विगत 3 मार्च को पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने भारतीय नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन की जनगणना सम्बंधी अध्ययन के निष्कर्ष जारी किए; डॉल्फिन की संख्या 6327 पाई गई है। टारपीडो जैसे शरीर वाले ये चंचल जीव जब भी दिखते हैं, दर्शकों को रोमांचित कर देते हैं। उन्हें देखने लोग उमड़ पड़ते हैं। शहरी किशोर उन्हें ‘प्यारा' (क्यूट) कहते हैं।
नदी डॉल्फिन दो तरह की होती हैं। एक, ऐच्छिक (फैकल्टेटिव) नदी डॉल्फिन, जो खारे पानी और मीठे पानी दोनों में रहती हैं। भारत में, इरावदी (या इरावती) डॉल्फिन चिल्का झील के आसपास पाई जाती हैं। यहां लगभग 155 की संख्या में मौजूद ये डॉल्फिन पर्यटकों का प्रमुख आकर्षण हैं, और सुंदरबन के पास मौजूद डॉल्फिन भी।
दूसरी, बाध्य (ऑब्लिगेट) नदी डॉल्फिन, जो केवल मीठी जल राशियों में पाई जाती हैं। माना जाता है कि चीन की यांग्त्ज़ी नदी डॉल्फिन विलुप्त हो गई है, इसे आखिरी बार वर्ष 2007 में देखा गया था। अनोखे गुलाबी रंग वाली अमेज़ॉन नदी की डॉल्फिन 2.5 मीटर से भी अधिक लंबी होती है। लगभग इतनी ही बड़ी गंगा नदी में रहने वाली डॉल्फिन होती है, जो गंगा और ब्रह्मपुत्र की मुख्य नदियों और कुछ सहायक नदियों में पाई जाती है।
गंगा डॉल्फिन की निकट सम्बंधी, सिंधु नदी डॉल्फिन, पंजाब का राजकीय जलीय जीव है। यहां ये डॉल्फिन तरनतारन ज़िले में ब्यास नदी और हरिके आर्द्रभूमि में पाई जाती है। पर्यावरण मंत्रालय के अध्ययन में सिर्फ तीन सिंधु डॉल्फिन मिली हैं, जो इनके अस्तित्व पर मंडराते खतरे को दर्शाता है। पाकिस्तान में बहती सिंधु नदी में ये डॉल्फिन सिर्फ 1800 ही जीवित बची हैं।
मटमैले पानी के अनुकूल
डॉल्फिन और दांतों वाली व्हेल के माथे पर एक विशिष्ट मांसल उभार होता है जिसे मेलन (melon) कहा जाता है। यह एक लेंस की तरह काम करता है जो (प्रकाश को नहीं) ध्वनि को संकेंद्रित करता है, और इकोलोकेशन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हमारे यहां पाई जाने वाली नदी डॉल्फिन मटमैले और कम लवण वाले पानी में रहना पसंद करती हैं। गंगा और सिंधु नदी की डॉल्फिन की एक असामान्य विशेषता उनकी कमज़ोर नज़र है। वे इकोलोकेशन द्वारा मार्ग निर्धारण करती हैं और भोजन ढूंढती हैं; इसमें वे अपनी स्वर-रज्जु से खास क्लिक रूपी अल्ट्रासाउंड तरंगें निकालती हैं, और ललाट पर बने मेलन की मदद से आसपास की वस्तुओं से टकराकर लौटने वाली तरंगों की प्रतिध्वनि को महसूस करती हैं। ये डॉल्फिन करवट पर तैरने की प्रवृत्ति भी दिखाती हैं, भोजन की तलाश में नदी के पेंदे को खंगलाने के लिए वे फिन का उपयोग करती हैं।
हमारी नदी डॉल्फिन प्रजातियों की आंख बमुश्किल एक सेंटीमीटर चौड़ी है; इसमें एक मोटा कॉर्निया होता है और कोई लेंस नहीं होता है। प्रकाश को दर्ज़ करने के लिए रेटिना में बहुत कम कोशिकाएं होती हैं। और दृश्य संवेदनाओं को मस्तिष्क तक पहुंचाने वाली प्रकाश तंत्रिका बहुत क्षीण होती है, यह बमुश्किल एक तंतु जितनी पतली होती है। ऐसा लगता है कि उनमें दृश्य बोध सिर्फ प्रकाश और प्रकाश की दिशा पता लगाने तक ही सीमित होता है। हमारी नदी डॉल्फिन और समुद्री बॉटलनोज़ डॉल्फिन के संवेदना बोध में शामिल मस्तिष्क क्षेत्रों की तुलना करने पर पता चला कि नदी डॉल्फिन का दृष्टि बोध सम्बंधी क्षेत्र असामान्य रूप से छोटा है जबकि उनका श्रवण बोध सम्बंधी क्षेत्र बहुत बड़ा है। यह ध्वनि पर उनकी निर्भरता को दर्शाता है। प्रयोगों में पाया गया है कि सिंधु नदी की डॉल्फिन नायलॉन धागे से लटके 4 मिलीमीटर छोटे बॉल बेयरिंग (छर्रों) की उपस्थिति भी भांप लेती हैं, और उसकी उपस्थिति भांपकर उसकी ओर बढ़ सकती हैं।
गठिया से लेकर मांसपेशीय ऐंठन के उपचार में इस्तेमाल होने वाले तेल का दोहन नदी डॉल्फिन से ही किया जाता है, और उनके इसी उपयोग के चलते उन पर खतरा मंडरा रहा है। अत्यधिक मत्स्याखेट से उनकी भोजन आपूर्ति कम होती है, और अन्य मछलियां के लिए फेंके गए जाल में भी वे फंस जाती हैं। फिर, रासायनिक प्रदूषक एक और खतरा पैदा करते हैं।
तेज़ी से परिष्कृत और उन्नत होती जा रही गणना विधियों के बावजूद, नदी डॉल्फिन की आबादी अस्पष्ट बनी हुई है - उनकी संख्या अधिक भी हो सकती है और कम भी। दोनों स्थितियों में से चाहे जो हो लेकिन फिर भी उनकी संख्या बहुत ही कम है। हमें इन अनूठे जीवों के बारे में सार्वजनिक जागरूकता बढ़ाना होगा। (स्रोत फीचर्स)