देना आसान नहीं होगा। अंडे में इन टीकों के उत्पादन का बुनियादी ढांचा मौजूद है और यह कई दशकों से चला आ रहा है। इसको बदलने में वर्षों का समय लग सकता है। (स्रोत फीचर्स)