डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

कुछ समय पूर्व की घटना है। जर्मनी में उत्तरी समुद्री किनारे पर स्थित पोर्ट ऑफ कक्सहैवन में एक नन्हा बालक खेलते-खेलते एक अजीबोगरीब प्राकृतिक दृश्य देख कर डर से चिल्लाता हुआ अपने घर की ओर वापस भागा। वह चिल्लाते हुए कह रहा था “मां! मां! एक टापू आकाश से गिरा आ रहा है।” उसकी मां पहले तो बच्चे की बात सुनकर अविश्वास से मुस्करा उठी, परंतु जैसे ही उसने खिड़की से झांककर बाहर देखा तो उसके चेहरे पर से मुस्कराहट गायब हो गई और वह भी सिहर गई।
उसने देखा कि समुद्री किनारे से कुछ ही दूर स्थित हेल्गोलैंड नामक छोटा टापू आकाश में उल्टा लटका हुआ है। टापू का दृश्य बिल्कुल वैसा ही था जैसा रोज़ दिखाई पड़ता था। अंतर सिर्फ यह था कि वह ज़मीन पर स्थित होने के बदले आकाश में उल्टा लटक रहा था। ऐसा मालूम पड़ता था मानो टापू आकाश में लटक कर झूल रहा है और किसी भी समय धरती पर गिर सकता है। परंतु टापू को न तो गिरना था और न गिरा। उसी दिन शाम तक वह दृश्य लुप्त हो गया। यह वस्तुत: एक मरीचिका थी। ऐसा दृश्य मरुस्थलों में अक्सर दिखाई देता है।

हेल्गोलैंड टापू का उपरोक्त दृश्य कक्सहैवन के आकाश में कई बार दिखाई पड़ा। ऐसे दृश्य संसार के अन्य कई स्थानों पर भी समय-समय पर दिखाई पड़ते हैं तथा लोगों को अचंभित व चमत्कृत कर देते हैं। आर्कटिक क्षेत्र के एक ऐसे ही दृश्य ने लगभग एक शताब्दी तक लोगों को काफी भ्रम में रखा। सन 1818 में स्कॉटलैंड के एक खोजकर्ता सर जॉन रॉस विचित्रिताओं से भरपूर ‘नॉर्थवेस्ट पैसेज’ की खोज में निकले। ऐसी मान्यता थी कि यह समुद्री रास्ता अटलांटिक महासागर तथा प्रशान्त महासागर को जोड़ता है। कनाडा में बैकिन द्वीप के उत्तर में रॉस ने अज्ञात जल क्षेत्र में प्रवेश किया। एक दिन पौ फटने के समय वे अपने जहाज़ के डेक पर गए तो देखा कि आगे का रास्ता एक बड़े पहाड़ से अवरुद्ध है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि वे एक अंधे रास्ते पर चल पड़े हैं। अत: वे उसी रास्ते पर वापस लौट गए। लौटकर उन्होंने लोगों को बताया कि तथाकथित नॉर्थवेस्ट पैसेज का अस्तित्व ही नहीं है।
इस घटना के लगभग सौ वर्ष बाद अमेरिका के ध्रुवीय खोजकर्ता रॉबर्ट पियरी ने भी एक ऐसी पर्वत श्रृंखला के अस्तित्व की सूचना दी जिसका सर्वेक्षण तब तक नहीं हुआ था। उन्होंने इस नई पर्वत श्रृंखला का नाम रखा ‘क्रोकरलैंड’।

उस समय तक संसार के वैज्ञानिकों एवं खोजकर्त्ताओं के मन में आर्कटिक क्षेत्र की रहस्यपूर्ण पर्वत श्रृंखला के बारे में काफी दिलचस्पी पैदा हो गई थी। लोग जानना चाहते थे कि उस पर्वत श्रृंखला के पीछे क्या है तथा वह पर्वत श्रृंखला ठीक-ठीक कहां पर स्थित है। उन्हें आशा थी कि इस पर्वत श्रृंखला में सोने का भंडार छिपा हो सकता है। साथ ही वहां कुछ अज्ञात जनजातियों का निवास भी हो सकता है। अनेक खोजकर्ताओं तथा साहसिक यात्रियों ने आर्कटिक क्षेत्र की यात्रा की, परंतु उपरोक्त पर्वत श्रृंखला के कहीं दर्शन नहीं हुए।
अंत में अमेरिकन म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री ने इस क्षेत्र में वैज्ञानिक अध्ययन के लिए अभियान दल भेजने हेतु तीन लाख डॉलर के अनुदान की स्वीकृति दी। इसके लिए जो अभियान दल भेजा गया उसके मुखिया थे डोनाल्ड मैकमिलन। जब अभियान दल उस क्षेत्र में गया, जहां पियरी द्वारा एक पर्वत श्रृंखला की उपस्थिति की सूचना दी गई थी, तो उन्हें कोई पर्वत श्रृंखला नहीं दिखाई पड़ी। अलबत्ता, वहां बर्फ की कुछ चट्टानें दिखाई पड़ीं। जहां पियरी द्वारा गहरी तथा चौड़ी जलधारा की सूचना दी गई थी, वहां बर्फ की परतदार चट्टानें मौजूद थी। अंत में उस अभियान दल को तथाकथित क्रोकरलैंड दिखाई पड़ा, परंतु वह पियरी द्वारा बताए गए स्थान से लगभग 300 किलोमीटर पश्चिम में स्थित था।

जैसे ही क्रोकरलैंड के दर्शन हुए मैकमिलन खुशी से गदगद हो गए तथा अपने जहाज़ को उस दिशा में बढ़ा दिया। जहाज़ चलाने में काफी कठिनाई हो रही थी क्योंकि रास्ता बर्फ की तैरती चट्टानों से भरा हुआ था। जहां तक सम्भव हुआ मैकमिलन अपने जहाज़ को उस पर्वत श्रृंखला की ओर बढ़ाते रहे। अंत में उन्होंने लंगर डाल दिया तथा अपने कुछ चुनिन्दा साथियों के साथ बर्फीले रास्ते से पैदल ही चल पड़े।
वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते जाते थे, वह पर्वत श्रृंखला भी उनसे दूर हटती मालूम पड़ती थी। जब वे रुक जाते तो वह पर्वत श्रृंखला भी स्थिर हो जाती थी। इस पर्वत की बर्फीली चोटियां धूप में चमक रही थीं। शाम होने वाली थी। अभियान दल के लोग थककर चूर हो चुके थे। सहसा सूर्य अस्त हो गया तो ऐसा मालूम पड़ा जैसे पूरी पर्वत श्रृंखला लुप्त हो गई हो। ऐसा लगा जैसे कोई जादू का खेल हो। अब वहां न तो कोई पर्वत श्रृंखला थी, न कोई पर्वत चोटी। चारों ओर सिर्फ बर्फ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। मैकमिलन तथा उनके साथी चमत्कृत तथा किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े थे। वे प्रकृति द्वारा किए गए एक जादू का शिकार हो चुके थे। वस्तुत: वह पर्वत श्रृंखला एक मरीचिका थी।

प्रश्न यह उठता है कि मरीचिका है क्या तथा इसका निर्माण कैसे होता है? मरीचिका वस्तुत: प्रकाश से सम्बंधित एक भ्रम है। यह विशिष्ट वायुमंडलीय परिस्थिति में उस समय उत्पन्न होती है जब प्रकाश की किरणें मुड़ती हैं (अर्थात अपवर्तित होती हैं)। प्रकाश किरणों का अपवर्तन तब होता है जब वे अलग-अलग माध्यमों में से गुज़रती हैं। अलग-अलग तापमान वाली वायु की विभिन्न परतें भी एक मायने में अलग-अलग माध्यम ही हैं। अलग-अलग तापमान वाली वायु की परतों का घनत्व अलग-अलग होता है। उदाहरणार्थ एक मरुस्थल की कल्पना करें, जहां सूर्य की किरणों से बालू तप गई हो तथा इस बालू ने अपने सम्पर्क में आने वाली वायु की परत को तपा दिया हो। बालू के पास वाली गर्म वायु की पतली परत के ऊपर ठंडी हवा की परतें मौजूद रहती हैं। गर्म हवा ठंडी हवा की तुलना में कम सघन होती है। विभिन्न घनत्व वाली वायु की परतों की सीमा रेखा को पार करते समय प्रकाश किरणें अपने सरल रेखीय पथ से मुड़ जाती हैं।
अब मान लिया जाए कि कोई पर्यवेक्षक किसी मरुस्थल में बालू के एक टीले पर खड़ा है। इस पर्यवेक्षक से कुछ दूरी पर बालू के एक अन्य टीले पर खजूर के कुछ पेड़ हैं। इन दोनों टीलों के बीच हवा की अलग-अलग तापमान वाली परतें होंगी। ऐसी स्थिति में पर्यवेक्षक को खजूर के पेड़ों के एक झुरमुट की जगह दो झुरमुट दिखाई पड़ेंगे। एक बिम्ब तो सामान्य तरीके से दिखाई देगा। जिसमें प्रकाश किरणें दोनों टीलों के बीच हवा की परत से सीधे चल कर आएगी। इसमें खजूर के पेड़ सीधे खड़े दिखाई देंगे। दूसरे झुरमुट में खजूर के पेड़ों के उल्टे बिम्ब दिखाई देंगे। यह उल्टा बिम्ब उन किरणों द्वारा निर्मित होता है जो एक अपवर्तित पथ से गुज़र कर आती हैं और पर्यवेक्षक की आंखों तक पहुंचती हैं। इसके कारण उल्टा बिम्ब दिखाई देता है। इसी के साथ आकाश से आने वाली किरणें भी गर्म हवा की परतों से अपवर्तित होकर पर्यवेक्षक की आंखों में पहुंचती हैं तथा नीले आकाश के प्रतिबिम्ब के रूप में पानी की उपस्थिति का भ्रम पैदा करती हैं। इस दृश्य से किसी भी पर्यवेक्षक को यह भ्रम पैदा हो जाता है कि खजूर के पेड़ पानी में खड़े हैं जिनका उल्टा प्रतिबिम्ब दिखाई दे रहा है।

गर्म क्षेत्रों में सड़क द्वारा यात्रा करते समय कभी-कभी इसी प्रकार सड़क से कुछ दूरी पर पानी से भरे छोटे-छोटे गड्ढों की उपस्थिति का भ्रम होता है। यह वस्तुत: मरीचिका ही है। मरुस्थल में ऐसा भ्रम प्राय: पैदा होता है तथा पर्यवेक्षक पानी समझ कर उसकी ओर लपकता है तथा निराश होता है। वस्तुत: पर्यवेक्षक द्वारा देखा गया यह दृश्य न तो उसका मनगढ़ंत होता है और न उसका वहम। बल्कि यह अपवर्तन का करिश्मा होता है। अरब देशों में इस दृश्य को ‘बहर अल शैतान’ कहा जाता है जिसका अर्थ है शैतान की झील।
उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी पश्चिमी भाग में स्थित मरुस्थल भी ऐसी मरीचिकाओं के लिए चर्चित हैं। इस सम्बंध में ऐरीज़ोना में कोचिज़ काउंटी के निवासियों द्वारा एक करुण कहानी सुनाई जाती है। यहां रेल्वे लाइन के किनारे 15 किलोमीटर लंबी झील है। इस झील में जाड़े तथा गर्मी दोनों ऋतुओं में पानी दिखाई देता है। परंतु वास्तविकता यह है कि ग्रीष्म ऋतु में यह झील सूखी हुई रहती है। ग्रीष्म ऋतु में अपवर्तन के कारण जल की उपस्थिति का भ्रम पैदा होता है। एक बार की घटना है कि एक समुद्री वायुयान चालक जिसने जाड़े की ऋतु में इस झील में पानी देखा था, गर्मी के मौसम में इधर से गुज़र रहा था। जब वह इस झील के ऊपर आया तो उसे वहां पानी लहराता हुआ दिखाई पड़ा। यह वस्तुत: एक भ्रम था। परंतु वायुयान चालक को पूरा विश्वास था कि वहां पानी मौजूद है। वह अपने वायुयान को इस झील में उतारने के प्रयास में झील की सूखी ज़मीन से जा टकराया। परिणामस्वरूप उसका वायुयान टुकड़े-टुकड़े हो गया, और चालक की मृत्यु हो गई।

प्रथम विश्वयुद्ध के समय की एक घटना है। इंग्लैंड तथा तुर्की के बीच लड़ाई चल रही थी। इसी दौरान एक मरीचिका निर्मित हो गई जिसके कारण ब्रिटिश आर्टिलरी को अपनी फायरिंग रोकनी पड़ी। हुआ यह था कि एक अपवर्तन निर्मित पहाड़ी का दृश्य आर्टिलरी सैनिकों के सामने उपस्थित हो गया जिसने शत्रु के ठिकानों को पूरी तरह छिपा देने का काम किया।
सन 1798 में जब नेपोलियन की सेना मिस्र पहुंची तो उसे वहां मरीचिका का सामना करना पड़ा। इस मरीचिका के कारण वहां का भू-दृश्य उल्टा-पुल्टा दिखाई पड़ने लगा। झीलें लापता होने लगीं तथा घासें ताड़ के समान दिखाई देने लगीं। नेपोलियन के सैनिक किंकर्र्तव्यविमूढ़ होने लगे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है। परंतु उसकी सेना में गास्पार्ड मौंगे नामक एक गणितज्ञ ने मरीचिका के रहस्य की व्याख्या की तो सैनिकों की जान में जान आई। (स्रोत फीचर्स)