वर्ष 2000 में स्वास्थ्य सेवा के मुद्दे पर और स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों पर काम कर रहे संगठनों ने साथ आकर एक राष्ट्रीय गठबंधन – जन स्वास्थ्य अभियान - का गठन किया था। इसका गठन पूरे देश में जात्राओं, सम्मेलनों के एक सिलसिले के उपरांत किया गया था। ये संगठन देश के अलग-अलग क्षेत्रों से विभिन्न सामाजिक-राजनैतिक पृष्ठभूमियों के थे। जन स्वास्थ्य समूहों को साथ लाने की वैश्विक प्रक्रिया में भी ये संगठन शरीक रहे थे।
जन स्वास्थ्य अभियान का गठन इसी दिशा में एक बड़ा कदम था। साथ मिलकर इन संगठनों ने एक 20 सूत्रीय जन स्वास्थ्य चार्टर भी विकसित किया। यह चार्टर हक-आधारित नज़रिए से बनाया गया था। जन स्वास्थ्य अभियान के इस चार्टर में स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में आमूल सुधार की सारी प्रमुख मांगों को शामिल किया गया था। साथ ही, स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों से सम्बंधित मांगें भी शामिल थीं।
20-सूत्री चार्टर में वर्तमान विषमतापूर्ण वैश्विक व्यवस्था का विरोध करते हुए कहा गया था कि यह व्यवस्था लोगों को उनके घरों से और आजीविकाओं से बेदखल करती है। चार्टर में लोगों के स्वास्थ्य सेवा के अधिकार का दावा किया गया था जिसके अंतर्गत सबके लिए खाद्यान्न सुरक्षा, टिकाऊ आजीविका, सुनिश्चित रोज़गार के अवसर, आवास, स्वच्छ पेयजल और स्वच्छ शौच व्यवस्था व समुचित चिकित्सा सुविधा शामिल हैं। कुल मिलाकर, यह सबके लिए स्वास्थ्य का मांग पत्र था।
चार्टर की भूमिका में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई थी कि अल्मा अता घोषणा पत्र (1978) में जो वायदे किए गए थे उन्हें विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ), विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) जैसी वित्तीय संस्थाओं ने तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के इशारों पर काम कर रही सरकार ने कमज़ोर किया है। इसके अंतर्गत अपनाई गई नीतियों ने लोगों के संसाधन हड़पे और उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवा संस्थाओं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लाभों से वंचित किया। चार्टर में मांग की गई थी कि स्वास्थ्य के अधिकार को संवैधानिक दर्जा दिया जाए।
इस लक्ष्य को पाने के लिए चार्टर में कुछ सामान्य सुझाव दिए गए थे। जैसे विकेंद्रित शासन प्रणाली, खेती की निर्वहनीय (टिकाऊ) प्रणाली, जो जोते उसकी ज़मीन का सिद्धांत लागू करना, पानी व भूमि का समतामूलक वितरण, कारगर सार्वजनिक वितरण तंत्र, शिक्षा, साफ पेयजल, आवास और स्वच्छ शौच व्यवस्था सबकी पहुंच में होना, गरिमामय रोज़गार, स्वच्छ पर्यावरण, एक ऐसा दवा उद्योग जो ज़रूरी दवाइयों का उत्पादन उचित मूल्यों पर करे, तथा एक ऐसी स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था जो जेंडर-संवेदी हो और बाज़ार द्वारा निर्धारित परिभाषाओं के प्रति नहीं बल्कि लोगों की ज़रूरतों के अनुरूप हो। इस चार्टर का सारांश इस लेख के परिशिष्ट के रूप में दिया गया है।
स्वास्थ्य सेवा के राजनैतिक अर्थशास्त्र, वित्तीय पूंजी के दबाव में स्वास्थ्य सेवा के निजीकरण व कंपनीकरण को ध्यान में रखते हुए जन स्वास्थ्य अभियान वर्ष 2000 से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के सुदृढ़ीकरण की मांग करता रहा है जो लोगों के प्रति सीधे जवाबदेह हो। साथ ही, एक समर्पित, पारदर्शी व जवाबदेह नियामक ढांचे के माध्यम से निजी स्वास्थ्य सेवाओं के नियमन की भी मांग रही है। यह कुछ राज्यों में पारित किए गए, बेकार पड़े, नौकरशाही से ग्रस्त चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन व नियमन) अधिनियम (सीईए) से बेहतर होना चाहिए।
चूंकि उपरोक्त सभी मांगें सरकारी नीतियों में परिवर्तन से जुड़ी हैं इसलिए ज़ाहिर है, ये राजनैतिक मांगें हैं जो इनकी एक खासियत है। दूसरी बात यह है कि सबके लिए शिक्षा के समान सबके लिए स्वास्थ्य सेवा की मांग भी समस्त आम लोगों के साझा हित में हैं। इस दृष्टि से इनका राजनैतिक महत्व व संभावनाएं समाज के कतिपय विशिष्ट वर्गों (जैसे किसानों या यातायात कर्मियों या खेतिहर मज़दूरों) से जुड़ी मांगों से कहीं अधिक है।
उपरोक्त जन स्वास्थ्य अभियान के काम के अत्यंत सकारात्मक पहलू हैं। स्वास्थ्य सेवा तथा स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों के संदर्भ में जन स्वास्थ्य अभियान ने लोगों के प्रवक्ता की भूमिका निभाई है। जनमत को प्रभावित करने की दृष्टि से अभियान अपनी मांगें, आलोचनाएं और सरोकार तरह-तरह से व्यक्त करता आया है। उपरोक्त नीतिगत परिवर्तनों के लिए लोगों के बीच जागरूकता बढ़ाने के प्रयास भी किए गए हैं। इसके लिए मीडिया में उपलब्ध जगह, राजनैतिक गुंजाइश का उपयोग कतिपय नौकरशाहों व राजनेताओं को प्रभावित करने करने के लिए करने का प्रयास रहा है।
इतना कहने के बाद, यह कहना भी ज़रूरी है कि अभियान मूलत: एक पैरवी गठबंधन रहा है। जन स्वास्थ्य अभियान एक जन आंदोलन नहीं बन पाया। वह एक शक्तिशाली जन आंदोलन खड़ा नहीं कर पाया जिसकी सरकार को अपनी नीतियों में बदलाव के लिए विवश करने के लिए ज़रूरत होती है।
शुरुआत तो एक धमाके के साथ हुई थी लेकिन अभियान मूलत: एक पैरवी समूह बनकर रह गया। उसके आगे जाकर, जब तक एक व्यापक जागरूकता कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया जाता, विशाल हस्ताक्षर अधियान नहीं चलाया जाता, जन विरोध के नवाचारी कार्यक्रम शुरू नहीं किए जाते, तब तक उपरोक्त 20 सूत्री चार्टर का असर सीमित ही रहेगा। महज इतना कहकर छुटकारा नहीं मिलेगा कि ऐसा आंदोलन खड़ा करना और चलाना तो लोक-हितैषी राजनैतिक दलों का काम है। क्योंकि सच्चाई यह है कि उन्हें तो स्वास्थ्य को लेकर ऐसे व्यापक राजनैतिक आंदोलन की ज़रूरत को लेकर भी स्पष्टता नहीं है और न ही उनके पास ऐसा काम उठाने की सामर्थ्य है। जन स्वास्थ्य समूहों को ही यह पहल करनी होगी और लोगों के बीच ऐसी राजनैतिक मांगों को लेकर जागरूकता बढ़ाने के प्रयास करने होंगे। हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं।
मूलत: जागरूकता निर्माण और पैरवी के काम से आगे जाकर एक शक्तिशाली जन आंदोलन निर्मित करने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। मसलन, स्वास्थ्य सेवा को संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल करवाने के लिए। यदि यह उद्देश्य है, तो इसके लिए संगठन के अंदर किस तरह के परिवर्तन करने होंगे? मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर चर्चा ज़रूरी है। जन स्वास्थ्य अभियान की पिछले 24 वर्षों की उपलब्धियों पर फख्र करने के साथ-साथ, उसकी सीमाओं के प्रति भी सचेत होना चाहिए और आगे बढ़ने का निर्णय करना चाहिए। अन्यथा अभियान का असर बहुत सीमित रहेगा और सबके लिए स्वास्थ्य और सबके लिए स्वास्थ्य सेवा का नारा एक सपना ही बना रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
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Srote - April 2025
- जन स्वास्थ्य अभियान के 25 वर्ष: उपलब्धियां और सीमाएं
- 20 सूत्रीय जन स्वास्थ्य चार्टर
- सबके लिए स्वास्थ्य हासिल करने ‘मिशन पॉसिबल’
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