1990 दशक में अनुपम मिश्र की ‘आज भी खरे हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ के कोई बीस साल बाद एक बार फिर हमें झकझोरने और आईना दिखाने सोपान जोशी की पुस्तक ‘जल, थल और मल’ आई है।
जल और थल अर्थात पानी और मिट्टी की बातें तो पहले भी होती रही हैं लेकिन मल की बात इतने विस्तार से, इतने वैज्ञानिक तरीके से, और जल, थल के साथ गूंथते हुए पहली बार हो रही है। हमारे यहां मल की बात करने का चलन नहीं है। स्वच्छता पर, हायजीन पर बात की जाती है, शौचालय पर बात की जाती है, मल सिर्फ बहाया जाता है।

‘केन्द्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम’, ‘टोटल सैनिटेशन कैंपेन’, ‘निर्मल भारत अभियान’ और अब ‘स्वच्छ भारत मिशन’ का ध्येय भी सतही कचरा सफाई और शौचालय के इस्तेमाल पर ज़ोर देना जान पड़ता है। पूरा मिशन तीन बिन्दुओं, हाथ धोने, साफ़ पानी पीने और शौचालय के इस्तेमाल पर केंद्रित है। शुचिता की बात इस मिशन में सिरे से ही नदारद है, जिसकी बात सोपान जोशी अपनी इस किताब में बड़ी शिद्दत से करते हैं। किताब आधुनिक मानव सभ्यता के अपने ही मल-मूत्र से नष्ट हो जाने की तर्कपूर्ण आशंका को रेखांकित करती है।
सोपान बताते हैं कि सभ्यता और विकास की पहचान बन गए फ्लश कमोड वाले शौचालयों के चलन से जहां एक ओर बेहिसाब पीने लायक पानी मल को बहाने में खर्च हो रहा है, वहीं दूसरी ओर, मैले पानी को नदी-तालाबों में छोड़ने से ये जल भण्डार भयंकर रूप से दूषित हो रहे हैं। यूनिसेफ की 2013 की एक रपट जल प्रदूषण को ‘टाइम बम’ बताती है।

किताब एक और भयानक सच की ओर संकेत करती है - पानी के माध्यम से मल मूत्र को एक साथ बहाए जाने से विभिन्न रोगाणुओं और एंटीबायोटिक दवाइयों की अवांछित मुलाकात होती है। परिणामस्वरूप उनमें ऐसी प्रतिरोध क्षमता विकसित हो जाती है जो एंटीबायोटिक दवाइयों से उन्हें बचाती है। इस तरह हम अनजाने ही रोगाणुओं को अपने खिलाफ तैयार कर रहे होते हैं।
मलमूत्र को पानी में प्रवाहित करने से उत्पन्न कीचड़ और गन्दगी का एक और काला सच है सेप्टिक टैंकों और सीवर लाइनों को साफ करने का अस्वास्थ्यकर काम, जिसके लिए समाज के एक तबके को अमानवीय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। कोई 12 लाख लोग मैला साफ करने और ढोने के काम में लगे हुए हैं।

किताब में सोपान ने इन बातों के सन्दर्भ में इतनी नायाब जानकारियां जुटायी हैं कि वे एक लेखक से ज़्यादा खोजी यात्री जान पड़ते हैं। अलबत्ता, इतनी सारी जानकारियों के बावजूद सोपान रोचकता और जिज्ञासा बनाए रखते हैं और तथ्यों, तर्कों और चिंतन को इस तरह पिरोते हैं कि वह रोजमर्रा की बात की तरह लगता है। तथ्यों, आंकड़ों या विश्लेषण का बोझिल नहीं बनते। सोपान कहीं रसायन शास्त्री, जीव वैज्ञानिक, कहीं इतिहासकार, आर्थिक नीति विश्लेषक, कहीं संस्कृतिकर्मी तो कहीं दार्शनिक हो जाते हैं। और हर भूमिका में वे अपनी पकड़ और पैठ बनाए रखते हैं।

सोपान विभिन्न शोध अध्ययनों और रपटों के हवाले से बताते हैं कि न तो निर्मल भारत अभियान के अंतर्गत बने शौचालयों से संक्रामक बीमारियां रुकी हैं और न ही सीवर के मैले पानी को साफ करने के कारखानों को कोई सफलता मिली है। यह साफ है कि न तो हम पूरी आबादी को शौचालय दे सकते हैं और न इन शौचालयों में मल बहाने के लिए पानी उपलब्ध करा सकते हैं। एक अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक फ्रेंकलिन के हवाले से सोपान एक जगह कहते हैं कि मनुष्य बेशकीमती साधनों को कूड़ा बनाने वाला सबसे तेज़ प्राणी है।

अंत में सोपान कहते हैं कि ऐसा मानना हमारी बहुत भारी भूल है कि आज पृथ्वी को बचाने की ज़रूरत है। इस ग्रह पर जीवन हमारे प्रयासों से नहीं आया है, न हमारे मिटाए मिटेगा। हम कितनी भी कोशिश कर लें, जाने-अनजाने कितनी ही प्रजातियों का सफाया कर दें, होगा यही कि जीवन का रूप बदल जाएगा। ऐसे जीव उभर आएंगे जिनके लिए हमारा मैला, हमारा कचरा ही संसाधन होंगे। ऐसे कीड़े होंगे जो हमारे बनाए विष से मरेंगे नहीं, ऐसे रोगाणु पनपेंगे जिन पर हमारी बनाई कोई दवा काम नहीं करेगी।
तो मसला पृथ्वी को बचाने का नहीं है। मनुष्य को खुद अपने आप को बचाना है, अपने आपसे।