इंसानों ने गढ़ा, जीवों ने हल खोजा
डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

अफ्रीका के छोटे से स्थल-बद्ध देश रवांडा ने पिछले कुछ वर्षों से प्लास्टिक की थैलियों पर प्रतिबंध लगा दिया है। इसकी वजह से यह युद्ध-ग्रस्त क्षेत्र बहुत साफ बन गया है। हाल ही में कीन्या ने भी प्लास्टिक थैलियों पर प्रतिबंध की घोषणा कर दी है और इसके लिए सज़ा भी मुकर्रर की है - 4 साल की कैद या 40,000 डॉलर ज़ुर्माना। कीन्या के समुद्र तट प्लास्टिक कचरे के पहाड़ बन गए हैं जिसकी वजह से ज़मीन पर और समुद्र के अंदर जीवन मुश्किल हो गया है। अफ्रीका का एक और राष्ट्र मोरक्को, जिसका समुद्र तट 1800 कि.मी. का है, ने भी लगभग एक दशक पहले इस तरह का प्रतिबंध लगाया था। अब भारत को जागने की ज़रूरत है। हमारा समुद्र तट 7500 कि.मी. है और हमें अफ्रीकन देशों से सीखकर प्लास्टिक थैलियों और इससे सम्बंधित सामानों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए, इससे पहले कि इस मानव निर्मित आपदा से हम अपने समुद्र तटों और ज़मीन का गला घोंट दें।

सन 2014 में योजना आयोग द्वारा प्लास्टिक प्रदूषण के लिए गठित टॉस्क फोर्स ने अनुमान लगाया था कि देश भर के 60 शहरों द्वारा प्रतिदिन लगभग 15,000 टन कचरा उत्पन्न किया जाता है यानी लगभग 60 लाख टन प्रति वर्ष। हम हर रोज़ रास्तों पर से गुज़रते हुए यही तो देखते हैं। मवेशी व अन्य जानवर सड़कों पर घूमते हुए अनजाने में प्लास्टिक की चीज़ें खा लेते हैं, जो पचती नहीं हैं बल्कि उनके पेट में पड़ी रहती हैं। इसके कारण गाय और भैंस जैसे जुगाली करने वाले जानवर धीमी और दर्दनाक मृत्यु का सामना करते हैं। पवित्र गाय का अपवित्र अंत।

यह ढेर जो हम रोज़ाना देखते हैं, वह समस्या का केवल एक अंश मात्र है। इससे भी कहीं ज़्यादा और अदृश्य आपदा पानी के अंदर है। पूरे विश्व के प्लास्टिक कचरे के बहुत बड़े हिस्से का अंत समुद्र में होता है। वही समुद्र जो पृथ्वी की 70 प्रतिशत सतह पर फैले हैं और जिनमें धरती का 97 प्रतिशत पानी पाया जाता है। प्रति दिन समुद्रों में पहुंचने वाला प्लास्टिक मलबा 80 लाख टन है - प्रति मिनट एक ट्रक भरकर। इसका मतलब है कि 2050 तक विश्व के समुद्रों में मछलियों से ज़्यादा प्लास्टिक होगा।

विज्ञान इसके लिए क्या कर सकता है? हाल ही में बार्सेलोना (स्पैन) में पॉम्पेयू फैब्राा युनिवर्सिटी के प्रोफेसर रिचर्ड सॉल द्वारा बहुत ही दिलचस्प सैद्धांतिक विश्लेषण किया गया है। उन्होंने अनुमान लगाया है कि भारी मात्रा में समुद्रों में फेंकी जाने वाली प्लास्टिक सामग्री का केवल 1 प्रतिशत ही समुद्र सतह पर तैरता रहता है। बाकी गहराइयों में डूब जाता है या धीरे-धीरे सड़ता-विघटित होता रहता है। समुद्र में कौन-से पौधे, जंतु या सूक्ष्मजीव यह काम करते हैं? और यदि हम उन्हें पहचान पाते हैं तो हमारे पास इस समस्या का कम-से-कम एक जैविक समाधान हो सकता है। इसके बारे में इस लिंक (http://www.dailymail.co.uk/sciencetech/article-4555014/Plastic-eating-microbes-evolved-ocean) पर पढ़ सकते हैं।

प्लास्टिक का पाचन
ऐसी जीव प्रजातियों को पहचानने, पृथक करने और अध्ययन के लिए कुछ रोचक शोध किए हैं जो प्लास्टिक को पचाकर छोटे-छोटे अणुओं में तोड़कर उन्हें सुरक्षित उपयोग के लायक अणुओं में बदल देते हैं। अब तक पहचानी गर्इं कुछ प्रजातियों में कवक और बैक्टीरिया हैं। इस तरह के जीवों पर एक प्रारंभिक समीक्षा ‘प्लास्टिक का जैव विघटन’ वीआईटी वैल्लोर के ए. मुतुकुमार और एस. विरप्पनपिल्लई द्वारा की गई है। उन्होंने सूक्ष्मजीवों की 32 प्रजातियां सूचीबद्ध की हैं जो विभिन्न प्रकार के प्लास्टिक जैसे - पानी की बोतलें, प्लास्टिक बैग, औद्योगिक सामग्री और इसी तरह की अन्य चीज़ों का पाचन करते हैं। और भारतीय तटों के लिए प्रासंगिक एक रिपोर्ट तिरुची के भारतीदासन विश्वविद्यालय की संगीता देवी और अन्य ने सन 2015 में प्रस्तुत की थी। उन्होंने पाया कि मन्नार खाड़ी के पानी में पाई जाने वाली एस्परजिलस कवक के दो स्ट्रैन एचडीपीई (हाई डेंसिटी पोली एथिलीन) प्लास्टिक का पाचन करते हैं। एचडीपीई दूध और फलों के रस की बोतलों, कैरीबैग्स और इसी तरह की अन्य चीज़ों को बनाने में इस्तेमाल होता है।

ये कवक कुछ एंज़ाइम छोड़ते हैं जो एचडीपीई का पाचन करते हैं अर्थात प्लास्टिक के पोलीमर अणु को छोटे-छोटे अणुओं में तोड़ देते हैं। इन्हीं एंज़ाइमों का अध्ययन विस्तार में तिरुची समूह द्वारा किया जा रहा है। यह स्पष्ट है कि समुद्री जीवों पर और अध्ययन करने से अधिक सूक्ष्मजीवों की पहचान होगी जो पॉलीमरिक और प्लास्टिक अपशिष्टों का पाचन करने में सक्षम होंगे। यह भी संभव है कि इनके करीबी रिश्तेदार ज़मीन पर मौजूद हों जो इन अपशिष्टों का पाचन कर सकते हों। और एक बार जब हम इन प्लास्टिक-भक्षी जीवों के बुनियादी जीव विज्ञान और जेनेटिक्स का अध्ययन कर लेंगे तो फिर हम इनमें आनुवंशिक परिवर्तन करके इन्हें और ज़्यादा सक्षम और विभिन्न प्रकार के अपशिष्टों को संभालने के लिए तैयार कर सकेंगे।

कचरे की ऐसी किस्मों पर और भी जानकारी उपलब्ध हो रही है जिन्हें सूक्ष्मजीवों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है। मार्च 2016 में क्योटो विश्वविद्यालय के एक समूह को एक सूक्ष्मजीव आइडियोनिला सकाइनेसिस (Ideonella sakainesis) से दो एंज़ाइम्स मिले हैं। यह पॉलीमर पीईटी को अपने मूल मोनोमेरिक अणुओं टेरेफ्थेलिक अम्ल और एथिलीन ग्लाइकॉल में तोड़ने में सक्षम है। ये सूक्ष्मजीव मिट्टी, तलछट, गंदे पानी जैसी जगहों में पाए जाते हैं।
हाल ही में पाकिस्तान, श्रीलंका और चीन के वैज्ञानिकों ने मिलकर एक अध्ययन किया है जिसमें यह बताया गया है कि कवक एस्परजिलस ट्यूबिजेंसिस (Aspergillus tubigensis) पॉलीयूरेथेन का पाचन करती है। पॉलीयूरेथेन का इस्तेमाल कारों के टायर, गास्केट, बंपर्स, रेशे, प्लास्टिक फोम, कृत्रिम चमड़ा वगैरह के निर्माण में होता है। शोधकर्ताओं के समूह ने इस जीव को इस्लामाबाद के सामान्य शहरी कचरा निपटान स्थल पर पाया। उनका कहना है कि बहुत संभावना है कि भारत के भी कई स्थानों पर यह जीव उपस्थित होगा।

एक सनकी मसखरे ने एक बार कहा था: विज्ञान ने जो बनाया है, वही उससे निजात दिलाए। ऐसा लगता है कि चाहे ज़मीन या पानी (या आसमान) हो, अगर हम एकाग्रता से काम करेंगे तो हम ऐसे प्लास्टिक-पचाने वाले जीवों की खोज अवश्य कर पाएंगे और इस तरह की समस्या से निजात पाने की कोशिश कर पाएंगे। और तो और, हम उन्हें अपने उद्देश्य के अनुसार आनुवंशिक रूप से संशोधित भी कर सकते हैं। इस प्रकार के शोध से न केवल ज़मीनी जीवन को बल्कि पानी के अंदर रहने वाले जीवन को भी फायदा मिलेगा। विडंबना यह होगी कि शायद प्लास्टिक को सुरक्षित रूप से नष्ट करने के काम को नोबेल पुरस्कार मिले, जैसे पहली बार प्लास्टिक के निर्माण पर मिला था। (स्रोत फीचर्स)