डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

बच्चा पैदा करना या न करना, यह निर्णय व्यक्तिगत भी है और सामाजिक भी। महिला की राय इस मामले में अहम होनी चाहिए क्योंकि यह उसके स्वास्थ, कल्याण और चुनाव की स्वतंत्रता और जीवन जीने के तरीके को प्रभावित करेगा।
जनसंख्या में वृद्धि समाज के संसाधनों को प्रभावित करती है। जैसे व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामाजिक चिंता वर्णक्रम के दो सिरे हैं उसी प्रकार से गर्भधारण और गर्भनिरोध हैं। हालांकि बच्चा पैदा करने का फैसला महिला पर छोड़ दिया जाना चाहिए, किंतु जनसंख्या नियंत्रण एक राष्ट्रीय नीति का विषय बन गया है क्योंकि बढ़ती आबादी खाद्य आपूर्ति, जीवन स्तर, आर्थिक और सामाजिक विकास दर पर दबाव डाल रही है।

समय के साथ-साथ गर्भनिरोध के लिए कई तरीके अपनाए गए हैं - इम्प्लांट्स, स्त्री व पुरुष कंडोम, स्त्री-पुरुषों की नसबंदी वगैरह। लेकिन इन सबमें सबसे सुरक्षित (और सबसे कम घुसपैठी) है रासायनिक अणुओं या आम भाषा में गोलियों का इस्तेमाल। ये अणु गर्भावस्था के जैविक चरणों में हस्तक्षेप करते हैं। हालांकि यह तो काफी समय से पता था कि इस प्रक्रिया में कुछ स्टीरॉइड अणु महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं को बाधित करने की भूमिका निभाते हैं किंतु जब सन 1951 में कार्बनिक रसायनज्ञ कार्ल जेरासी ने अपने साथियों जार्ज रोज़ेनक्रेन्टज़ और लुईस मिरामोन्टिस के साथ मिलकर एक सस्ता संश्लेषित अणु - नॉरएथिन्ड्रोन - बनाया, तब पहली गर्भनिरोधक गोली अस्तित्व में आई थी। यह एक क्रांतिकारी कदम था जिसकी मदद से लाखों महिलाओं को व्यक्तिगत निर्णय लेने में मदद मिली कि उन्हें बच्चा चाहिए या नहीं।

महिलाओं में यह गोली क्या करती है? यह गोली अंडोत्सर्ग (अंडे के निर्माण) को रोकती है। इसके अलावा यह योनि द्रव को गाढ़ा और ज़्यादा चिपचिपा बनाती है। परिणाम यह होता है कि पुरुष शुक्राणु अंडे तक पहुंचकर उसका निषेचन नहीं कर पाते। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे रोज़ाना लेना पड़ता है। और दो सप्ताह गोली न ली जाए तो गर्भधारण की संभावना होती है। इसके अलावा कई महिलाओं में इसके रोज़ाना इस्तेमाल से उल्टी, मितली और माहवारियों के बीच में रक्तरुााव की समस्याएं होती हैं। इस गोली में इस्तेमाल होने वाले स्टीरॉइड के चलते कुछ महिलाओं में कुछ और जटिलताएं भी हो सकती हैं। अत: बेहतर गोली की गुंजाइश थी।

भारतीय प्रयास की सफलता
1960 के दशक में भारत सरकार ने भारतीय प्रयोगशालाओं को वैकल्पिक गर्भनिरोधक गोली बनाने की ज़िम्मेदारी दी। लखनऊ के केंद्रीय औषधि अनुसंधान संस्थान के डॉ. नित्यानंद और उनकी टीम ने यह चुनौती स्वीकार कर इस पर काम किया। उन्होंने इससे सम्बंधित पर्चों का विश्लेषण कर पाया कि एक अणु एथेमॉक्सिट्राईफेटॉल (MER-25) अन्य गुणधर्मों के अलावा पशुओं में उर्वरता-रोधी का प्रभाव दर्शाता है। लेकिन इसे बीच में ही छोड़ दिया गया क्योंकि इसकी शक्ति कम थी और यह तंत्रिका तंत्र को भी प्रतिकूल प्रभावित करता था।
कार्बनिक रसायनज्ञ अणुओं के कलाकार और वास्तुकार होते हैं। नित्या आनंद और उनके साथियों ने ग्कङ-25 को आधार बनाकर विभिन्न अणुओं का संश्लेषण किया और प्रत्येक को उर्वरता के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की। कुछ प्रयासों के बाद 1971 में उनका यह प्रयास सफल हुआ। चूंकि यह क्रोमन परिवार का सदस्य है और इसे केंद्रीय दवा अनुसंधान संस्थान में बनाया गया था, इसलिए इसे सेंटक्रोमन नाम दिया गया।

जेरासी द्वारा बनाई गई दवा से अलग इस लखनऊ गोली की कई विशेषताएं और फायदे हैं -
1. इसे रोज़ाना लेने की ज़रूरत नहीं है। चूंकि यह शरीर में पूरे 170 घंटों तक अवशोषित होती रहती है इसलिए साप्ताहिक खुराक काफी है।
2. इसकी खुराक अंडोत्सर्ग को प्रभावित नहीं करती है (लिहाज़ा हॉरमोन संतुलन पर असर नहीं डालती है) बल्कि भ्रूण के ठहरने को रोकती है।
3. इसे संभोग के बाद भी लिया जा सकता है।
4. चूंकि इसमें कोई स्टीरॉइड घटक नहीं है तो साइड इफेक्ट की संभावना भी नहीं है।
5. जब दवा लेना बंद कर दिया जाता है तो प्रजनन क्षमता बहाल हो जाती है, इस प्रकार बच्चों में अंतर रखने के लिए भी यह उपयुक्त है।

वर्ष 1990 में ज़रूरी क्लीनिकल परीक्षणों के बाद भारतीय अधिकारियों ने सेंटक्रोमन को पहले पशुओं और फिर महिलाओं के लिए इस्तेमाल की मंज़ूरी दे दी। टोरेन्ट फार्मा तथा हिन्दुस्तान लैटेक्स लाइफ केयर को इसके उत्पादन का लायसेंस दिया गया है। इसका उत्पादन सहेली नाम से किया जाता है। सहेली अब राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम का हिस्सा है। वि·ा स्वास्थ्य संगठन ने इसे तकनीकी नाम ओर्मेलोक्सिफेन नाम से इसे मंज़ूरी दे दी है जिसे नोवेक्स-डीएस या सेविस्टा के नाम से दुनिया भर में बेचा जाता है।

एक दवा, कई प्रभाव
अक्सर यह देखा गया है कि कोई एक दवा एक से ज़्यादा बीमारियों का इलाज भी कर सकती है। ओर्मेलोक्सिफेन के बारे में भी यह सही है। यह केवल गर्भनिरोध में ही प्रभावी नहीं है बल्कि कैंसर (स्तन, अंडाशय, और सिर व गर्दन के कैंसर) में भी प्रभावी है और हड्डियों की क्षति में भी। सहेली एक दोस्त की तरह है जो कई तकलीफों से निजात दिलाती है।
दो महान पुरुषों की चर्चा के साथ इस लेख को समाप्त करते हैं: कार्ल जेरासी और उनकी मां यहूदियों पर नाज़ी अत्याचारों के चलते अपने मूल देश ऑस्ट्रिया को छोड़कर 1939 में न्यूयार्क चले गए थे, जहां उनके बचे-खुचे 20 डॉलर भी लूट लिए गए। जेरासी इस घोर कंगाली से उभरकर एक रचनात्मक रसायनज्ञ और एक उत्कृष्ट लेखक बने। और नित्यानंद 1947 में बंबई में पढ़ाई कर रहे थे। वे किसी तरह एक हवाई जहाज़ को लेकर अपने घर लायलपुर (अब पाकिस्तान में) गए, सीटें हटाकर उसमें अपने पालकों को पैक करके विभाजन की दहशत से बचाकर बंबई ले आए। सहेली के शोधकर्ता वाकई सच्चे दोस्त रहे।(स्रोत फीचर्स)