भारत डोगरा

हिमालय के चिपको आंदोलन के बारे में तो सबने सुना है, पर अपेक्षाकृत बहुत कम लोग जानते हैं कि दक्षिण भारत, विशेषकर कर्नाटक, में चिपको आंदोलन से प्रेरित अप्पिको आंदोलन भी बहुत सफल रहा है। कन्नड़ भाषा में अप्पिको का अर्थ भी चिपको ही है। कर्नाटक से बाहर निकलकर पश्चिमी घाट के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में भी अप्पिको आंदोलन ने वन कटान रोकने में सफलता प्राप्त की है।
इस आंदोलन की शुरुआत 1980 के दशक में हुई थी जब उत्तर कन्नड ज़िले के गांववासियों ने अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इलाके के अमूल्य वनों को बचाने के लिए जगह-जगह पर पहल की थी।
इन प्रयासों में पांडुरंग हेगड़े नामक युवक की महत्वपूर्ण भूमिका रही। वे दिल्ली विश्वविद्यालय से सामाजिक कार्य के गोल्ड मेडलिस्ट रहे और उन्हें प्रधानमंत्री कार्यालय तक से जॉब ऑफर मिला, पर उन्होंने अपने गांव लौटकर वन बचाने का निश्चय किया। उसी गांव से जहां उन्होंने छोटे बच्चे के रूप में गाय-भैंसों को चराया था और तब पेड़ कटते देख व्यथित हुए थे।

अप्पिको आंदोलन को कम समय में ही अभूतपूर्व सफलता मिली थी जब वर्ष 1990 में कर्नाटक सरकार ने एक बहुत बड़े क्षेत्र में हरे पेड़ों की कटाई को रोकने की मांग स्वीकार कर ली थी। इसके बाद अप्पिको आंदोलन ने वृक्षों की रक्षा के लिए कई अन्य तरह के प्रयास जारी रखे। वृक्षों से ईंधन की लकड़ी लेने की ज़रूरत कम हो, इसके लिए अन्य ऊर्जा स्रोतों व बेहतर चूल्हे का प्रसार किया। इसके साथ अप्पिको आंदोलन ने इस बारे में जागरुकता फैलाई कि वनों से अपनी ज़रूरतों के वन उत्पाद लेते समय गांववासी इस बात का ध्यान रखें कि वनों की क्षति न हो।
वैसे अप्पिको आंदोलन ने गांववासियों के वन-अधिकारों की आवाज़ कई स्तरों पर उठाई पर साथ ही इस चेतना को फैलाया कि वनों की रक्षा करना सबसे ज़रूरी है। आंदोलन ने यह सोच जगह-जगह पर सामने रखी कि वन बचेंगेे तभी वन आधारित आजीविकाएं बचेंगी।
इस बारे में अप्पिको ने अनुसंधान कर यह तथ्यात्मक स्थिति सामने रखी कि पश्चिमी घाट के वनों की अनुपम जैव-विविधता के आधार पर इतने टिकाऊ रोज़गार मिल सकते हैं कि गांववासियों को रोज़गार की कोई कमी न रहे। अपने सीमित साधनों में वन आधारित उपज से अच्छी गुणवत्ता के दस्तकारी के उत्पाद भी अप्पिको ने तैयार किए।

अप्पिको आंदोलन ने मधुमक्खियों की रक्षा के लिए भी एक अभियान आरंभ किया व अनेक ग्रामीण युवाओं को पूरी तरह से शुद्ध शहद प्राप्त करने के तौर-तरीकों से जोड़ा।
इस बीच अप्पिको के कार्यक्षेत्र में ऐसी कई परियोजनाएं तेज़ी से आई जिनके लिए लाखों पेड़ों को काटना सरकार ने ज़रूरी माना। इस विकट स्थिति में भी अप्पिको ने अथक प्रयास किए कि वनों को होने वाली क्षति को न्यूनतम किया जा सके व यथासंभव स्थानीय गांववासियों के विस्थापन को भी न्यूनतम किया जाए। इनमें से कुछ प्रयासों में सफलता मिली तो किसी में नहीं मिली पर अप्पिको आंदोलन ने अपनी ओर से प्रयास अवश्य किए।
आज इस बारे में जागरूकता बढ़ रही है कि पश्चिमी घाट के वनों की रक्षा कितनी ज़रूरी है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पश्चिमी घाट के वनों की रक्षा में अप्पिको आंदोलन ने अमूल्य योगदान दिया है। (स्रोत फीचर्स)