वाय. माधवी

वैज्ञानिक साहित्य में यह बात अधिक से अधिक स्पष्ट होती जा रही है कि भारत में टीकाकरण की प्रमुख त्रासदी यह है कि हमारे पास पालकों के इस सरल-से सवाल का कोई सीधा-सा जवाब नहीं है कि एक बच्चे को कितने टीकों की ज़रूरत होती है। आज स्थिति यह है कि पालकों के सामने टीकों की बढ़ती फेहरिस्त है, उनके तमाम मिश्रण हैं और आसमान छूती उनकी कीमतें हैं और यह मासूम-सा सवाल है। और तो और, इस सवाल का जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि इसे किससे पूछा जा रहा है। सरकारी शिशु रोग विशेषज्ञ तो सरकार द्वारा अनुशंसित सूची के अनुसार चलेंगे। दूसरी ओर, निजी चिकित्सक उनकी अपनी अकादमियों/संगठनों की सिफारिशों का सहारा लेंगे।

सरकार और अकादमियां, दोनों ही कमोबेश उद्योगों द्वारा उत्पादित व प्रोत्साहित या उद्योगों द्वारा वित्त-पोषित राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठनों द्वारा प्रदत्त जानकारी पर निर्भर रहे हैं। इनमें विश्व स्वास्थ्य संगठन भी शामिल है। लिहाज़ा, पालकों के सवाल का सबसे सीधा उत्तर यही होगा कि उद्योगों द्वारा उत्पादित हर टीका हर बच्चे को दिया जाना चाहिए, चाहे ज़रूरत हो या न हो।
किंतु यह जवाब बहुत विश्वसनीय नहीं लगता और पालक शायद ही इसे स्वीकार करें। इसीलिए इस सवाल का सीधा जवाब कभी नहीं दिया जाता। इसे विडंबना ही कहेंगे कि एक ओर तो नए-नए टीकों की भरमार है, वहीं दूसरी ओर, सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में सूचीबद्ध ज़रूरी टीकों का लगातार अभाव बना हुआ है। सरकारी सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम का कवरेज मात्र 60 प्रतिशत है।

इसलिए, सबके लिए टीके का लक्ष्य हासिल करने की बजाय हर नया टीका उन लोगों तक पहुंचाने की होड़ लगी है, जो आपकी पहुंच में हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस आपूर्ति-आधारित तरीके की आलोचना करते रहे हैं और मांग-आधारित नज़रिए की वकालत करते हैं ताकि नए टीकों की ज़रूरत को बीमारी के बोझ, लागत और लाभ, जोखिम और लाभ तथा बीमारी की रोकथाम में उनकी प्रभाविता के आधार पर निर्धारित किया जा सके। मगर कोई सुन रहा है क्या?

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश-विश्व बैंक द्वारा सुझाए गए सरकारी खर्च में मितव्ययिता के उपायों की मेहरबानी से, आज मात्र वित्तीय अड़चनों के कारण कई नए टीके सरकारी सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल नहीं किए हैं जबकि टीकाकरण सम्बंधी राष्ट्रीय तकनीकी समूह (NTAGI) ने इनकी अनुशंसा की है। किंतु चूंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन सारे टीकों का प्रचार-प्रसार करता है और सरकार किसी टीके को स्पष्ट रूप से ‘सार्वजनिक टीकाकरण के लिए गैर-ज़रूरी’ घोषित नहीं करती, इसलिए निजी चिकित्सकों की बन आती है और वे हर उस व्यक्ति को नया टीका देने को तत्पर रहते हैं जो उसकी कीमत चुका सके। इसके लिए उन्हें उद्योगों से तो भारी-भरकम लाभ मिलते ही हैं, पालकों से भी अच्छा मुनाफा मिल जाता है।

इस मामले में जानकारी से लैस और प्रमाण-आधारित चिकित्सा के प्रति समर्पित वैज्ञानिक समुदाय हस्तक्षेप करके हालात बदल सकता है। अतीत में ऐसा किया गया है और इस संदर्भ में काफी सारा वैज्ञानिक साहित्य उपलब्ध है। अलबत्ता, चिकित्सा समुदाय में कई ऐसे लोग हैं जो जाने-अनजाने एक कृत्रिम आम सहमति के जाल में फंस जाते हैं।

उपरोक्त तौर-तरीकों को जायज़ ठहराने के लिए पिछले एक दशक में कई नए-नए जुम्ले टीकाकरण की शब्दावली में जुड़े हैं - जैसे, टीकों से रोकथाम योग्य बीमारियां, नवाचारी वित्तपोषण, विपणन का अग्रिम वायदा, निजी-सार्वजनिक साझेगारी वगैरह। दूसरी ओर, चुनिंदा टीकाकरण जैसे शब्द गुम हो गए हैं। आजकल बड़े-बड़े दावों और यहां तक कि गुमराह करने वाले शब्दों की अनुमति मिलने लगी है - जैसे कॉकटेल वैक्सीन (मिश्रित टीके) को मल्टीवेलेंट टीका कहना मान्य हो चला है, रोटावायरस-रोधी टीके को दस्त-रोधी टीका कहा जा रहा है, न्यूमोकोकल बैक्टीरिया-रोधी टीके को निमोनिया-रोधी टीका बताया जा रहा है, मेनिंगोकोकल-रोधी टीके को मेनिंजाइटिस-रोधी टीका तथा एचपीवी-रोधी टीके को सर्वाइकल कैंसर से बचाव का टीका बताया जा रहा है। वास्तव में भारत में किए गए हाल के अनुसंधान से स्पष्ट हुआ है कि ‘उपेक्षित व उभरते’ एंटरोवायरस भी रोटावायरस के समान दस्त पैदा कर सकते हैं व गैर-पोलियो लकवे का कारण भी हो सकते हैं।

स्थितियां हमेशा से ऐसी नहीं थी। ब्रिाटिश शासन के दौरान, भारत टीकों और एंटी-सीरम के विकास व उत्पादन के मामले में अग्रणी था। स्वतंत्रता के दशकों बाद तक टीका उत्पादन के क्षेत्र में सार्वजनिक क्षेत्र का लगभग एकाधिकार था और टीकों की कीमतें एक वित्तीय बोझ नहीं थीं। किंतु उदारीकरण, निजीकरण और वै·ाीकरण के बाद टीकाकरण का पूरा नज़ारा ही बदल गया। सार्वजनिक क्षेत्र की व्यवस्थित रूप से उपेक्षा की गई और उसे बंद किया गया। दूसरी ओर, निजी क्षेत्र उसकी कीमत पर फलता-फूलता रहा। किंतु सरकार ने सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में टीकों के अभाव की पूर्ति करने की बजाय नए-नए टीकों और उनके मिश्रणों पर ज़ोर दिया।

कुछ नए टीकों, जिनकी पेटेंट अवधि बीत चुकी थी, के जेनेरिक संस्करण के घरेलू उत्पादन तथा सरकारी खरीद की विशालता की वजह से कीमतों में गिरावट ज़रूर हुई है किंतु ये आज भी सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल टीकों से कई गुना महंगे हैं। बचपन के टीकों की बढ़ती तादाद के साथ वयस्क टीकों के जुड़ जाने से सरकार पर दबाव बढ़ा है कि सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में नए-नए टीकों को शामिल करने के लिए अपना बजट बढ़ाए। बुनियादी सवाल तो यह है कि क्या इन सारे नए-नए टीकों की ज़रूरत है या नहीं और क्या इनकी ज़रूरत को साबित कर दिया गया है। मगर इस बुनियादी सवाल को टालना सबके लिए सुविधाजनक लगता है, सिवाय पालकों के।

इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उद्योगों द्वारा मिश्रित टीकों के मामले में अपनाए गए ‘नए टीके जोड़ो, कीमतें बढ़ाओ’ के तरीके ने सरकार का वित्तीय बोझ बढ़ाया है। इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम के टीकों के साथ अन्य टीकों के मिश्रणों को लेकर किसी भी नियमन के अभाव में हुआ यह है कि सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में कई टीके पिछले दरवाज़े से मिश्रण के रूप में प्रवेश पा चुके हैं।

लिहाज़ा, यदि सरकार सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम के लिए एक-एक टीके को सार्वजनिक क्षेत्र से अलग-अलग खरीदने की बजाय, निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादित मिश्रण खरीद रही है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह भी कोई अचरज की बात नहीं है कि सार्वजनिक क्षेत्र को मात्र निजी क्षेत्र द्वारा उत्पादित टीकों का कच्चा माल सप्लाई करने की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है। निजी क्षेत्र इन टीकों को सार्वजनिक क्षेत्र से सस्ते दामों पर खरीदकर भारी-भरकम ‘मूल्य-वर्धित’ कीमतों पर बेचता है। आज मुद्दा हमारे खरीद बजट को वर्तमान सैकड़ों करोड़ से बढ़ाकर हज़ारों करोड़ करने का नहीं है, बल्कि यह है कि इस बजट का बड़ा हिस्सा किन उद्योगों के पास जाएगा। मामला ‘मुक्त बाज़ार’ की ओर कदम बढ़ाने का भी नहीं है क्योंकि न तो टीका बाज़ार मुक्त बाज़ार है और न ही इस बाज़ार में उपभोक्ता के पास चुनाव की आज़ादी है। दरअसल यह मुद्दा हितों के बढ़ते टकराव का है।

भारत सरकार दुनिया भर में टीकों की सबसे बड़ी खरीददार है और इस नाते हम उम्मीद करते हैं कि वह इस मामले में अपने स्वयंभू निर्णय लेने को स्वतंत्र है। और तो और, वह अपनी ज़रूरतों के मुताबिक बाज़ार को ढालने की भी क्षमता रखती है, खास तौर से तब, जब ऐसे निर्णय के लिए ज़रूरी सारी तकनीकी-आर्थिक विशेषज्ञता देश के अंदर ही उपलब्ध है। सरकार उद्योगों से वित्तपोषित कई सारे गैर सरकारी संगठनों और अंतर्राष्ट्रीय गठबंधनों के साथ काम करती है। बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन, पाथ, इंटरनेशनल एड्स वैक्सीन इनिशिएटिव, चाइल्ड वैक्सीन इनिशिएटिव, मलेरिया वैक्सीन इनिशिएटिव जैसे समस्त अंतर्राष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन नए व मिश्रित टीकों की वकालत करते हैं। वे इनकी सिफारिश न सिर्फ कई सरकारों को बल्कि विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ तथा अन्य बहुपक्षीय स्वास्थ्य संस्थाओं को भी करते हैं। इस तरह के संगठनों के करीब एक सैकड़ा कर्मचारी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ नज़दीकी से काम करते हैं, और कभी-कभी तो एक ही छत के नीचे।

राष्ट्रीय टीकाकरण तकनीकी सलाहकार समूह के टीकाकरण तकनीकी उपसमूह (NTAGI) का पूरा वित्तपोषण बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन द्वारा किया जाता है। NTAGI टीकाकरण को लेकर भारत सरकार की सर्वोच्च सलाहकार समिति है। वैसे औपचारिक रूप से इसका कामकाज 2012 में स्थापित एक भारतीय गैर सरकारी संगठन - पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया - द्वारा किया जाता है। आजकल के राष्ट्रवाद और विदेशी वित्त-पोषित गैर सरकारी संगठनों की गहन छानबीन के युग में भी उन गैर सरकारी संगठनों को किसी जांच का सामना नहीं करना पड़ा है जो स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ हिल-मिलकर काम कर रहे हैं।

जिस तरह से टीकों और टीका उद्योग की प्रकृति बदली है, उसी तरह से वैज्ञानिक प्रमाण की प्रकृति भी बदली है और टीकाकरण के नीति निर्माण के गलियारों में इन प्रमाणों के उपयोग को लेकर सोच में भी ज़बरदस्त बदलाव आ रहा है। कठोर प्रमाणों का इन्तज़ार करना आजकल टीका सम्बंधी निर्णयों के मार्ग में ‘बाधा’ माना जाने लगा है। भारत जैसे देश में भी यह स्थिति है जहां ऐसे प्रमाणों को जुटाने के लिए तकनीकी क्षमता भी है और ज़रूरी मानव संसाधन तथा पैसा भी है। सार्वजनिक टीकाकरण कार्यक्रम में नए टीके शामिल करने सम्बंधी विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशानिर्देशों में कहा गया है कि सरकार को उपलब्ध आंकड़ों, गणितीय मॉडल्स या सामाजिक, जनांकिक व पर्यावरणीय रूप से समान अन्य देशों के आंकड़ों का उपयोग करना चाहिए। यदि बीमारी के प्रकोप सम्बंधी प्रमाण नहीं हैं तो सरकार को प्रमाणों की गुणवत्ता के आकलन हेतु व्यवस्था बनानी चाहिए। उदाहरण के लिए दिशानिर्देशों में कहा गया है कि “अत्यंत कम गुणवत्ता के प्रमाणों के आधार पर ज़ोरदार सिफारिश करना संभव है क्योंकि वास्तव में सारे कारकों का मिला-जुला परिणाम महत्वपूर्ण होता है।”

विश्व स्वास्थ्य संगठन का यह नज़रिया पूर्व में स्वयं उसके द्वारा की गई इस अनुशंसा के विपरीत है कि हेपेटाइटिस-बी के खिलाफ सबको टीका देने की नीति अपनाने के लिए बीमारी का प्रकोप कम से कम 2 प्रतिशत होना चाहिए। इस सिफारिश को अब छोड़ दिया गया है। अब बीमारी के प्रकोप की बजाय महत्वपूर्ण यह हो गया है कि टीका कितना सुरक्षित है और कितना असरकारक है।
अलबत्ता, परिभाषाएं बदलने की विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्रवृत्ति तब सबसे स्पष्ट नज़र आई जब उसने 2010 में H1N1 को एक वैश्विक महामारी घोषित करने के लिए थोड़ी कमज़ोर कसौटी का सहारा लिया था। परिणाम यह हुआ कि सरकारें एक बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा उत्पादित टैमिफ्लू का टनों स्टॉक जमा करने को विवश हो गर्इं। बाद में पता चला कि न तो H1N1 ने अधिक लोगों को प्रभावित किया था और न ही टैमिफ्लू इसके खिलाफ कारगर था।

इसी प्रकार से, विश्व स्वास्थ्य संगठन/सीएसआईएमओएस ने टीकाकरण के बाद प्रतिकूल असर की परिभाषा को भी बदल दिया। पहले टीकाकरण के बाद होने वाले प्रभावों का वर्गीकरण ब्रिाटन प्रणाली में ‘संभावित’, ‘संभव’ और ‘शायद’ के रूप में किया जाता था। नए वर्गीकरण के मुताबिक इन्हें ‘गैर-टीका प्रभाव’, ‘असम्बंधित’ और ‘असंभावित’ कहा जाता है। नई परिभाषा के तहत टीके और क्षति के बीच कार्य-कारण सम्बंध स्थापित करना असंभव हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप कंपनियां और सरकार टीकों से होने वाली क्षति का मुआवज़ा देने से बच जाती हैं। इस तरह की कार्रवाई से जैव-सुरक्षा और नैतिकता दोनों के साथ समझौता किया जाता है।

बदकिस्मती से, राष्ट्रीय टीकाकरण नीति के लिए आईसीएमआर-निस्टैड्स के ढांचे में इन मुद्दों को संबोधित करने की बजाय सरकार ने टीकाकरण की एक ऐसी नीति अपनाई है जो वर्तमान तौर-तरीकों को ही जायज़ ठहराती है। इस मामले में वैज्ञानिकों, संसदीय समिति, सरकारी समिति की रिपोर्ट, मीडिया और हाई कोर्ट ने सरकार पर सवाल भी उठाए थे। अब यह साबित करना सरकार, चिकित्सा बिरादरी, वैज्ञानिक समुदाय तथा व्यापक सिविल सोसायटी पर है कि हम एक कठपुतली गणतंत्र नहीं हैं और अपने लोगों के स्वास्थ्य की सुरक्षा अपनी शर्तों पर करने में समर्थ हैं तथा बगैर भय या पक्षपात के पालकों के सवालों के जवाब दे सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)