एक महिला के लिए वैज्ञानिक बनने का मतलब है एक चुनौतीपूर्ण जीवन शैली को अपनाना! सफलता के लिए हर क्षेत्र - पेशेवर, व्यक्तिगत या सामाजिक - में उसे कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। यहां तक कि मात्र एक वैज्ञानिक माने जाने के लिए उसे अपने पुरुष सहकर्मियों से कहीं ज़्यादा काम करना पड़ता है। और एक पुरुष प्रधान समाज में इतना भर पर्याप्त नहीं होता। वास्तव, उसे चींटी की तरह काम करना पड़ता है, पुरुष की तरह व्यवहार करना पड़ता है और महिला बने रहना पड़ता है! एक महिला में बहुत अधिक आंतरिक शक्ति होती है, लेकिन उसे पहचानने की ज़रूरत होती है। इसके अलावा, एक महिला वैज्ञानिक को अपने पति, बच्चों और रिश्तेदारों से निरंतर समर्थन और बेहतर समझ की आवश्यकता होती है। एक वैज्ञानिक के रूप में उसे पूरी तरह से शोध में तल्लीन होना पड़ता है। यह चौबीस घंटे का काम है! मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूं कि मुझे बिना ना-नुकर के यह सब मिला।
आज जब मैं पीछे मुड़कर देखती हूं तो कह सकती हूं कि सीखने की मेरी इच्छा और दृढ़ता के कारण मैं अपने करियर में चुनौतियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकी, जिसके बीज बचपन में ही मेरे अंदर बो दिए गए थे। मुझे मुश्किल समस्याओं से जूझना पसंद था और उन्हें हल करने के लिए कड़ी मेहनत करना मुझे अच्छा लगता था।
वाई (महाराष्ट्र) के जिस स्कूल में मैं पढ़ी थी वह अच्छा स्कूल था लेकिन वहां भाषा और सामाजिक विज्ञान पर अधिक ज़ोर दिया जाता था। भौतिक विज्ञानों को उबाऊ और नीरस तरीके से पढ़ाया जाता था, लेकिन मेरा गणित के प्रति प्रेम पनप गया (श्री डब्ल्यू. एल. बापट और श्री पी. के. गुणे जैसे शिक्षकों का धन्यवाद, जिन्होंने मुझे प्रेरित किया।) इसलिए, मैंने आगे गणित की पढ़ाई करने के लिए पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में प्रवेश लिया। उसके बाद, मैंने भौतिकी विषय को चुना क्योंकि इसमें गणित का पर्याप्त दखल होता है।
आगे विज्ञान की पढ़ाई करने की असली प्रेरणा एम. आर. भिड़े (पुणे विश्वविद्यालय में भौतिकी विभाग के तत्कालीन प्रमुख) से मिली, जिन्होंने हमें ‘स्वयं विज्ञान करने’ को प्रेरित किया। उस समय उच्च शिक्षा और खासकर भौतिकी में उच्च शिक्षा हासिल करने वाली लड़कियों की संख्या बहुत कम थी। आश्चर्य की बात यह है कि वहां मात्र एक महिला शिक्षक थी, जो हमें शोध करने से निरुत्साहित किया करती थीं!
अपने पीएचडी कार्य के हिस्से के रूप में मैंने एक स्वचालित स्कैनिंग एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर डिज़ाइन और उसका निर्माण किया था। 1972 में हमारे यहां ऐसा करना आसान नहीं था! मैंने एक डिस्माउंटेबल एक्स-रे ट्यूब, उसके लिए एक उच्च वोल्टेज बिजली की आपूर्ति और स्कैनिंग स्पेक्ट्रोमीटर के लिए इलेक्ट्रॉनिक्स की व्यवस्था जमाई, और इसमें सर्किट बोर्ड को पेंट करने से लेकर डिज़ाइन उकेरने और विभिन्न पुर्ज़ों और इकाइयों को जोड़ने तक का काम किया! वर्तमान संदर्भ में शायद यह कोई बड़ी बात न लगे। लेकिन एक्स-रे जनरेटर को सचमुच काम करते हुए देखना और स्पेक्ट्रोमीटर को एक्स-रे की बारीक संरचना को रिकॉर्ड करते हुए देखना (जिस तरह से किताबों में बताया गया था) मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव था। इससे मुझे इससे मुझे भविष्य में कुछ अत्यंत जटिल और अत्याधुनिक उपकरणों पर काम करने का हौसला मिला।
प्रो. भिड़े और मेरे शोध पर्यवेक्षक प्रो. ए. एस. निगवेकर ने मुझे जर्मनी में पोस्ट डॉक्टरेट करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह एक ऐसा अवसर था जिसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मेरे पति नहीं चाहते थे कि मैं लंबे समय के लिए इतनी दूर जाऊं लेकिन सतह विज्ञान के एक नए, उभरते क्षेत्र में प्रवेश करने की अपनी प्रबल इच्छा का वास्ता देकर किसी तरह मैंने उन्हें मना लिया। मैंने उन्हें बताया कि कैसे पोस्टडॉक का अनुभव हमारे अपने विभाग में एक नई प्रयोगशाला स्थापित करने में मेरी मदद करेगा।
1977 में म्यूनिख की टेक्निकल युनिवर्सिटी में प्रो. मेंज़ेल की प्रयोगशाला में, लगभग 25 छात्रों और पोस्टडॉक के एक बड़े समूह में एक भी महिला छात्र, शिक्षक या पोस्टडॉक नहीं थी। यहां तक कि आज भी, बहुत कम महिलाएं हैं जो विज्ञान के क्षेत्र में काम करती हैं और उनमें से भी बहुत कम ही हैं जो सर्वोच्च पदों तक पहुंच पाती हैं।
1978 में मैं एक फैकल्टी सदस्य के रूप में पुणे विश्वविद्यालय में लौटी। सतह विज्ञान (सर्फेस साइंस) प्रयोगशाला स्थापित करने में मैंने अपना काफी समय लगाया। यह आसान नहीं था। तब ईमेल और यहां तक कि फैक्स जैसी सुविधाएं न होने के चलते संवाद करना काफी मुश्किल था। यह मेरे करियर का सबसे महत्वपूर्ण दौर था और प्रयोगशाला शुरू करने में अप्रत्याशित रूप से लम्बा समय लग गया। अंततः हमने अपने शोधकार्यों का प्रकाशन उच्च प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में शुरू किया। 
उतार-चढ़ाव आते रहते हैं, कभी-कभी सब ठीक चलता है, तो कभी-कभी आपके प्रयासों के बावजूद कुछ भी काम नहीं करता है। लेकिन आपको कभी भी हार नहीं माननी चाहिए।
मेरे विभाग का माहौल अच्छा रहा है। हर जगह की तरह यहां भी ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता जैसी चीज़ें रहीं, लेकिन वे मेरी प्रगति में कभी बाधा नहीं बनी! प्रो. भिड़े द्वारा स्थापित प्रगतिशील माहौल अब भी कायम है। और इस माहौल ने कई छात्राओं को विभाग में शामिल होने और शोध के लिए मेरे समूह में शामिल होने के लिए आकर्षित किया है। मैंने उन्हें विज्ञान में करियर बनाने के लिए भी प्रोत्साहित किया है।
विज्ञान की रचनात्मकता और चुनौती ने मुझे हमेशा रोमांचित किया है। मुझे तसल्ली है कि मैं सतह और पदार्थ विज्ञान की एक सुसज्जित प्रयोगशाला कम लागत में बना सकी हूं। जो लोग मुझे अच्छी तरह से नहीं जानते, वे सोचते होंगे कि मैं यह कैसे कर सकती हूं! क्या मेरा कोई परिवार नहीं है? वास्तव में एक महिला को अपने परिवार को पर्याप्त समय देना पड़ता है, खासकर, जब उसके बच्चे छोटे हों। लेकिन अगर वह काम की योजना ठीक से बनाती है, तो मुझे लगता है कि उसके पास हर चीज़ के लिए पर्याप्त समय होता है।
मेरे शोध करियर में हमेशा सब कुछ अच्छा नहीं रहा। ऐसे भी कई मौके आए जब मुझे चुनौतीपूर्ण ज़िम्मेदारियां दी गईं और मैंने उन्हें सफलतापूर्वक पूरा किया, लेकिन पुरस्कारों के समय पुरुष सहकर्मियों को प्राथमिकता दी गई! मैं सोचती हूं कि क्या यह एक महिला वैज्ञानिक होने की कीमत थी! कहावत है ना, “यही विधि का विधान था (यानी जो हुआ उसे स्वीकार लो, भले ही कुछ बुरा हुआ हो)।” आदर्श रूप से, विज्ञान में जेंडर जैसी कोई चीज़ नहीं होनी चाहिए और मैंने उस भावना के साथ ही काम करने की पूरी कोशिश की है। 
अपने अनुभव से, मैं कह सकती हूं कि महिलाएं कुशलतापूर्वक और रचनात्मक रूप से काम कर सकती हैं। न सिर्फ वे पुरुषों के बराबर अच्छा काम कर सकती हैं बल्कि पुरुषों से भी बेहतर कर सकती हैं। अगर महिलाओं को कम अवसर दिए जाते हैं तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए। अगर एक दरवाज़ा बंद होता है तो दूसरा खुल जाता है। उन्हें काम करते रहना चाहिए क्योंकि सही दिशा में लगातार मेहनत करने से ही पुरस्कार और संतुष्टि मिलती है। (स्रोत फीचर्स)
सुलभा के. कुलकर्णी का यह जीवन परिचय लीलावती'स डॉटर्स पुस्तक में उनके द्वारा लिखी गई अपनी एक संक्षिप्त जीवनी से लिया गया है।