पचास वर्ष पूर्व जैविक हथियारों (Bioweapons) पर रोक लगाने के लिए बायोलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन (BWC) नामक संधि अपनाई गई थी। इसका मकसद ऐसे हथियारों को प्रतिबंधित करना था जिनमें जीवित जीवों या उनके उत्पादों, जैसे बैक्टीरिया, वायरस और विषाक्त पदार्थों को जानबूझकर किसी शत्रु या समूह को मारने या नुकसान पहुंचाने के लिए उपयोग किया जाता है।
1975 में लागू हुई यह संधि दुनिया की पहली ऐसी कोशिश थी जिसने एक वर्ग के विनाशकारी हथियारों को गैरकानूनी घोषित किया। इस संधि की वजह से 20 से ज़्यादा जैविक हथियार कार्यक्रम बंद हुए - जिनमें एंथ्रेक्स, स्मॉलपॉक्स (चेचक) जैसे घातक रोग और खेती या पशुओं को नुकसान पहुंचाने वाले वायरस भी शामिल थे।
लेकिन आज का दौर कहीं ज़्यादा खतरनाक साबित हो रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और आधुनिक तकनीकों की मदद से अब प्रयोगशाला में आसानी से ऐसे कृत्रिम वायरस बनाए जा सकते हैं जो पहले संभव नहीं था। और तो और, इन्हें वैज्ञानिक शोध की आड़ में छुपाया भी जा सकता है। चिंता की बात यह है कि BWC में इन नए खतरों को रोकने या पकड़ने के लिए कोई मज़बूत व्यवस्था नहीं है।
दरअसल BWC की एक बड़ी कमज़ोरी यह है कि इसमें यह जांचने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि देश जैविक सुरक्षा के लिए बनाए गए नियमों का पालन कर रहे हैं या नहीं। न कोई औचक निरीक्षण, न पारदर्शिता, और न ही उल्लंघन पर सज़ा का प्रावधान।
फिर, वर्तमान युग आधुनिक तकनीकों का ज़माना है। जीन संपादन, संश्लेषण जीव विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से अब खतरनाक जीवाणु और वायरस बनाना पहले से कहीं आसान हो गया है। इसलिए विशेषज्ञों को डर है कि इन तकनीकों के दुरुपयोग से ऐसे जैविक हथियार बनाए जा सकते हैं जो प्राकृतिक रोगों से भी ज़्यादा संक्रामक, लाइलाज और खास समुदायों को निशाना बनाने वाले हो सकते हैं।
पहले की तरह अब बात सिर्फ देशों तक सीमित नहीं है। जैसे-जैसे जैव तकनीक सस्ती और आसान होती जा रही है, वैसे-वैसे आतंकवादी समूह या कोई भी व्यक्ति अपने मतलब के लिए इनका गलत इस्तेमाल कर सकता है। जो तकनीक पहले सिर्फ सरकारी प्रयोगशालाओं में थी, वो अब निजी कंपनियों और विश्वविद्यालयों में भी उपलब्ध है। यही बात जैव सुरक्षा विशेषज्ञों को सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है।
हो सकता है कोई अपनी स्वार्थ-सिद्धी के लिए किसी व्यस्त बंदरगाह पर खतरनाक वायरस छोड़ दे, और बाद में पास की किसी प्रयोगशाला पर हादसे का इल्ज़ाम लगा दे। इससे जो भ्रम और डर फैलेगा वह खुद बीमारी से ज़्यादा नुकसान करेगा।
न्यूक्लियर थ्रेट इनिशिएटिव (NTI) जैसे कुछ संगठन इस संदर्भ में नई तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसे:
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से व्यापारिक डैटा, शोध पत्र और उपग्रह तस्वीरों की मदद से संदेहास्पद गतिविधियां पकड़ी जा सकती हैं।
डीएनए बनाने वाली कंपनियां खास सॉफ्टवेयर से खतरनाक जीन्स पकड़ सकती हैं।
कुछ दवा कंपनियां निरीक्षण कार्य में मदद कर सकती हैं ताकि संधि उल्लंघन का पता लगाया जा सके।
लेकिन ये व्यवस्थाएं भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। मिनेसोटा युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि कैसे सामान्य 20 के अलावा अन्य अमीनो एसिड्स से खतरनाक प्रोटीन्स बनाकर सॉफ्टवेयर को भी चकमा दिया जा सकता है। इससे पता चलता है कि हमारी मौजूदा सुरक्षा तकनीकों में अभी भी गंभीर खामियां हैं।
BWC को मज़बूत करने की कोशिशें ठप पड़ी हैं। 2024 की एक बैठक में रूस ने ज़रूरी प्रस्तावों को रोक दिया, जिससे निरीक्षण और सहयोग की योजनाएं आगे नहीं बढ़ सकीं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही सीमित स्तर पर ही सही, निरीक्षण शुरू किए जाएं तो नियम तोड़ने वालों को हथियार छिपाना या नष्ट करना पड़ेगा। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की अब भी कमी है।
फिर भी कुछ उम्मीदें ज़रूर हैं। NTI द्वारा शुरू की गई ‘इंटरनेशनल बायोसेक्योरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइंस’ एक वैश्विक पहल है जो जैव तकनीक को दुरुपयोग से बचाने के लिए दिशा-निर्देश और उपकरण विकसित कर रही है। यह मुफ्त स्क्रीनिंग सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराता है और डीएनए बनाने वाली कंपनियों के लिए बेहतर मानक तय करता है। लेकिन इस पहल को वैश्विक समर्थन की ज़रूरत है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि नियमों का पालन करवाने के लिए शायद एकदम परिपूर्ण व्यवस्था न हो, बस इतनी सख्ती हो कि धोखाधड़ी करना बहुत भारी और महंगा पड़े।
फिलहाल जैविक हथियारों को रोकने में शायद कानून नहीं बल्कि नैतिकता, डर और अंतर्राष्ट्रीय मान्यताएं काम कर रही हैं। लेकिन विशेषज्ञों की चेतावनी है कि सिर्फ नेक इरादों के भरोसे रहना खतरनाक है। दुनिया को अपनी जैविक सुरक्षा प्रणाली को मज़बूत करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। (स्रोत फीचर्स)