माधव गाडगिल

सीसा (लेड) के विषैलेपन के बारे में जानकारी होने के बावजूद लेड का उत्पादन करने वालों के लिए यह मुनाफे का धंधा बना हुआ है। इसका निरंतर उपयोग जारी है और यह मानव और पर्यावरणीय स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा है।

पिछले दिनों नूडल्स में सीसे की अत्यधित मात्रा की खबर काफी चर्चा में रही। लेकिन तथ्य यह है कि मनुष्य पिछले 2 हज़ार सालों से अपने भोजन एवं पेय सामग्रियों में सीसे का उपयोग करते आए हैं। सीसा आसानी से और प्रचुरता से उपलब्ध धातु है और इसके साथ काम करना आसान है। अत: इसका उपयोग सदियों से होता आया है। रोमन लोग खाना पकाने के बर्तनों और पानी के पाइप में सीसे का भरपूर उपयोग किया करते थे। उनकी मुद्रा चांदी और सीसे की मिश्र धातु से निर्मित की जाती थी। इन सबके चलते रोमन साम्राज्य में सीसे का वार्षिक उत्पादन 80,000 टन तक था। सीसे से बने बर्तन में उबले अंगूर का रस शराब और कई व्यंजनों में डाला जाता था। इस तरह, रोमन लोग उम्र भर पर्याप्त मात्रा में सीसा डकारते थे। यह सब चलता रहा जबकि यूनानी-रोमन चिकित्सक जानते थे कि सीसा विषैला है और उन्होंने उसकी विषाक्तता के लक्षणों का विस्तृत विवरण भी दिया था। कुछ इतिहासकारों का तो अनुमान है कि रोमन साम्राज्य का पतन सीसे की विषाक्तता के कारण हुआ था।

वर्तमान में, विश्व  स्तर पर सीसे का सालाना उत्पादन 50 लाख टन है। इसका उपयोग धातु के टांके लगाने, पेंट (रंग) बनाने और यहां तक कि खाने के रंग में भी किया जाता है। और अब तक तो मानव शरीर और पर्यावरण में सीसा काफी मात्रा में जमा हो चुका है। अलबत्ता, इसके फैलने का मुख्य कारण तो वाहनों के ईधन में मिलाया जाने वाला एंटी-नॉकिंग पदार्थ - टेट्राइथाइल लेड (TEL) - है। जिस ढंग से इस प्रदूषणकारी पदार्थ को अनावश्यक रूप से इंसानों और जैव-मंडल पर थोपा गया है वह एक रोमांचक कहानी है।

TEL का समर्थन और विरोध
पहली बार च्र्कख्र् उन्नीसवीं सदी के मध्य में जर्मनी में बनाया गया लेकिन अत्यंत विषैला होने के कारण कभी उपयोग नहीं किया गया। 1920 के शुरुआती दौर में अमेरिका के ऑटोमोबाइल, र्इंधन और रसायन उद्योग ने एंटी-नॉक के रूप में च्र्कख्र् को पुनर्जीवित किया। उस समय तक यह भी पता चल चुका था कि पेट्रोलियम के साथ अल्कोहल मिलाने से भी उसी उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। लिहाज़ा, 13 अप्रैल 1918 को साइंटिफिक अमेरिकन ने खबर प्रकाशित की थी कि: “अब यह निश्चित रूप से स्थापित हो गया है कि अल्कोहल को गैसोलीन (पेट्रोल) के साथ मिलाकर उपयुक्त मोटर ईधन बनाया जा सकता है।” 1920 में अमेरिकी नौसेना समिति ने निष्कर्ष निकाला कि अल्कोहल-गैसोलीन का मिश्रण ‘नॉक उत्पन्न किए बिना उच्च दबाव का सामना कर सकता है।’ लेकिन तब एल्कोहल का पेटेंट नहीं किया जा सकता था और उद्योग इससे मुनाफा नहीं कमा पाते। इसलिए इससे सम्बंधित चर्चाओं को जानबूझकर दबाया गया और एंटी-नॉकिंग पदार्थ के रूप में TEL के उपयोग पर ज़ोर दिया गया।

नॉकिंग की समस्या मूलत: आंतरिक दहन इंजिन में आती है जिनमें ईधन को चिंगारी से जलाया जाता है। चिंगारी पैदा करने के लिए स्पार्क प्लग होता है जो इंजिन में एक सही दबाव पैदा होने पर ही चिंगारी पैदा करता है। ऐसा होने पर ईधन ठीक समय पर और ठीक जगह पर जलता है और उससे मुक्त ऊर्जा का यथेष्ट उपयोग इंजिन को चलाने में हो पाता है। मगर कभी-कभी इंजिन की किसी खराबी या ईधन और हवा का मिश्रण सही न होने पर या ईधन की अपनी विशेषता के कारण वह चिंगारी पैदा होने से पहले कहीं भी जल उठता है। इसकी वजह से ईधन की पूरी ऊर्जा का उपयोग नहीं हो पाता और इंजिन में कंपन होने लगते हैं और वह पट-पट की आवाज़ करता है। इसे नॉकिंग कहते हैं। नॉकिंग से बचने के लिए या तो सही ईधन का चुनाव करना होता है या हवा और ईधन के सही मिश्रण का उपयोग करना होता है। एक तरीका यह है कि ईधन में कुछ पदार्थ मिलाए जाते हैं जो नॉकिंग को कम करते हैं। इन्हें एंटी-नॉकिंग पदार्थ कहते हैं।

TEL उत्पादन संयंत्रों में कई मौतें होने और कई लोगों के गंभीर रुप से घायल होने के कारण TEL थोपने की कोशिशों को विरोध का सामना करना पड़ा। नतीजतन, कई अमेरिकी राज्यों ने इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया। कई प्रतिष्ठित चिकित्सा वैज्ञानिकों ने इसका विरोध किया। परिणामस्वरुप 1925 में अमेरिका के सर्जन-जनरल ने एक बैठक बुलाई, जिसमें एक समिति नियुक्त की गई। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि लंबे समय तक पर्यावरण में सीसे की मौजूदगी से मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव के कोई प्रमाण नहीं है; लेकिन साथ ही यह भी कहा कि चूंकि अब तक इस विषय पर कोई शोध नहीं हुआ है, शायद इस वजह से साक्ष्य मौजूद ना हों और इस पर तत्काल शोध करने की ज़रूरत है।

सर्जन-जनरल ने रिपोर्ट के केवल पहले हिस्से, यानी “पर्यावरण में लंबे समय तक सीसे की मौजूदगी से मानव स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव के कोई साक्ष्य नहीं है” पर ही ज़ोर दिया और इसे TEL उत्पादन के लिए क्लीन-चिट मान लिया। यह तय किया गया कि लोगों के स्वास्थ्य से जुड़े इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर शोध के लिए सार्वजनिक धन खर्च करने की ज़रूरत नहीं है और उद्योग से ही कहा जाना चाहिए कि वह स्वयं ही ज़रूरी शोध करे।

उद्योगों ने खुशी-खुशी एक लचीले चिकित्सा वैज्ञानिक रॉबर्ट केहो को इसके लिए धन उपलब्ध कराया और अगले 40 सालों तक सर्जन-जर्नल और राबर्ट केहो TEL की ज़ोरदार पैरवी करते रहे। कई नामी वैज्ञानिक आश्वस्त नहीं थे लेकिन रॉबर्ट केहो ने उन्हें TEL के हानिकारक प्रभाव के स्पष्ट प्रमाण पेश करने की चुनौती दी। TEL के हानिकारक प्रभाव नहीं होने का दावा करने का रॉबर्ट केहो का प्रमुख आधार यह कथन था कि मानव रक्त में सीसे का सामान्य स्तर ही काफी अधिक (0.2-0.4 पीपीएम तक) होता है। गौरतलब है कि सीसे के मानव शरीर पर हानिकारक असर इससे थोड़े अधिक स्तर (0.5-0.8 पीपीएम) पर दिखाई देते हैं। चूंकि इस शोध पर रॉबर्ट केहो ने एकाधिकार स्थापित कर लिया था, इसलिए दावे से असहमत कई लोगों के लिए इसके खिलाफ सबूत जुटाना असंभव था।

यह अवरोध 1960 के दशक में तब टूटा जब परिदृश्य में एक युवा भूगर्भ रसायनविद क्लेयर पैटरसन का प्रवेश हुआ। क्लेयर पैटरसन पृथ्वी की उम्र का निर्धारण करने के लिए लौह उल्का पिंडों पर काम कर रहे थे। इसके लिए इन उल्का पिंडों में सीसे का एकदम सटीक स्तर पता करना ज़रूरी था। लेकिन पैटरसन के लिए यह अविश्वासनीय रूप से मुश्किल साबित हुआ। पैटरसन ने पाया कि पूरा वातावरण सीसे से इतना प्रदूषित था कि सीसा-रहित प्रयोगशाला स्थापित करना लगभग असंभव था। अंतत: 1956 में पैटरसन पृथ्वी की आयु निर्धारित करने में सफल हुए और उन्होंने पृथ्वी की आयु 4.56 अरब वर्ष निकाली जो अब तक स्वीकार्य है।

तब पैटरसन की रुचि प्राकृतिक और मानव-प्रभावित पर्यावरण में सीसे के पूरे मुद्दे को देखने में पैदा हुई। वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि मानव रक्त में सीसे के मान्य प्राकृतिक स्तर और विषाक्त स्तर में इतना कम फर्क है। उन्होंने गैर-जीवित वातावरण और जैव मंडल में अलग-अलग तत्वों के स्तर की जांच करना शुरू किया। रासायनिक तत्व समूहों में व्यवस्थित होते हैं। उदाहरण के लिए, कैल्शियम, स्ट्रॉन्शियम और बेरियम एक ही समूह में आते हैं। इसी प्रकार से कार्बन, सिलिकॉन और सीसा एक अन्य समूह में आते हैं। पैटरसन ने बताया कि जीवधारी कैल्शियम जैसे उपयोगी तत्वों को ग्रहण करते हैं और उसी समूह के विषैले तत्व (जैसे बेरियम) को बाहर कर देते हैं। बायोप्यूरिफिकेशन (जैव-शुद्धिकरण) की अवधारणा के रूप में विज्ञान में यह उनका दूसरा बड़ा योगदान था। इस सिद्धांत के अनुसार, मानव शरीर में हानिकारक तत्वों का प्राकृतिक स्तर उनके विषाक्त स्तर की तुलना में बहुत कम होना चाहिए। इसलिए राबर्ट केहो का यह दावा संदेहपूर्ण था कि रक्त में सीसे का प्राकृतिक स्तर 0.2-0.4 पीपीएम होता है।

सीसे का बढ़ता स्तर
इसके बाद पैटरसन ने चट्टानों, नदियों और समुद्र के पानी, समुद्र की तलछट, वायुमंडल और जैव मंडल में सीसे के स्तर की व्यवस्थित जांच की। उन्होंने साबित किया कि पिछली कुछ शताब्दियों में तलछटों में पाए जाने वाले समुद्री जीवों के अवशेषों में सीसे का स्तर सौ गुना बढ़ गया था। उन्होंने आर्कटिक और अंटार्कटिक से बर्फ के कोर के नमूने लिए जिनमें भी सीसे का स्तर उतना ही बढ़ा था। स्पष्ट निष्कर्ष यह था कि रॉबर्ट केहो के दावों के विपरीत मानव शरीर में मौजूद सीसे का उच्च स्तर प्राकृतिक नहीं, बल्कि प्रदूषण के कारण था। पैटरसन ने प्राचीन कंकालों के दांतों और हड्डियों में सीसे का स्तर पता करते हुए एक पुख्ता सबूत प्रस्तुत किया - प्राचीन कंकाल के दांतों और हड्डियों में सीसे का स्तर आधुनिक मानव के दांतों और हड्डियों में सीसे के स्तर का सिर्फ एक हज़ारवां भाग पाया गया।

अपने पूरे काम का सार प्रस्तुत करते हुए, 1965 में पैटरसन ने एक पेपर प्रकाशित किया जिसने रॉबर्ट केहो के निराधार दावों को पूरी तरह उखाड़ फेंका। जो वैज्ञानिक, खास तौर पर चिकित्सा अनुसंधान समुदाय, जो लेड प्रदूषण के अस्वीकृत प्रभावों के मूक दर्शक बने थे वे तुरंत आश्वस्त हो गए। TEL के अलावा, पैटरसन के अध्ययन ने खाद्य उद्योगों में उपयोग किए जा रहे डिब्बों, जिनकी सोल्डरिंग में सीसे का उपयोग किया जाता है, की तरफ भी ध्यान केन्द्रित किया। अंतत: अमेरिका में इन डिब्बों पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

दिलचस्प बात यह है कि एक ओर तो सीसा-मुक्त डिब्बे बनाने वाली एक कंपनी ने पैटरसन को अपने निदेशक मंडल में आमंत्रित किया, वहीं तेल कंपनियों ने समुद्री तलछटों पर उनके द्वारा किए जा रहे शोध के लिए पैसा देना बंद कर दिया। दशकों तक पैटरसन ने देखा कि उनके सुझावों को दरकिनार किया जा रहा है और सरकार द्वारा उनके शोध प्रस्ताव अस्वीकृत किए जा रहे हैं। वे अपना शोध कार्य जारी रख पाए तो सिर्फ दुनिया भर के वैज्ञानिकों के साथ सहयोग के दम पर जो एक भू-रसायन विशेषज्ञ के तौर उनका बहुत सम्मान करते थे।

बहरहाल, वे जिन चीज़ों की पैरवी कर रहे थे, आखिरकार उन्हें स्वीकार किया गया। और पुख्ता सबूतों के चलते उनका महत्वपूर्ण शोध पत्र प्रकाशित होने के पूरे बीस साल बाद अमेरिका ने TEL के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। 1985 का एक अध्ययन बताता है कि अमेरिका में सीसे पर प्रतिबंध से पहले, हर साल लगभग 5000 अमरीकियों की मृत्यु सीसा सम्बंधी ह्मदय रोगों से होती थी। और अब अमेरिका में सीसा मुक्त वातावरण के स्वास्थ्य लाभ को सराहा जा रहा है।

लेकिन यह रसायन दुनिया पर सिर्फ इसलिए थोपा गया है क्योंकि इसका पेटेंट करवाकर मुनाफा कमाया जा सकता है। दुनिया के कई हिस्सों में इसके निर्माताओं को लाभ होता है जिनमें हमारे पड़ोसी देश अफगानिस्तान और म्यांमार भी शामिल हैं जो आज भी ऑटोमोबाइल ईधन में इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।

गौरतलब है कि विश्व बैंक के उपाध्यक्ष और आगे चलकर राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के ट्रेज़री सचिव रहे लैरी समर्स ने 1991 में अपने एक कुख्यात मेमो में लिखा था: “प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य हानि की कीमत का आकलन अस्वस्थता और मृत्यु की वजह से गंवाए गए लाभ के रूबरू किया जाना चाहिए। इस नज़रिए से स्वास्थ्य को हानि पहुंचाने वाले प्रदूषण उन देशों में किए जाने चाहिए जहां लागत सबसे कम हो अर्थात जहां मज़दूरी सबसे कम हो। मेरा मानना है कि सबसे कम मज़दूरी वाले देशों में विषैले कचरे के डंपिंग के पीछे आर्थिक तर्क एकदम वाजिब है और हमें इसे स्वीकार करना चाहिए।” लगता है कि आज भारत भी पर्यावरण और लोगों पर दुष्प्रभावों की परवाह किए बगैर ऐसे ही ‘एकदम वाजिब’ तर्क पर चल रहा है। (स्रोत फीचर्स)